1
मिटाकर बस्तियां अपना बनाया घर तो क्या मानी
मुकद्दर के यही मानी अगर हैं तो हैं बेमानी
रहेगी उम्र भर रौशन ये दुनिया शोहरतों वाली
अगर ये सोच रक्खा है तो है ये सोच बेमानी
कुंवर प्रीतम
2
नयन में नीर,दिलों में पीर,मिलन क्या अब नहीं होगा
जमाने की चुभन जालिम,मिलन क्या सच नहीं होगा
खिली कलियां मुहब्बत की,रची है हाथ में मेंहदी
मिलन फिर भी न होगा तो,सितम क्या तब नहीं होगा
कुंवर प्रीतम
3
अपने मुल्क के नेता कितने,सीधे-कितने भोले हैं
देश डकार गए सारा मुंह फिर भी अपना खोले हैं
देख सियासत का मंजर अब पूछ रही भारत माता
लाल बहादुर कहां गए औ कहां बसन्ती चोले हैं
कुंवर प्रीतम
4
आज का मंजर न जाने रास क्यूं आता नहीं
हाल दिल्ली का किसी को अब कहीं भाता नहीं
जम्हूरियत की धज्जियां उड़ा रहे खुद रहनुमा
क्यूं गुलिस्तां को बचाने अब कोई आता नहीं
कुंवर प्रीतम
5
चार दिनों की खातिर मैडम घर से बाहर क्या गयीं
आफत सारे जग की,माथे कांग्रेस के आ गयी
एक हुंकार भरी अन्ना ने,जाग उठी सारी जनता
भ्रष्टाचारी कुनबे को खुद उसकी सियासत खा गयी
कुंवर प्रीतम
6
मान देश का क्या होता है, दिल्ली वाले क्या जानें
भूख, गरीबी और महंगाई, दिल्ली वाले क्या जानें
जनता के पैसे से जिनको मिली कोठियां, मंत्री पद
जनता की दुश्वारी, दंभी दिल्ली वाले क्या जानें
कुंवर प्रीतम
26.8.२०११
2 comments:
बहुत सुन्दर सार्थक और खूबसूरत प्रस्तुति .
जानदार मुक्तक...
सादर...
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