टू जी स्पैक्ट्रम मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा के कार्यकाल में बांटे गए 122 लाइसेंस रद्द किए जाने के साथ ही एक बार फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह घिर गए हैं। विपक्षी दल सिंह सहित सोनिया गांधी व राहुल गांधी से इस मामले में मुंह खोलने की मांग कर रहे हैं। सिंह पर इस्तीफा देने का दबाव भी बनाया जा रहा है। इस्तीफा वे चाह कर भी नहीं दे सकते। जब बने ही कांग्रेस सुप्रीमो की मर्जी से हंै तो इस्तीफा भी उनकी मर्जी से ही देंगे। कठपुतली प्रधानमंत्री उन्हें यूं ही नहीं कहा जाता है। कठपुतली वे दो हिसाब से हैं। एक सोनिया गांधी की और दूसरा गठबंधन सरकार की मजबूरी के कारण। गठबंधन की मजबूरी का ही ये हश्र हुआ कि वे ए. राजा को घोटाला करने से नहीं रोक पाए। मंत्री पद से हटाया भी तब, जब कि पूरी तरह से घिर गए।
हालांकि इस घोटाले में सीधे तौर पर सिंह को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, मगर उनके नेतृत्व में चल रही सरकार के एक मंत्री द्वारा इतना बड़ा घोटाला अंजाम दिए जाने के बाद भी उसे बचाने की जुगत करने से ही यह साफ हो गया कि गठबंधन वाली सरकार होने के कारण वे बेहद कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इसे वे खुद भी स्वीकार कर चुके हैं। इस मामले में चहुंओर से दबाव बनने पर राजा को गिरफ्तार करने, मगर घोटाले की पूरी जानकारी होने के बाद भी वित्त मंत्री पी. चिदंबर को पाक साफ साबित करने की कोशिशों से भी यह स्पष्ट हो गया है कि सिंह बेहद मजबूर प्रधानमंत्री हैं। जाहिर तौर पर इसके लिए उन्हें सोनिया का मुंह ताकना पड़ता होगा। बावजूद इसके केवल खुद के ईमानदार होने के नाते उन्हें पूरी तरह से दोष मुक्त नहीं माना जा सकता। सदन में बहुमत के चलते उनको प्रधानमंत्री पद से भले ही नहीं हटाया जा सकता हो, मगर हकीकत ये है कि उन्होंने पद पर रहने का नैतिक अधिकार खो दिया है। ये दीगर बात है कि पांच राज्यों में आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस चाह कर भी उनका इस्तीफा दिलाने का साहस नहीं दिखा सकती। स्वाभाविक सी बात है कि टू जी मामला एक बार फिर यकायक गरमा जाने का नुकसान कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में उठाना पड़ सकता है।
इसे चाहे कांग्रेसी स्वीकार करें या नहीं, मगर अनेक घोटालों के चलते सिंह की मिस्टर क्लीन की छवि धूमिल हो चुकी है। ईदानदार और विद्वान होने के कारण उनकी जो चमक थी, वह भी अब गायब हो चुकी है।
आपको ख्याल होगा कि जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर मनमोहन सिंह की ताजपोशी करवाई थी तो केवल सिखों व पंजाबियों को ही नहीं, पूरे देश के हर जाति वर्ग को संतुष्टि थी कि अब देश विकास की गति पकड़ेगा, क्योंकि सिंह वित्तीय मामलों के मास्टर हैं। मगर हुआ उलटा। लगातार उघड़ते घोटालों और सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई ने उनकी ईमानदारी और विद्वता पर सवालिया निशान लगा दिया। पूरे देश की छोडिय़े, सिख बहुल पंजाब में भी उनकी छवि फीकी हो गई है। ज्ञातव्य है कि पंजाब में सिंह के नाम पर कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव में तेरह सीटों में से आठ पर कब्जा कर लिया। लेकिन पिछले तीन साल के दौरान हालत बदल गए हैं। उनके प्रति वहां मोहभंग की स्थिति उत्पन्न हो गई है। हालत ये है कि उनकी अमृतसर की चुनावी सभा कामयाब नहीं रही और लुधियाना की रैली तो रद्द ही करनी पड़ गई।
बहरहाल, प्रधानमंत्री के अब तक कार्यकाल पर नजर डाली जाए तो असल में उन्हें कभी अपने दम पर कुछ करने का मौका ही नहीं मिला। साथ सच यह भी है कि अपने दम पर वे प्रधानमंत्री बने भी नहीं हैं। उनके बारे में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि वे स्वयं निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। चाहे साझा सरकार की वजह से चाहे एक रिमोट चालित रोबोट की भांति कांग्रेस आलाकमान द्वारा नियंत्रित व निर्देशित होने की वजह से। इसका परिणाम ये हुआ है कि न तो वे भ्रष्टाचार पर काबू पा सके और न ही महंगाई पर। भले अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक परिस्थितियों का बहाना लिया जाए, मगर यह एक विडंबना ही है कि एक महान अर्थशास्त्री होने के बाद भी वे महंगाई पर काबू पाने का कोई फार्मूला नहीं निकाल पाए। उलटे वे यह कह कर बचने की कोशिश करते हैं कि उनके पास कोई जादूई छड़ी नहीं है।
हालांकि यह सही है कि कांग्रेस ने पिछला चुनाव उनके नाम पर लड़ा और जीती, मगर उसका श्रेय सिंह के खाते में नहीं था। कांग्रेस जीती तो अपने वर्षों पुराने नेटवर्क और सोनिया-राहुल के प्रति आकर्षण की वजह से। पहली बार भी वे अपनी राजनीतिक योग्यता की वजह से प्रधानमंत्री नहीं बने थे, बल्कि सोनिया गांधी की ओर से चयनित किए गए थे। हालांकि तब प्रधानमंत्री बननी तो सोनिया ही थीं, मगर उनके विदेशी मूल की होने के कारण देश में अराजकता पैदा किए जाने का खतरा था। साथ ही कोर्ट में भी चुनौती की पूरी संभावना थी। अत: मजबूरी में सबसे बेहतर विकल्प के रूप में उनका नंबर आ गया। ऐसे में उनकी निष्ठा और उत्तरदायित्व जाहिर तौर पर सोनिया गांधी के प्रति है, न कि देश के प्रति। और इसी कारण अब तक टिके हुए भी हैं। इसी तथ्य से जुड़ा एक पहलु ये है कि अगर सिंह की जगह कोई और भी होता तो उसे अपनी निष्ठा सोनिया के प्रति ही रखनी होती। वह भी कठपुतली रह कर कायम रह सकता था।
3 comments:
बहुत प्रशंसनीय.......
उन्होंने अपने अन्दर के एक अच्छे इंसाल का कत्ल किया जो देश को नई उंचाइयों पर ले जा सकता था और कुर्सी मैया पर बने रहने के लिए सारे घोटालों और कुकर्मों की अनदेखी की और मुहर लगाई। इस गुनाह की सजा तो उन्हे मिलनी ही चाहिये।
हमारे शाश्त्र भी कह रहे हैं , हम सब कठपुतलिया ही तो हैं.
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