जैसी संभावना थी सरकार ने अपनी पार्टी के निकाय प्रमुखों को बचाने का रास्ता निकाल ही लिया। सरकार ने विधानसभा में नगरपालिका संशोधन कानून पारित कर दो साल तक अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाए जा सकने और साथ ही राइट टू रिकॉल व्यवस्था को लागू कर दिया है।
वस्तुत: सरकार ने जब निकाय प्रमुखों के सीधे जनता के वोटों से चुनने की व्यवस्था की तक नगरपालिका कानून कि धारा 53 के तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाए जा सकने के प्रावधान था। हालांकि धारा 53 का प्रावधान दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द था, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि सरकार को ज्यादा चिंता अपने निकाय प्रमुखों की हुई। सरकार ने देखा कि इससे एक साल बाद ही उसके निकाय प्रमुखों पर तलवार लटक जाएगी तो उसने धारा 53 को ही हटा दिया। सरकार के इस निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने इसको असंवैधानिक बताते हुए रोक लगा दी। अर्थात एक साल पूरा होते ही, अजमेर व जयपुर सहित जहां भी कांग्रेस के निकाय प्रमुख थे और बोर्ड में भाजपा का बहुमत था, वहां अविश्वास प्रस्ताव की नौबत आ जाती। राजनीतिक जानकार समझ रहे थे कि सरकार इसका तोड़ जरूर निकालेगी, और वह भी इसी विधानसभा सत्र में। हुआ भी ऐसा ही। सरकार ने न केवल अविश्वास प्रस्ताव लाने की अवधि दो साल कर दी, अपितु उसे निकाय प्रमुख को हटाने की प्रक्रिया भी जटिल कर दी। अब पहले सदन के तीन-चौथाई सदस्यों को अविश्वास प्रस्ताव के लिए जिला कलेक्टर को अर्जी देनी होगी। कलेक्टर सदस्यों की तस्दीक करने के बाद 14 दिन के भीतर अपने प्रतिनिधि की अध्यक्षता में साधारण सभा की बैठक बुलाएंगे, जिसमें तीन-चौथाई बहुमत से ही अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जा सकेगा। इसके बाद सरकार को सूचित किया जाएगा, जो कि चुनाव आयोग को जनमत संग्रह कराने का आग्रह करेगी। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आमतौर पर किसी भी निकाय प्रमुख के खिलाफ अविश्वास प्र्रस्ताव लाना असंभव सा होगा। पहले तो तीन-चौथाई बहुमत जुटाना की टेढ़ी खीर होगा। अगर तीन-चौथाई सदस्य जुट भी गए तो भी निकाय अध्यक्ष को जनता ही हटाएगी, न कि सदस्य।
हालांकि सरकार ने संशोधन कानून तो अपने निकाय प्रमुखों को बचाने के लिए पारित किया है और इससे निकाय प्रमुखों के निरंकुश होने का खतरा रहेगा, लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष ये है कि अब निकाय प्रमुखों की इच्छा शक्ति बढ़ेगी और वे अब बिना किसी दबाव के काम कर सकेंगे। वरना वर्तमान स्थिति तो ये थी कि विशेष रूप से अजमेर व जयपुर में मेयरों की हालत बेहद खराब थी। एक साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव आने के डर से वे भाजपा पार्षदों से घबराए हुए थे। इसका परिणाम ये हुआ कि एक तो वे कोई भी निर्णय करने से पहले दस बार सोचते थे, दूसरा मेयरों की कमजोरी का फायदा उठा कर प्रशासनिक अधिकारी हावी हुए जा रहे थे। जयपुर की मेयर ज्योति खंडेलवाल विपक्ष के हमलों से बेहद परेशान थीं। अफसर इतने हावी हो गए थे कि उन्हें उनके खिलाफ ही मोर्चा खोलना पड़ा। परिणाम स्वरूप अफसर भी लामबंद हो गए। इस प्रकार का गतिरोध पहली बार आया, जिससे निपटने के लिए सरकार को तेजतर्रार आईएएस राजेश यादव को सीएमओ से निगम के सीईओ के रूप में भेजना पड़ा। इसी प्रकार अजमेर में मेयर कमल बाकोलिया की कमजोरी के परिणामस्वरूप जब शहर बदहाली की राह पर चल पड़ा तो जिला प्रशासन को निगम के सफाई, अतिक्रमण व यातायात जैसे मूलभूत कामों में हस्तक्षेप का मौका मिल गया। निगम की स्वायत्तता बेमानी होनी लगी थी।
लब्बोलुआब दोनों ही निगमों में चुने हुए जनप्रतिनिधि निरीह से नजर आने लगे थे। खैर, अब जब कि सरकार ने कानून में संशोधन कर दिया है, निकाय प्रमुखों को काफी राहत मिल गई है। देखना ये है कि वे इसका सदुपयोग करते हुए जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का पालन कितने बेहतर तरीके से करते हैं।
ताजा घटनाक्रम में सुकून वाली बात ये रही कि सरकार ने मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार लागू करने का विचार त्याग दिया प्रतीत होता है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके थे, लेकिन समझा जाता है कि सरकार यह भलीभांति जानती थी कि इसको हाईकोर्ट में चुनौती जरूर दी जाती, इस कारण यह विचार ही त्याग दिया।
वस्तुत: सरकार ने जब निकाय प्रमुखों के सीधे जनता के वोटों से चुनने की व्यवस्था की तक नगरपालिका कानून कि धारा 53 के तहत निकाय अध्यक्षों के खिलाफ चुनाव के एक साल बाद अविश्वास प्रस्ताव लाए जा सकने के प्रावधान था। हालांकि धारा 53 का प्रावधान दोनों ही पार्टियों के लिए एक बड़ा सरदर्द था, लेकिन ऐसा समझा जाता है कि सरकार को ज्यादा चिंता अपने निकाय प्रमुखों की हुई। सरकार ने देखा कि इससे एक साल बाद ही उसके निकाय प्रमुखों पर तलवार लटक जाएगी तो उसने धारा 53 को ही हटा दिया। सरकार के इस निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने इसको असंवैधानिक बताते हुए रोक लगा दी। अर्थात एक साल पूरा होते ही, अजमेर व जयपुर सहित जहां भी कांग्रेस के निकाय प्रमुख थे और बोर्ड में भाजपा का बहुमत था, वहां अविश्वास प्रस्ताव की नौबत आ जाती। राजनीतिक जानकार समझ रहे थे कि सरकार इसका तोड़ जरूर निकालेगी, और वह भी इसी विधानसभा सत्र में। हुआ भी ऐसा ही। सरकार ने न केवल अविश्वास प्रस्ताव लाने की अवधि दो साल कर दी, अपितु उसे निकाय प्रमुख को हटाने की प्रक्रिया भी जटिल कर दी। अब पहले सदन के तीन-चौथाई सदस्यों को अविश्वास प्रस्ताव के लिए जिला कलेक्टर को अर्जी देनी होगी। कलेक्टर सदस्यों की तस्दीक करने के बाद 14 दिन के भीतर अपने प्रतिनिधि की अध्यक्षता में साधारण सभा की बैठक बुलाएंगे, जिसमें तीन-चौथाई बहुमत से ही अविश्वास प्रस्ताव पारित किया जा सकेगा। इसके बाद सरकार को सूचित किया जाएगा, जो कि चुनाव आयोग को जनमत संग्रह कराने का आग्रह करेगी। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आमतौर पर किसी भी निकाय प्रमुख के खिलाफ अविश्वास प्र्रस्ताव लाना असंभव सा होगा। पहले तो तीन-चौथाई बहुमत जुटाना की टेढ़ी खीर होगा। अगर तीन-चौथाई सदस्य जुट भी गए तो भी निकाय अध्यक्ष को जनता ही हटाएगी, न कि सदस्य।
हालांकि सरकार ने संशोधन कानून तो अपने निकाय प्रमुखों को बचाने के लिए पारित किया है और इससे निकाय प्रमुखों के निरंकुश होने का खतरा रहेगा, लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष ये है कि अब निकाय प्रमुखों की इच्छा शक्ति बढ़ेगी और वे अब बिना किसी दबाव के काम कर सकेंगे। वरना वर्तमान स्थिति तो ये थी कि विशेष रूप से अजमेर व जयपुर में मेयरों की हालत बेहद खराब थी। एक साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव आने के डर से वे भाजपा पार्षदों से घबराए हुए थे। इसका परिणाम ये हुआ कि एक तो वे कोई भी निर्णय करने से पहले दस बार सोचते थे, दूसरा मेयरों की कमजोरी का फायदा उठा कर प्रशासनिक अधिकारी हावी हुए जा रहे थे। जयपुर की मेयर ज्योति खंडेलवाल विपक्ष के हमलों से बेहद परेशान थीं। अफसर इतने हावी हो गए थे कि उन्हें उनके खिलाफ ही मोर्चा खोलना पड़ा। परिणाम स्वरूप अफसर भी लामबंद हो गए। इस प्रकार का गतिरोध पहली बार आया, जिससे निपटने के लिए सरकार को तेजतर्रार आईएएस राजेश यादव को सीएमओ से निगम के सीईओ के रूप में भेजना पड़ा। इसी प्रकार अजमेर में मेयर कमल बाकोलिया की कमजोरी के परिणामस्वरूप जब शहर बदहाली की राह पर चल पड़ा तो जिला प्रशासन को निगम के सफाई, अतिक्रमण व यातायात जैसे मूलभूत कामों में हस्तक्षेप का मौका मिल गया। निगम की स्वायत्तता बेमानी होनी लगी थी।
लब्बोलुआब दोनों ही निगमों में चुने हुए जनप्रतिनिधि निरीह से नजर आने लगे थे। खैर, अब जब कि सरकार ने कानून में संशोधन कर दिया है, निकाय प्रमुखों को काफी राहत मिल गई है। देखना ये है कि वे इसका सदुपयोग करते हुए जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का पालन कितने बेहतर तरीके से करते हैं।
ताजा घटनाक्रम में सुकून वाली बात ये रही कि सरकार ने मनोनीत पार्षदों को भी वोट देने का अधिकार लागू करने का विचार त्याग दिया प्रतीत होता है। इस आशय के संकेत स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल दे चुके थे, लेकिन समझा जाता है कि सरकार यह भलीभांति जानती थी कि इसको हाईकोर्ट में चुनौती जरूर दी जाती, इस कारण यह विचार ही त्याग दिया।
1 comment:
पूरी तरह से sahmat ..
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