सरकारी लोकपाल मात्र कागजों का पुलिंदा
दिनांकः-4/8/2011
आज केंद्र सरकार की काग्रेसीयों ने जिस तरह का रुख लोकपाल विधेयक बिल पर अपनाया है उससे इस मुद्दे पर आज पूरे देश वासियों के साथ ही साथ अन्ना हजारे और उनका टिम को एक अजीबोगरिब असमंजस की स्थीती पर ला कर खड़ा कर दिया है। भ्रष्टाचार पर एक मजबूत लोकपाल विधेयक संसद मे लाने के स्थान पर सरकार मै बैठे नीति-निर्धारण करने वाले लोगों ने सरकार की पसंदिदा बिल को संसद मे रखने एवं पास कराने लिए परोक्ष-अपरोक्ष रुप से सरकार की मद्द करने से आम जनता मे बीच यह संदेश गया कि केंद्र मे बैठे कांग्रेस सरकार जैसा चाह रही थी उसी तरह का ही सरकारी लोकपाल विधेयक के मसौदे को कैबिनेट ने मंजूरी दे कर इसे एक अगस्त से शुरू होने वाले संसद के मानसून सत्र में 4 तारिख को पेश कर दिया । अन्ना हजारे के पक्ष की ओर से पेश किए गए लोकपाल विधेयक बिल मे सुझाए गए चालिस बिन्दुओं में से चौतिस को सरकार सरकारी मसौदे में शामिल करने का दावा जरुर किया गया है। लेकिन वास्तविक्ता कुछ और होने के साथ ही साथ इस विधेयक के तीन अहम मुद्दों पर सिविल सोसाइटी और सरकार के मध्य गंभीर मतभेद बने हुए हैं।
जैसा कि सरकारी लोकपाल विधेयक 2011 के मसौदे के अंतर्गत उच्च न्यायपालिका, प्रधानमंत्री और संसद के अंदर सांसदों के आचरण को भ्रष्टाचार निरोधी निकाय के दायरे से बाहर रखने के इसी तीन मुद्दों पर सरकार और अन्ना के बीच मतभेद बना हुआ है। अन्ना हजारे के टीम का यह कहना था कि सी.बी.आई को भी लोकपाल के दायरे मे लाया जाना चाहिए जिससे सी.बी.आई के काम-काज में पारदर्शिता लाया जा सके, लेकिन केंद्र सरकार इसे भी अपने अधीन रखना चाहती है। इस प्रकार की एक कमजोर सरकारी लोकपाल विधेयक से देश मे अब तक हुए बड़े-बड़े घोटालों पर के जांच अपने आप ही निषक्रिय होकर मात्र कागजों का एक पुलिंदा बन कर रह गया है।
जैसा कि सरकारी लोकपाल में एक अध्यक्ष और 8 दूसरे सदस्यों मे से लगभग आधे लोग न्यायपालिका से होंगे जिस मे से 5 सदस्यों की नियुक्ति स्वंम प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा किया जाएगा। इस प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति में लोकसभा और राज्य सभा में विपक्ष के नेता, , राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अध्यक्ष, सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट के एक-एक सेवारत न्यायाधीश, कैबिनेट के एक सदस्य शामिल रहेंगे। ऐसे लोगों को जिम्मेदारी वाले पदों पर काम करने का कम से कम पच्चिस वर्षो का अनुभव होगा। लोकपाल की अपनी एक जांच इकाई और एक अभियोजन इकाई होगी, लेकिन लोकपाल अभियोजन चलाने के लिए सक्षम नहीं होंगे। अभियोजन चलाने का अधिकार केवल न्यायपालिका के पास ही होगा।
जैसा कि अन्ना हजारे और उनकी टीम ने सरकारी लोकपाल बिल के मसौदे को देश की जनता के साथ धोखा-धड़ी करने वाली बात कहा गया है। इससे अन्ना हजारे के 16 अगस्त से दोबारा आंदोलन शुरु करने का रास्ता और साफ़ हो गया। अगर देखा जाए तो भ्रष्टाचार निरोधी लोकपाल के पास इतने अधिकार अवश्य होना चाहिए था कि लोकपाल मात्र एक सरकारी कागजों का पुलिंदा बन कर न रह जाए। प्रधानमंत्री का पद लोकपाल के दायरे में लाने को लेकर उनके कैबिनेट के सहयोगियों द्वारा इस बात पर विरोधी रवैया अनेको तरह के शंकाओं को जन्म देता है कि आखिर सरकार प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर क्यूँ रखना चाहती है? जब कि खुद प्रधानमंत्री अपने पद को लोकपाल के दायरे मे लाने की बात को स्विकार किया था यह अलग बात है कि विचार विमर्श करने के बाद उन्होने इसे अचानक अस्वीकार कर दिया।
जहां तक न्यायपालिका की बात है, इसमे भ्रष्टाचार का स्तर वर्तमान समय मे राजनीति मे हुए या हो रहे भ्रष्टाचार के समकक्ष तो नहीं है लेकिन इस बात को भी झुठलाया नही जा सकता है कि वर्तमान समय मे कई एक जज भ्रष्टाचारी में लिप्त पाए गए हैं। सरकारी लोकपाल विधेयक में सिर्फ उच्च स्तर के ही अधिकारियों के खिलाफ जांच करने के प्राविधान की वकालत की गई है। लोकपाल केवल क्लास-ए स्तर के अधिकारीयों द्वारा किए गए घोटालों की जांच कर सकेगा लेकिन देखा जाए तो निचले स्तर पर ज्यादा भ्रष्टाचार फैला हुआ है। इस तरह यह साफ हो जाता है कि सरकार की नियत प्रस्तावित लोकपाल विधेयक बिल पर मात्र जनता को दिलासा और दिखावे का एक कागजी दस्तावेज़ भर ही है। कैबिनेट ने जिस तरह के लोकपाल बिल को मंजूरी दी है उसमे राजनेताओं के हितों का भरपूर ध्यान रखा गया है। विधेयक के अनुसार शिकायत सुनने के लिए न तो कोई अलग से सेल होगा और न ही भ्रष्टाचार की शिकायत करने वालों को किसी प्रकार की सुरक्षा प्रदान की जाएगी। अब जरा सोचिए कि इस तरह की परिस्थितियों में कौन व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत करना चाहेगा ? ऊपर से लोकपाल किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति या नौकरशाह को सज़ा नहीं दे सकता| है। वह सिर्फ मामले की जांच कर मुद्दे को कोर्ट तक ही ले जा सकता है। लोकपाल के पास शायद इतना अधिकार अवश्य होगा कि वह भ्रष्ट नौकरशाहों की संपत्ति जब्त कर सके, लेकिन मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को देखकर इसमें भी संशय पैदा होना लाजमी है। सरकार और नेता वर्ग के लोग यह कभी नही चाहेंगे कि एक सशक्त लोकपाल बिल अस्तित्व मे आए जिसमे उन्हीं लोगों का नुकसान हो। अगर भारत देश मे एक मजबूत लोकपाल अस्तित्व में आ जाता है तो देश के अधिक्तर नेताओं का असली चरित्र जनता के समक्ष आ जाएगा जिस बजह से उनकी राजनीति पर कुठाराघात होने के साथ ही साथ एक प्रश्न-चिन्ह भी लग जाएगा। देर-सबेर नेता लोग जेल की सलाखों के पिछे नजर आने लगेंगे। सरकार ने जिस तरह की लोकपाल बिल के मसौदे को मंजूरी दिया है इससे यह ही स्पष्ट हो जाता है कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जिस तरह के इच्छा-शक्ति की जरुरत है; वह सरकार में नहीं है। अब ऐसा लग रहा है कि हमें जीवन-पर्यंत तक इस भ्रष्टाचार के इसी दलदल में ही अपना सम्पूर्ण जीवन गुजारने के लिए मजबूर रहेंगे। सबसे अहम बात यह है कि हमारे देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्टाचार को अपनी जिंदगी की एक अहम हिस्सा मान लेने की मौन सहमति भी दे दिया है। जैसा कि अभी तक किसी भी पार्टी ने लोकपाल विधेयक बिल पर अपनी राय खुल कर जनता के सामने नहीं रखा है। सभी दलें अपने राजनीतिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए केवल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने की राजनीति ही कर रहे हैं लेकिन सशक्त लोकपाल बिल के पक्ष में एक पार्टी को छोड़ कर किसी की भी जुबान तक नहीं हिली।
1 comment:
महाशय, आप क्या एक समानांतर सरकार चाहते हैं, आज जिद कर रहे हैं कल पछताएंगे
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