Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

8.7.12

हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था


हिन्दू धर्म और वर्ण व्यवस्था 


हिन्दू धर्म सनातन धर्म है और हिन्दू दर्शन और हिन्दू ग्रन्थ परिपूर्ण हैं .हम ग्रंथो का पठन करते हैं
और शाब्दिक अर्थ को पकडे रखते हैं .अधिकाँश ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है और संस्कृत भाषा एक
ऐसी भाषा है जो गूढार्थ रखती है ,संस्कृत भाषा में एक-एक पंक्ति की सूक्तियो में गूढार्थ समाया रहता
है इसलिए ग्रंथो पर टीका करना आम आदमी के बस की बात नहीं है .
       हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था का अनुपालन होता था और वर्ण व्यवस्था आवश्यक भी है .क्या
पौराणिक काल की वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित थी ? नहीं ,हिन्दू ग्रंथो में जन्म आधारित वर्ण
व्यवस्था का स्थान नहीं था .
       हिन्दू ग्रंथो में लिखा है कि शुद्र को ईश्वर तत्व को जानने  का अधिकार नहीं है,इसमें गलत क्या
है? हिन्दू धर्म ग्रंथो में जन्म आधारित जाती व्यवस्था का उल्लेख नहीं है वहां कर्म आधारित वर्ण
व्यवस्था का उल्लेख है .हिन्दू ग्रंथो में वर्ण व्यस्था को चार विभाग में बांटा -ब्राह्मण ,क्षत्रिय,वेश्य
और शुद्र .प्रश्न उठता है ब्राह्मण कौन?या शुद्र कौन? इस शंका को एक श्लोक के माध्यम से समझाया
गया है कि ब्राह्मण की उत्पति भगवान् के मुँख से,क्षत्रिय की ह्रदय से,वेश्य की नाभि से और शुद्र की 
पैरो से हुयी है .इसका शाब्दिक अर्थ से  भ्रम पैदा होता है लेकिन इस श्लोक का भाव जानकार यह सही
लगता है. 


भावार्थ  -

 शरीर में मुँह का स्थान सर्वोच्च है क्योंकि मुँह में मस्तिष्क ,आँख ,कान ,जीभ और नाक
जैसी इन्द्रियाँ हैं .मुँह में विवेक और विचार शक्ति ,सुनने की शक्ति,अभिव्यक्ति की शक्ति ,सुगंध की
शक्ति विद्यमान है ,जो भी प्राणी इन शक्तियों का सदुपयोग करता है वह ब्राह्मण है .

          ह्रदय का कार्य जीवन को बनाए रखना है ,जीवन का संरक्षण करना है जो प्राणी इस पृथ्वी
के चराचर जीवों की रक्षा का उत्तरदायित्व लेता है वह क्षत्रिय है .

        नाभि स्थल का भाग पोषण और उत्पति से सम्बंधित है जो प्राणी जगत के पालन पोषण
में पुरुषार्थ करता है वह वेश्य है.

       पेरो का कार्य है मुँह ,ह्रदय और उदर के स्थल को मजबूती से संभाले रखना .पैरो पर किसी
इन्द्रिय का भार नहीं है जो प्राणी विवेक,वीरता,व्यापार से हटकर कुछ करना चाहता है वह सेवा
का क्षेत्र है.

  अब इस व्यवस्था को जन्म आधारित कैसे माना  जा सकता है ,यह व्यवस्था कर्म आधारित ही थी
और वर्तमान में भी होनी चाहिए.

      वाल्मीकि का जन्म भले ही छोटे वंश में हुआ था लेकिन उनके कर्म ऋषियों की श्रेणी के थे
इसलिए ही वे पूज्य बन गए और वाल्मीकि रामायण की रचना कर सके .उनकी पहचान ऋषि
रूप में विख्यात है .निषाद परिवार में जन्म लेने के कारण राजा गुह को नीच समझा जाना चाहिए
था मगर भगवान् राम ने अपना आलिंगन दिया और छोटे भाई के समान प्यार तथा स्नेह दिया ,
कही भी यह उल्लेख नहीं है कि निषाद की नीच कुल में उत्पति को राम ने अस्पर्शीय माना .भीलनी
का जन्म शुद्र कुल में हुआ था मगर उसके कर्म ब्राह्मण के थे तभी तो श्री राम ने उनके जूठे बेर भी
प्रेम से ग्रहण किये .जटायु का जन्म गीद्ध जाती में हुआ मगर उसके कर्म क्षत्रियोचित थे इसलिए
भगवान् राम ने अपने पूर्वज की भाँती उनका अंतिम संस्कार खुद के हाथो से किया .

     शुद्र का अर्थ है ओच्छे विचार वाला ,संकुचित विचार वाला ,स्वार्थी विचार वाला ,निष्ठुर ,संवेदना
रहित ,पाप कर्म में रचा पचा रहने वाला .क्या ऐसा व्यक्ति ईश्वर तत्व को जानने का अधिकारी हो
सकता है .जिस व्यक्ति के आचरण और स्वभाव लोक हित के प्रतिकूल हो उससे लोक मंगल की
आशा कैसे की जा सकती है ?शुद्र का आशय यह कदापि नहीं किया जाना चाहिए कि हलके कुल में
उत्पन्न प्राणी .(आज हमारे देश में ऐसे शासन कर्ता हो गये हैं जिनका कर्म कुछ है और जाती कुछ 
ओर है , पद क्षत्रिय का पा गए हैं और काम शुद्र का करते हैं )

       भगवान् राम के श्री मुख से वाल्मीकि ने कहलाया है अयोध्याकाण्ड में जब उनका मिलन निषाद
राजा गुह से होता है कि"गुह शांत,संयमी,नम्र,सहनशील और दानी हैं ,इनके कर्म ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ है .ऐसा 
सोचना महान त्रुटी है कि मनुष्य की जाती उसके जन्म पर आधारित होती है .वेदों का निष्कर्ष भी ऐसा 
नहीं है।.अपितु जाती का निर्धारण गुणों के आधार पर किया जाता है ."

हर व्यक्ति हर दिन वर्ण  क्रम का पालन करता है .जब सुबह उठकर शोच कर्म करता है या घर में साफ
सफाई करता है तब शुद्र वर्ण का पालन करता है ,स्नान करके पूजा आराधना या दबे कुचले वर्ग की सेवा
करता है तो ब्राह्मण वर्ण का पालन करता है ,घर से काम के लिए बाहर निकलता है तब वेश्य वर्ण का
पालन करता है और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ ,व्यवस्था में बाधा उत्त्पन्न करने वाले के खिलाफ
संघर्ष करता है तो क्षत्रिय वर्ण का पालन करता है.इसका मतलब अकेला व्यक्ति ही सब वर्णों को जीता है 

 जाती  व्यवस्था की समस्या  क्यों 


जबसे हमने कर्म के महत्व को गौण कर दिया है और जन्म के वंश को महत्व दे दिया है तब से वर्ण 
व्यवस्था बिखर गयी है .ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण चाहे उसके कर्म कैसे भी निचे दर्जे के हो और शुद्र का 
बेटा शुद्र चाहे उसके कर्म कितने ही ऊँचे क्यों ना हो .


वर्तमान वर्ण व्यवस्था के सहभागी कौन  
         
वर्तमान में हर धर्म में जन्म के आधार पर ऊँची नीची जातियाँ विद्यमान है .ऊँची जाती के लोग यह
चाहते हैं कि उनका जन्म उच्च कुल में होने के कारण वे आदरणीय हैं और निचे या शुद्र कुल के लोग
उनकी सेवा करे .

शुद्र वंश के लोग भी इस व्यवस्था में जीना छोड़ नहीं पा रहे हैं उनकी मानसिकता या नजरिया भी
जन्म आधारित ही है वे अपने को दीन -हीन और कुचला समाज के अंग के रूप में स्वीकार कर चुके
हैं .उनकी बस्तियां भी वे साफ सुथरी नहीं रखते,अभावो और अँधेरे में जीना उन्होंने स्वीकार कर
लिया है .

हमारा संविधान भी अप्रत्यक्ष रूप से जन्म आधारित जातिगत व्यवस्था का पोषण करता प्रतीत
होता है .हमारा संविधान सवर्ण वर्ग-दलित वर्ग या अनुसूचित जाती ,अनुसूचित जन जाती में जन्म
के आधार पर ही व्यवस्था प्रदान करता है .सरकारी सुविधाओं का फायदा भी जन्म के वंश  के अनुसार
मिल रहा है .आरक्षण की व्यवस्था भारतीयों में अगड़ी जाती और पिछड़ी जाती का भेद पैदा करती है 
जो जन्म आधारित है इसलिए दबा कुचला वर्ग आरक्षण के जाल में अपने को दलित या पिछड़ा बना 
रहने में ठीक समझता है क्योंकि वहाँ कम योग्यता की जरूरत है .


   आवश्यकता क्या है   


हम जन्म आधारित जाती व्यवस्था को नकारे और गुण आधारित व्यवस्था की तरफ आगे बढे .

उच्च पदों पर गुणवान और चरित्रवान लोगो का चयन हो चाहे वह किसी भी जाती का हो .

वह भारतीय, जो दबा कुचला वर्ग है उसे विशेष सुविधा मिले ताकि उसकी योग्यता का विकास हो
चाहे उसका जन्म ऊँची जाती में हुआ हो या नीची जाती में .


No comments: