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11.5.10

संसार मृगमरीचिका के पीछे

बंशीधर मिश्र की कलम से

संसार मृगमरीचिका के पीछे भाग रहा है। मृगमरीचिका अर्थात् जो है नहीं उसका पूरी तरह आभास। ऐसा आभास कि आंखें, मन, बुद्धि सब धोखा खा जाएं। इस समय पूरी दुनिया इसी धोखे का शिकार है। अपनी ताकत की चोटी पर बैठे अमेरिका का मायाजाल उसके अपने ही रचे गए अजायबघर में दम तोड़ गया। पिछले डेढ़-दो सालों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सारा गुरूर चकनाचूर हो गया। एक समय में जिस देश के साम्राज्य का सूरज नहीं अस्त होता था, उस इंग्लैंड की अपनी ताकत अब बची ही नहीं है। यदि अमेरिका और पश्चिम के विकसित पूंजीवादी देश उसको विरादराना सहारा न दें, तो वह मिमियाने की मुद्रा में खड़ा नजर आएगा। आस्ट्रेलिया की तो अर्थव्यवस्था ही भारतीय जैसे विदेशी छात्रों की फीस की बदौलत चल रही है। इंग्लैंड के हाल के चुनावों में तेरह साल से काबिज लेबर पार्टी को जनता ने नकारकर कंजरवेटिव पार्टी को चुन लिया। इसका मतलब यह कि श्रमिकों के हितों और आम आदमी की बेहतरी की बात करने वाली लेबर पार्टी से लोगों का मोह भंग हो गया।


इन दिनों भारतीय संसद जातीय जनगणना पर गुत्थमगुत्था कर रही है। सफेद कपड़ों से लकदक माननीयों की पूरी विरादरी दो हिस्सों में बंटी नजर आ रही है। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, शरद यादव जाति के आधार पर पिछड़ों की जनगणना की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि यदि ऐसा नहीं किया गया, तो यह पिछड़ों का सरासर अपमान माना जाएगा। चिदंबरम जैसे भद्र पुरुष को जाति के आधार पर जनगणना का काम बहुत अटपटा लग रहा है। पर गतिरोध को टालने के लिए प्रधानमंत्री ने खुद संसद में खड़े होकर तीनों यादव तिकड़ी की मांगें मंजूर कर लीं। आजाद हिंदुस्तान में यह पहली बार है जब जाति के आधार पर जनगणना की जा रही है। यह हमारे और हमारे माननीयों के मानसिक विकास की पोल खोलती है।

दरअसल, मनुष्य छलावे में जीने का अभ्यस्त हो चुका है। पूरा संसार उन चीजों के पीछे भाग रहा है, जो हैं ही नहीं। चाहे यह सवाल किसी एक व्यक्ति का हो या किसी समाज, देश या दुनिया का, सब मृगमरीचिका के शिकार हैं। अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियां जिसे अपनी ताकत समझकर इतराती फिरती थीं, वह रेत की दीवार की तरह भरभराकर ढह गयी। दुनिया के 80 फीसदी संसाधनों का अकेले इस्तेमाल करना वाला अमेरिका आर्थिक रूप से गंभीर खतरे के दौर से गुजर रहा है। वहां के करीब एक सौ बैंक और वित्तीय संस्थाएं आर्थिक रूप से दिवालिया हो चुकी हैं। इस सूची में फेडरल बैंक तक शामिल है।

कर्ज की नींव पर खड़ा अमेरिकी समाज अपनी आदतों, व्यसनों की वजह से कंगाली के कगार पर पहुंच चुका है। काल्पनिक अवधारणाओं को अपनी ताकत मानकर जो शेयर बाजार 21 हजार का आंकड़ा पार कर चुका था, वह सालभर पहले सात-आठ हजार के अंक के भीतर गोते लगा रहा था। फिर भी हैरत तो यह है कि आदमी सुधरा नहीं। नास्डैक से लेकर मुंबई स्टाक एक्सचेंज के सूचनापटों पर दुनिया के करोड़ों लोगों की निगाहें टिकी रहती हैं। न जाने कितने खिलाड़ियों ने इस खेल में कंगाल होकर फांसी लगा ली, जहर खा लिए। पर आदमी है कि मानता नहीं। क्योंकि वह सपनों में महल बनाकर उसमें जीने का आदी हो चुका है।

भारतीय संसद पिछले दिनों जातीय जनगणना के मुद्दे पर बहस करती नजर आई। यहां तक कि सत्ताधारी कांग्रेस के सांसद इस मुद्दे पर बंटे नजर आए। गृह मंत्री का तर्क था कि जाति के आधार जनगणना ठीक नहीं। उनके मन मष्तिस्क में व्यावहारिक दिक्कतों के अलावा शायद सैद्धांतिक अड़चनें ज्यादा थीं। जाति को स्वीकारना मनुष्य की विकसित चेतना का विपर्यय माना जाएगा। मनुष्य मूलत: मनुष्य है। उसे जाति, धर्म, संप्रदाय के खांचे में बांटना ठीक नहीं। पर तमाम ‘माननीयों’ की राय में जाति भारतीय समाज का जीवंत यथार्थ है। इसे झुठलाना ठीक नहीं।

सवाल यह उठता है कि इसकी जरूरत क्यों आई? जाति का होना और जातीय जनगणना दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। अपनी जाति की संख्या जानकर ये नेता शायद अपनी राजनीतिक ताकत का आकलन करना चाहते हैं। क्योंकि लोकतंत्र में संख्या बल सबसे बड़ा बल माना जाता है। लेकिन यह बल मनुष्य के आधार पर गिना न जाकर जाति के आधार पर गिना जाए, तो समाजवाद का झंडा ऊंचा करने वाले लोगों पर हंसी आना स्वाभाविक है। लगता है, इसके पीछे उनकी मंशा समाज को बांटकर राज करने की है। जाति भारतीय समाज की कृत्रिम व्यवस्था है। यही नहीं, दुनिया के किसी भी हिस्से में आदमी जाति के साथ पैदा नहीं होता। क्योंकि यह भी मन से उपजी काल्पनिक अवधारणा है। यह जैविक और भौतिक यथार्थ नहीं है। इसीलिए विज्ञान इसे खारिज करता है।

1 comment:

SANJEEV RANA said...

अच्छा लेख