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19.4.11

गजल


मेरी हयात में शरीक रहा, जब तेरे नाम का रिश्ता।

मेरा ख्वाब भी बुनता रहा तब तेरे नाम का रिश्ता।


कुछ गिला था तुझसे, शिकवे तेरे भी सुने थे मैंने,

जब तलक रहा मेरे नाम से, तेरे नाम का रिश्ता।


बहुत कोशिशें की, इजहार में तमाम तीज-त्यौहार रीत गये,

कभी चाहा ही नहीं उसने मुझको, रहा नाम का रिश्ता।


उसके दरीचे से बस एक मैं खाली हाथ लौटा हूं,

शायद जिस शख्स के साथ था मेरा, बस नाम का रिश्ता।


मैं उसकी राह कैसे अपने मंजिल की तरफ मोड़ देता,

जिस शख्स का था मेरी मंजिल से बस नाम का रिश्ता।

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रविकुमार बाबुल

ravi9302650741@gmail.com

1 comment:

Khare A said...

gazal achhi he sahib!