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2.2.12

सूर्य और चन्द्रमा का रहस्यमय गन्धर्व विवाह


 Marriage of Sun & Moon
सौरऊर्जा, इलेक्ट्रोन और लिनोलेनिक एसिड का अलौकिक संबंध:-
डॉ. बुडविग इस युग की महान, स्पष्टवादी, निडर और विदुषी वैज्ञानिक रही हैं और इन्होंने सूर्य के फोटोन्स और मानव शरीर में इलेक्ट्रोन्स के आकर्षण और अनुराग को क्वांटम भौतिकी और जीवरसायन विज्ञान के परिपेक्ष में देवता सूर्य और देवी चन्द्रमा के रहस्यमय गन्धर्व विवाह की संज्ञा दी है। सूर्य और विभिन्न सितारों से निकला प्रकाश इस बृह्माण्ड में सबसे तेज गति से विचरण करता है। इस पूरी कायनात में प्रकाश  से तेज चलने वाली कोई वस्तु या किरण नहीं है। प्रकाश समय के साथ चलता है। क्वांटम भौतिकी के अनुसार सूर्य की किरणों के सबसे छोटे घटक या कण को क्वांटम या फोटोन कहते हैं जो अनंत हैं, शाश्वतहैं, सक्रिय हैं, सदैव हैं, ऊर्जावान हैं और गतिशील हैं। इन्हें कोई ताकत रोक नहीं सकती है। ये ऊर्जा का सबसे परिष्कृत रूप हैं, ये सबसे निर्मल लहर हैं। इनमें ब्रह्मांड के सारे रंग है। ये अपना रंग, प्रकृति और आवृत्ति बदल सकते हैं। जब दो फोटोन एक ही लय में स्पन्दन कर रहे हों तो कभी वे आपस में जुड़ कर अस्थाई और क्षणिक काल के लिए पदार्थ का एक छोटा सा रूप जिसे π0 कण कहते हैं बन जाते हैं। यह कण दूसरे ही क्षण टूट कर दो फोटोन्स के रूप में विभाजित हो जाता है और पुनः एक विशुद्ध लहर (द्रव्यमान रहित) का रूप ले लेता है। यह फोटोन्स की ऊर्जा (प्रकाश) से पदार्थ में और फिर पदार्थ से ऊर्जा में अवस्था परिवर्तन का निराला उदाहरण है। फोटोन्स को एक स्थान पर स्थिर करना असंभव होता है, यही सापेक्षता के सिद्धांत (Theory of Relativity) का आधार है।


इलेक्ट्रोन्स परमाणु का घटक है और न्यूक्लियस के चारों ओर अपने निश्चित कक्ष में निश्चित आवृत्ति में सदैव परिक्रमा करते रहते हैं, सदैव सक्रिय, ऊर्जावान और गतिशील रहते हैं। इलेक्ट्रोन्स फोटोन्स से प्रेम करते हैं और इनका चुम्बकीय क्षेत्र अत्यन्त गतिशील फोटोन को अपनी ओर आकर्षित करता है, यदि वे एक ही लय में स्पन्दन कर रहे हों। जब भी कोई विद्युत आवेश गतिशील होता है तो एक चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। गतिशील फोटोन का भी चुम्बकीय क्षेत्र होता है।  फोटोन्स की आवृत्ति, जिसे वह बदल सकते हैं, स्पन्दन कर रहे इलेक्ट्रोन्स की आवृत्ति के समकक्ष होने पर ही वे मिल सकते हैं और कक्ष में एक ही लय और ताल पर गुंजन करते हैं। यह प्रकृति का बहुत दिलचस्प और पवित्र नृत्य है जिसे वैज्ञानिकों ने भौतिक, जैविक, पारलौकिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्वपूर्ण माना है।   

फोटोन सूर्य से निकलकर, जो 9.3 अरब मील दूर है, असीम ऊर्जा लेकर, जीवन की आस लेकर, प्यार की बहार लेकर, खुशियों की सौगात लेकर आते हैं, अपनी लय, ताल व आवृत्ति बदल कर इलेक्ट्रोन, जो अपने कक्ष में निश्चित आवृत्ति पर सदैव परिक्रमा करते रहते हैं, की ओर आकर्षित होते हैं, साथ मिल कर नृत्य करते हैं और तब पूरा कक्ष समान आवृत्ति में दिव्य गुंजन करता है और असीम सौर ऊर्जा का प्रवाह होता है। यही है जीवन का असली फलसफा, प्रेम का उत्सव, यही है प्रकृति का संगीत। यही है फोटोन रूपी सूर्य और इलेक्ट्रोन रूपी चंद्र का पारलौकिक गंधर्व विवाह, यही है शिव और पार्वति का तांण्डव नृत्य, यही है विष्णु और लक्ष्मी की रति क्रीड़ा, यही है कृष्ण और राधा का अनंत, असीम प्रेम।

हमें सूर्य से बहुत प्रेम है और यह सिर्फ कोई संयोग नहीं है। हमारे शरीर की लय सूर्य की लय से इतनी मिलती है कि हम सूर्य की ऊर्जा का सबसे ज्यादा अवशोषण करते हैं। इसलिए क्वांटम वैज्ञानिक कहते हैं कि संपूर्ण ब्रह्मांड सबसे ज्यादा सौर ऊर्जा या फोटोन मनुष्य के शरीर में ही होते हैं। यह क्षमता और बढ़ जाती है जब हम अत्यंत असंतृप्त वसा-अम्ल युक्त भोजन का सेवन करते हैं। इनमें भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं, जिनका विद्युत-चुम्बकीय प्रभाव सूर्य से निकले फोटोन्स को आकर्षित करता है। कई तेलों (जैसे अलसी) में जीवन ऊर्जा से भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं, जिनकी लय सौर-किरणों की लय के बहुत मिलती है। वैज्ञानिकों ने इन ऊर्जावान इलेक्ट्रोन-युक्त अत्यंत असंत्रप्त तेलों को जीवन के लिए परम आवश्यक माना है। उन्ही दिनों लालची बहुराष्ट्रीय संस्थानों ने शैल्फ लाइफ बढ़ाने की दृष्टि से विभिन्न रसायनों और उच्त तापमान की मदद से तेलों को परिष्कृत करना शुरू किया था।  तेलों के परिष्कृत करने की प्रक्रिया से तेलों में मौजूद सारे सजीव इलेक्ट्रोन्स नष्ट हो जाते हैं और बचता है मृत, प्लास्टिक-तुल्य, इलेक्ट्रोन विहीन तेल, जो न तो फोटोन्स को आकर्षित कर सकता है और ना ही श्वसन हेतु कोशिका में ऑक्सीजन को खीचने में सक्षम हैं। तब इन संस्थानों ने यह नहीं सोचा कि इसका मानव के स्वास्थ्य पर कितना बुरा प्रभाव पड़ेगा। आज आप और हम उनके कुकृत्य का परिणाम देख रहे हैं कि माटापा, मधुमेह, हृदयरोग, कैंसर, डिप्रेशन, आर्थ्राइटिस जैसे रोग महामारी का रूप ले चुके हैं।  लेकिन फिर भी सब चुप हैं।   

जब सूर्य की किरणें हरे-भरे पेड़ों के मंडवे या झुरमुट पर पड़ती है और प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) द्वारा अवशोषित होती हैं तो पेड़ में इलेक्ट्रोन्स प्रवाहित होते हैं।  पेड़ों में जल और इलेक्ट्रोन के प्रवाहित होने से चुम्बकीय क्षेत्र बनता है। आप यह जान चुके हैं कि स्वस्थ मनुष्य के शरीर में भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं और उसकी कोशिकाओं तथा ऊतकों में विद्युत प्रवाहित होने की क्षमता होती है। जब वह मनुष्य पेड़ों के झुरमुट से गुजरता है तो पेड़ों के विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव से उसके शरीर के ऊतक विद्युत आवेश से भर जाते हैं। जब हमारे शरीर में रक्त बहता है और चुम्बकीय क्षेत्र में लाल रक्त-कण गुजरते हैं तो उनकी भित्तियों में विद्यमान असंत्रप्त वसा में भी विद्युत आवेश पैदा होता है। जब भी हृदय संकुचित होता है तो लसिका-तंत्र (Lymphatic System) से लसिका-द्रव्य (Lymph Fluid) की कुछ मात्रा, जिसमें भरपूर इलेक्ट्रोन-युक्त अत्यंत असंभप्त वसा होते हैं, रक्त प्रवाह में प्रवेश करते है और फिर हृदय में पहुँचते हैं। इससे हृदय की विद्युत संचालन शक्ति प्रोत्साहित और मजबूत होती है।  यह सब विद्युत चुम्बकीय तरंगों के नियमों के अनुसार ही होता है।

इस तरह मनुष्य एक ट्रांसमीटर की तरह कार्य करता है। मनुष्य की नाड़ियों की संरचना बेलनाकार होती है जिसमें कई परतें, गुच्छिका (Ganglia) होते हैं। विभिन्न तंत्रिकाओं (neurons) और वृक्षिका (dendrites) में  विद्युत विभव (electrical potential) भिन्न-भिन्न होता है। इसी कारण चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव से नाड़ियों में विद्युत धारा प्रवाहित होती हैं, जो विद्युत चुम्बकीय तरंगे छोड़ती है। जब कोई मनुष्य किसी के बारे में अच्छा सोचता है, तो उसके शरीर से विद्युत चुम्बकीय तरंगे निकलती हैं।  इन तरंगों को वही ग्रहण कर पाता है जिसकी लय उस व्यक्ति की लय के समकक्ष होती है। यहाँ एम्प्लीफायर और ट्रांसमीटर भी होते हैं जो इन तरंगों की कार्य प्रणाली में हस्तक्षेप करते हैं। यह क्वांटम औतिकी और  जीव रसायन विज्ञान ही दूरबोध (telepathy), मानसिक दूरबोध (mental telepathy),  सम्मोहन (hypnosis) आदि  का वैज्ञानिक आधार है। उत्तरी युरोप के अमुक कबीले के लोग (Nordic people) दूर दराज अपने व्यक्ति बात करने हेतु पेड़ों की मदद से आवाज का परिवर्धन (Amplify) करते थे। जैसे कोई स्त्री पेड़ से लिपट कर जोर से कहती है कि शहर से लौटते समय नमक लेते आना और शहर गये व्यक्ति को आभास हो जाता है कि पत्नि ने नमक मंगवाया है। इसका आधार भी विद्युत चुम्बकीय तरंगे ही है, जो मेक्सवेल के गणितीय सूत्र के अनुसार व्यवहार करती हैं।
  
जीवनशक्ति और अल्फा-लिनोलेनिक एसिड (ए.एल.ए)-

डॉ. योहाना बडविग ने फोटोन्स, इलेक्ट्रोन्स और आवश्यक वसा अम्लों के पारस्परिक संबन्धों की बड़ी अच्छी विवेचना की है। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण लिनोलिक अम्ल LA (cis- linoleic acid), लिनोलेनिक अम्ल ALA (cis- linolenic acid) और शरीर में इनसे बनने वाले इनसे भी ज्यादा असंत्रप्त वसा-अम्लों की अद्भुत सिस संरचना है। पौधों के एंजाइम्स में वसा-अम्ल की लड़ में तीसरे कार्बन के बाद द्वि-बंध (double bond) बनाने की क्षमता होती है, जब कि मनुष्य के एंजाइम्स नवें कार्बन के बाद द्वि-बंध बना सकते हैं। यदि वसा-अम्ल में एक से ज्यादा द्वि-बंध (double bond)  होता है  तो उसे बहु असंत्रप्त वसा (Poly Unsaturated Fatty Acid) कहते हैं। लिनोलिक अम्ल LA में दो कार्बन असंत्रप्त होते हैं अर्थात दो द्वि-बंध (double bond) होते हैं और लिनोलेनिक अम्ल ALA में तीन द्वि-बंध (double bond) होते हैं। दो द्वि-बंध के बीच तीन कार्बन की फासला होता है।

वसा-अम्लों की लड़ में विद्यमान ये असंत्रप्त द्वि-बंध सीधी लड़ को मोड़ देते हैं क्योंकि प्रकृति लड़ में एक ही तरफ के हाइड्रोजन परमाणु अलग करती है। इसे सिस विन्यास (cis- configuration) कहते हैं। यह वसा-अम्ल के भौतिक और रसायनिक गुणों को बदल देता है। मुड़ने के कारण वसा-अम्लों की लड़ आपस में धुलती नहीं है, बल्कि आपस में फिसलती हैं और सामान्य तापमान पर तरल रहती हैं। जबकि संत्रप्त वसा-अम्लों (जैसे मक्खन, धी, वनस्पति धी या नारियल का तेल) की लड़ें आपस में चिपकती हैं और सामान्य तापमान पर ठोस रहती हैं। आवश्यक वसा-अम्लों में ऋणात्मक आवेश रहता है और ये सतह की बढ़ने की कौशिश करते हैं। इस गुण को सरफेस एक्टिविटी कहते हैं। सरफेस एक्टिविटी के कारण ही ये वसा-अम्ल टॉक्सिन्स को त्वचा, आँत, गुर्दा और फेफड़ों की सतह तक पहुँचा देते हैं, जहाँ उनका विसर्जन हो जाता है।  आवश्यक सिस असंत्रप्त वसा-अम्ल रक्त वाहिकाओं में जमा नहीं होते हैं और उन्हें अवरुद्ध नहीं होने देते हैं।

सिस विन्यास के कारण वसा-अम्ल की लड़ के मोड़ में इलेक्ट्रोन्स एक झुन्ड या बादल के रूप में जमा हो जाते हैं। इन्हें पाई-इलेक्ट्रोन्स  (pi-electrons)  कहते हैं। इलेक्ट्रोन के इस बादल में अपार विद्युत आवेश रहता है जो सूर्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड से आनेवाले प्रकाश की किरणों के सबसे छोटे घटक फोटोन को आकर्षित करते हैं, अवशोषण करते हैं। ये पाईइलेक्ट्रोन ऊर्जा का संग्रहण करते हंह और एक एन्टीना की तरह काम करते हैं। इन बादलों का विद्युत बल ऑक्सीजन को आकर्षित करने की क्षमता रखता है और प्रोटीन्स को झिल्लियों में पकड़े रहता है।  कोशिका की भित्तियों में वसीय माध्यम होता है जबकि दोनों तरफ जलीय माध्यम होता है। इन पाई-इलेक्ट्रोन्स  (pi-electrons) के कारण वसा-अम्ल भित्ति में फेज़ बाउन्डरी विद्युत विभव उत्पन्न होता है। केपेसिटर की भांति यह विद्युत आवेश नाड़ी, मांस पेशी, हृदय और भित्तियों की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक विद्युत धारा प्रवाहित करता है।

शरीर के अहम अंग जैसे मस्तिष्क, दृष्टि पटल (रेटीना), आंतरिक कर्ण, एड्रीनल और वृषण को सुचारु रूप से कार्य करने के लिए बहुत शक्ति, ऊर्जावान सक्रिय इलेक्ट्रोन्स और ऑक्सीजन की जरूरत होती है, जो उन्हें आवश्यक वसा-अम्ल से ही प्राप्त होती है। आवश्यक वसा अम्ल शरीर में जीवन ऊर्जा के उन्मुक्त प्रवाह के लिए अत्यंत जरूरी है।   

पौधों की गहरी हरी पत्तियों मौजूद तेल में आधा लिनोलेनिक अम्ल होता है (हरी पत्तियों में तेल की मात्रा एक प्रतिशत या कम होती है)।  क्लोरोप्लास्ट नामक कोशिकाओं की भित्तियों में लिनोलेनिक अम्ल की मात्रा और अधिक होती है, जहाँ प्रकाश-संश्लेषण की प्रक्रिया संपन्न होती है। यहाँ पाई-इलेक्ट्रोन्स सौर-ऊर्जा को बीजों में रसायनिक ऊर्जा के रूप में  संरक्षित करते हैं और बीजों के सेवन करने पर लिनोलेनिक अम्ल ALA  से यह ऊर्जा हमें प्राप्त होती है।  शरीर में पाई-इलेक्ट्रोन्स की मात्रा बढ़ने से जीवन ऊर्जा बढ़ती है जो उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर तेज मस्तिष्क में होने वाली सारी कार्य-प्रणाली के लिए आवश्यक है।

स्वस्थ मानव शरीर में भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं, उसमें सूर्य के फोटोन्स को आकर्षित और संचय करने की क्षमता भी सबसे ज्यादा होती है। उसके ऊतकों में भरपूर अत्यंत असंत्रप्त वसा अम्ल तथा ऑक्सीजन रहती है, सारी जीवन क्रियाएं सुचारु रूप से संपन्न होती है, वह सदैव ऊर्जावान तथा निरोगी रहता है वह सदैव भविष्य में आगे की ओर अग्रसर होता है। इसे मानुष की संज्ञा दी गई है और इसके विपरीत अमानुष की  भी परिकल्पना की गई है। अमानुष में सूर्य के फोटोन्स की लय में लय मिला कर आकर्षित करने वाले इलेक्ट्रोन्स बहुत ही कम होते हैं, वह ऊर्जाहीन तथा कमजोर होता है, उसकी जीवन क्रियाएं शिथिल हो जाती हैं, उसके विचार और सोच नकारात्मक हो जाती है और वह विभिन्न रोगों से ग्रस्त रहता है और जीवन रेखा में  भूतकाल की ओर गमन करता है। भौतिकी और गणित की दृष्टि से क्षय किरणें, गामा किरणें, परमाणु बम, कोबाल्ट रेडियेशन आदि मानव स्वाथ्य के लिए घातक हैं, शरीर के सजीव इलेक्ट्रोन्स को नष्ट करती हैं, शरीर की जीवन क्रियाओं को शिथिल कर देती हैं  और उसे अमानुष बनाती है यानि भूतकाल की ओर धकेलती हैं। आधुनिक भौतिकशास्त्र के सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार जीवन रेखा, समय तथा बृह्माण्ड एक ही समीकरण पर आधारित है। अमानुष भूतकाल की ओर गमन करता है। सूर्य के गतिशील फोटोन्स तथा इलेक्ट्रोन्स का अन्तर्सम्बंध मानव शरीर में विभिन्न कौशिकीय जीवन क्रियाओं को सम्पूर्ण करता है और मानव भविष्य की दिशा में बढ़ता है।

डॉ. बडविग ने उपरोक्त संदर्भ में  फैट्स की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना है। भोजन में विद्यमान असंत्रप्त फैट्स में भरपूर इलेक्ट्रोन्स होते हैं जो जीवनदायक प्राणवायु ऑक्सीजन को आकर्षित करते हैं। लेकिन जबसे मनुष्य ने इलेक्ट्रोन युक्त असंत्रप्त वसा को छोड़ कर ट्रांस फैट्स से भरपूर और सजीव इलेक्ट्रोन्स रहित रिफाइंड तेल और हाइड्रोजिनेटेड फैट खाना शुरू किया है, तबसे ये फैट भविष्य की ओर अग्रसर जीवन्त मानुष को भूतकाल के गर्त में ले जाते हैं। ये मारक वसा शरीर में टार या प्लास्टिक की भांति व्यवहार करते हैं, प्रोटीन से जुड़ नहीं पाते हैं, ऑक्सीजन को आकर्षित नहीं कर पाते हैं,  विद्युत प्रवाह में कुचालक की तरह व्यवहार करते हैं और शरीर की श्वसन क्रिया और सारी जीवन प्रणालियों को शिथिल करते हैं।  इस तरह ये मारक वसा हमें भूतकाल की तरफ ले जा रहे हैं, दुर्बल तथा रुग्ण बना रहे हैं, कैंसर जैसे रोग का शिकार बना रहे हैं, अमानुष बना रहे हैं।  

जिस भोजन से उसके इलेक्ट्रोन्स की दौलत नष्ट कर दी गई हो वह हमें अमानुष बनाता है, भूतकाल की ओर ले जाता है और कैंसर का शिकार भी बनाता है। ठोस परिर्तित, परिष्कृत और हाइड्रोजिनेटेड वसा इस श्रेणी में आते हैं। दूसरी ओर इलेक्ट्रोन युक्त पोषण, इलेक्ट्रोन्स से भरपूर सजीव असंत्रप्त वसा और स्वादिष्ट फल शरीर में सौरऊर्जा का अवशोषण, संचय और उपयोगिता बढ़ाते हैं।

मेरा उपचार लेने के बाद जब रोगी धूप में लेटते थे तो वे नई ऊर्जा और ताजगी महसूस करते थे। दूसरी ओर आजकल हम देखते हैं कि धूप में लोगों के हार्ट फेल हो रहे हैं, हार्ट अटेक हो रहे हैं। स्वस्थ मानव में यकृत, अग्न्याशय, वृक्क, मूत्राशय आदि ग्रंथियों की स्रवण क्षमता पर सूर्य के चमत्कारी प्रभाव को हम महसूस कर सकते हैं। लेकिन यदि शरीर में सजीव, इलेक्ट्रोन युक्त, अत्यंत असंत्रप्त वसा अम्लों का अभाव है तो उपरोक्त ग्रंथियों पर सूर्य प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और ये सूखने लगेंगी। डॉक्टर कैंसर के रोगी को कहते हैं कि सीधी सूर्य की रोशनी से बचें। एक तरह से यह सही भी है। लेकिन वे डॉ. बडविग का आवश्यक वसा से भरपूर आहार शुरू करते हैं, दो या तीन दिन बाद ही उनको धूप में बैठना सुहाना लगने लगता है, सूर्य जीवन की शक्तियों को जादू की तरह उत्प्रेरित करने लगता है और शरीर दिव्य ऊर्जा से भर जाता है। - डॉ. योहाना बडविग, द फैट सिन्ड्रोम एण्ड द फोटोन्स दि सोलर एनर्जी।

व्यापार के धनाड्य मसीहाओं द्वारा डॉ. बडविज को प्रताड़ित करना -

डॉ. बडविग ने अपने परीक्षणों से ये सिद्ध कर दिया था कि मार्जरीन, जिसे मछली या तेलीय बीजों से निकले असंत्रप्त तेलों को उच्च तापमान पर गर्म करके बनाया जाता है, घातक ट्रासंफैट से भरपूर होता है और हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। मार्जरीन हमें कैंसर, हृदय रोग, डायबिटीज, मोटापा, आर्थाइटिस आदि रोगों का शिकार बनाते हैं। वे अपने शोध-पत्र विभिन्न स्वास्थ्य पत्रिकाओं में प्रकाशित कर रही थी और लोगों को मार्जरीन के खतरों अवगत करवा रही थी। डॉ. बडविग की निर्भीकता, स्पष्ट-वादिता और सच बोलने की आदत से व्यापार के धनाड्य मसीहा बड़े चिन्तित थे। उन्हें डर था कि बुडविज की शोध मार्जरीन की बिक्री को चौपट कर देगी। यहाँ मसीहा से मतलब स्वार्थ के लिए विज्ञान पर नियन्त्रित रखने वाले अमीर बहुराष्ट्रीय संस्थानों से है। मार्जरीन बनाने वाली कम्पनियों ने डॉ. बुडविग को रिश्वत में ढेर सारी दौलत और एक दवा की दूकान देने की कौशिश की, पर बुडविज ने रिश्वत लेने से स्पष्ट मना कर दिया।

डॉ. बडविज को प्रताड़ित करने के लिए मार्जरीन बनाने वाली कम्पनियों ने बड़े बड़े षड़यंत्र रचे, उनकी प्रयोगशाला छीन ली गई और जरनल्स में उनके शोध-पत्रों के प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात थी, जबकि वह कई अस्पतालों से संलग्न थी और वह बहुत बड़े सरकारी ओहदे पर थी। उसका कार्य हमारे शरीर पर नई दवाओं और फैट्स के दुष्प्रभावों का अध्ययन करना और उन्हें प्रमाणित करना था। इस तरह बुडविग ने निडर होकर देश और दुनिया के प्रति अपना फर्ज़ निभाया। सन् 1953 में उन्होंने सरकारी पद छोड़ दिया और अपनी क्लीनिक खोल कर कैंसर के रोगियों का उपचार करना शुरू कर दिया। और इसके साथ ही फैट्स पर हो रही शोध पर लगभग लंबा विराम लग गया है।

प्राचीन काल से कई धर्म-शास्त्रियों और दार्शनिकों ने ईश्वर और मन की बादल के रूप में व्याख्या की है। इन दार्शनिकों में ईश्वर को शरीर, मन और आत्मा (body, spirit and soul) का पवित्र संगम माना है, ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिवेणी पर गंगा, जमुना और सरस्वती के संगम को एक पवित्र तीर्थ माना गया है।  तत्व, ऊर्जा और मस्तिष्क (matter, energy and mind) के दार्शनिक मिलन की त्रिवेणी को मनुष्य माना है।  वैज्ञानिकों ने इन सिद्धांतों का बहुत अध्ययन किया है। इसी तरह इलेक्ट्रोन, फोटोन और पाई-क्लाउड के पारस्परिक क्रिया-कलाप से जीवन-ऊर्जा मिलती है। 

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