बारिश का मौसम आ चुका है। खूंखार आतंकवादी मच्छरों का प्रजनन काल शुरू हो गया है। यह आपके शरीर में मलेरिया परजीवी की घुसपेठ करवाने के लिए सीमाओं पर मंडरा रहा है। आइ.एस.आई. हर दम इसकी मदद करने के लिए खड़ा है। आप सतर्क हो जाइये। अपने डिफेंस की पूरी तैयारी कर लीजिये। इस दृष्टि से मैं आपको इस फाइटर (Gnat) के कारनामों के बारे में बतला देना चाहता हूँ।
मच्छर में स्पोरोगोनी
मलेरिया परजीवी का जीवन चक्र
मलेरिया प्लास्मोडियम वंश के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस
वंश की पाच प्रजातियां मानव को संक्रमित करती हैं - प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम
वाईवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल, प्लास्मोडियम
मलेरिये तथा प्लास्मोडियम नौलेसी। इनमें से सबसे पराक्रमी और घातक पी. फैल्सीपैरम
माना जाता है, मलेरिया के 80 प्रतिशत रोगी इसी प्रजाति के
संक्रमण की देन है। मलेरिया से मरने वाले 90 प्रतिशत रोगियों का कारण पी. फैल्सीपैरम
संक्रमण ही माना गया है।
मच्छर
मादा एनोफिलीज़ मच्छर मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक होती है, जिसे मलेरिया का
संक्रमण फैलाने में महारत हासिल है। एनोफिलीज़ वंश के मच्छर सर्वत्र व्याप्त हैं।
लेकिन सिर्फ मादा एनोफिलीज़ मच्छर ही रक्तपान करती है, अतः
यही परजीवी की वाहक बनती है न कि नर। मादा एनोफिलीज़ मच्छरों की सेना रात होते ही
शिकार की तलाश में उड़ान भरती है और हमारे घर तथा शयन-कक्ष में पहुँच कर मंडराते
हुए हमारे शरीर के कई हिस्सों पर अवतरण करती है और अपने मुँह पर लगे सेंसर्स से
पता करती है कि कहाँ से रक्त लेना आसान रहेगा। उचित स्थान का चुनाव होते ही यह एक
कुशल चिकित्सा कर्मी की तरह अपना लम्बा चूषण यंत्र त्वचा में घुसा देती है और पलक
झपकते ही खून चूस कर चम्पत हो जाती है।
यह ठहरे हुए पानी में अंडे देती है क्योंकि अंडों और उनसे निकलने वाले
लार्वा दोनों को पानी की अत्यंत आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त लार्वा को श्वसन
के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे, लार्वा, प्यूपा और फिर वयस्क
होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले
भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की जरूरत
होती है।
प्लास्मोडियम
का जीवन चक्र
मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़
मच्छर बनती है। वयस्क मच्छर संक्रमित मनुष्य को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया
परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (gametocytes)
मच्छर की मध्य आहार नलिका (Mid Gut) में नर और मादा के रूप
में विकसित होते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (Zygote) बनाते हैं
जो मच्छर की आहार नलिका की भित्तियों में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते
हैं, और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (Sporozoites) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। जब मच्छर फिर एक स्वस्थ
मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।
मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में
प्रथम चरण, और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता
है तो बीजाणु (Sporozoites) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत
में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर ही ये यकृत की
कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह
चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (Merozoites) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त-प्रवाह में प्रवेश कर जाते हैं
तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।
वयस्क मच्छर संक्रमित मनुष्य को काटने पर उसके रक्त से
मलेरिया परजीवी को भी ग्रहण कर लेता है। अतिसूक्ष्म, एक काशिकीय और संसाधनहीन
मलेरिया परजीवी का जीवन चक्र बहुत जटिल होता है और दो वाहकों मादा एनोफिलीज़ मच्छर
और मनुष्य पर आश्रित रहता है। परजीवी अपनी सुरक्षा और विकास के लिए वाहकों के 5000
से ज्यादा जीन्स तथा विशिष्ट प्रोटीन्स समेत अनेक संसाधनों का भर पूर उपयोग करता
है।
मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़
मच्छर बनती है, जहाँ इसके जीवन चक्र की लैंगिक अवस्था, जिसे स्पोरोगोनी कहते हैं,
सम्पन्न होती है। इस अवस्था में मच्छर के शरीर में असंख्य बीजाणु विकसित होते हैं
जो मनुष्य के शरीर में पहुँच कर मलेरिया का कारक बनते हैं।
जब मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर मलेरिया से संक्रमित मनुष्य का
रक्तपान करती है, तब रक्त के साथ मलेरिया के नर और मादा जननाणु (gametocytes)
भी उसकी आहार-नलिका में प्रवेश कर जाते हैं। यहाँ नर और मादा जननाणु जुड़ कर
जाइगोट बनाते हैं, जो विकसित होकर सक्रिय ऊकाइनेट (Ookinete)
बनता है। यह ऊकाइनेट मध्य आहार-नलिका की भित्ति में प्रवेश करता है, जहाँ यह
विकसित और विभाजित होता है और ऊसिस्ट (oocysts) बनता है।
इसमें हजारों बीजाणु (sporozoites) रहते हैं। 8-15 दिन की
स्पोरोगोनिक अवस्था के अन्त में ऊसिस्ट टूट जाता है और असंख्य बीजाणु आहार-नलिका
में आ जाते हैं। ये बीजाणु चल कर मच्छर की लार ग्रंथियों (salivary glands) में एकत्रित हो जाते हैं। अब यह मच्छर मनुष्य में मलेरिया फैलाने के लिए
पूरी तरह तैयार है। जैसे ही यह मच्छर रक्तपान के लिए मनुष्य को काटता है, लार
ग्रंथियों में एकत्रित बीजाणु भी मनुष्य के शरीर में छोड़ दिये जाते हैं। यह देखा
गया है कि परजीवी और मच्छर दोनों एक दूसरे की मदद करते हैं और मलेरिया फैलाने में
सक्रिय भागीदारी निभाते हैं।
मनुष्य में शाइज़ोगोनी (Schizogony in the Human)
मलेरिया परजीवी के जीवन चक्र का अगला भाग मनुष्य के शरीर
में सम्पन्न होता है। जैसे ही बीजाणु (Sporozoites)
मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं, ये यकृत की कोशिकाओं में छिप कर अपने विकास को
आगे बढ़ाते हैं। यकृत में अपना चक्र पूरा करने के बाद परजीवी अपनी अगली जीवन लीला
लालरक्त कोशिकाओं में पूरा करते हैं। जीवन चक्र के इसी भाग में मनुष्य को मलेरिया
के अनेक लक्षण और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है।
प्रिइरेथ्रोसाइटिक अवस्था – यकृत में शाइज़ोगोनी (Pre-erythrocytic Phase - Schizogony in the Liver)
जब मनुष्य को संक्रमित मच्छर काटता है तो मनुष्य की त्वचा में दर्जनों
या सैंकड़ों बीजाणु प्रवेश कर जाते हैं। कुछ बीजाणुओं को तो शरीर की भक्षी
कोशिकाएं (Macrophages) खा जाती हैं। कुछ बीजाणु लसिका वाहिकाओं में तो कुछ रक्त-वाहिकाओं में
पहुँचने में सफल हो जाते हैं। जो बीजाणु लसिका वाहिकाओं में पहुँचते हैं, पास के
लसिकापर्व में जाकर एक्सोइरेथ्रोसाइटिक अवस्था (Exoerythrocytic stages) में चक्रित होने लगते हैं। जो बीजाणु रक्त-वाहिकाओं में पहुँचते हैं, वे
मनुष्य की सुरक्षा सेना से बचते हुए कुछ ही घंटों में सीधे यकृत में पहुँच जाते
हैं। बीजाणु थ्रोम्बोस्पोन्डिन-रिलेटेड ऐनोनिमस प्रोटीन (TRAP) परिवार और ऐक्टिन-सायोसिन मोटर की मदद से परिवहन करते हैं। यकृत में
पहुँच कर ये यकृत की कोशिकाओं की पेरेसाइटोफोरस वेक्युओल में विभाजित और विकास
करते हैं। यहाँ हर बीजाणु बढ़ कर शाइज़ोन्ट बनता है, जिसमें 10000-30000 अंशाणु (Merozoites) होते हैं। यकृत में परजीवी के विकास में सर्कमस्पोरोज़ोइट नामक प्रोटीन
बहुत मदद करता है, जो परजीवी स्वयं बनाता है। प्रिइरेथ्रोसाइटिक अवस्था 5-16 दिन
चलती है, फैल्सिपैरम में औसतन 5-6 दिन, वाइवेक्स में 8 दिन, ओवेल में 8 दिन,
मलेरिये में 13 दिन और नौलेसी में 8-9 चलती है। यह परजीवी की शांत अवस्था है,
इसमें पोषक मनुष्य को मलेरिया का कोई लक्षण या विकृति नहीं होती है, क्योंकि
बीजाणु यकृत की थोड़ी कोशिकाओं पर ही आक्रमण करते हैं। यह अवस्था एक ही
चक्र पूरा करती है, जबकि अगली इरेथ्रोसाइटिक अवस्था बार-बार पुनरचक्रित होती
है।
यकृत कोशिका में पनपने वाले अंशाणु पोषक कोशिका द्वारा ही बनाई
मीरोज़ोम नामक एक कुटिया में ही वियुक्त (Isolated) रहते हैं, और यकृत में स्थित भक्षी कुफर
कोशिकाओं के प्रकोप से सुरक्षित रहते हैं। अंततः अंशाणु यकृत कोशिका से निकल कर
रक्त-प्रवाह में विलय हो जाते हैं और घातक तथा सबसे महत्वपूर्ण इरेथ्रोसाइटिक
अवस्था की शुरुवात करते हैं।
वाइवेक्स और ओवेल मलेरिया में कुछ बीजाणु यकृत में महीनों और वर्षों
तक सुषुप्त पड़े रहते हैं। इन्हों सुप्ताणु (Hypnozoites) कहते हैं, और ये अव्यक्त अवधि (जो
कुछ सप्ताह से कुछ महीने हो सकती है) के बाद विकसित होकर शाइज़ोन्ट बनते हैं। ये
सुप्ताणु ही संक्रमण के कई महीने बाद हुए आवर्ती मलेरिया का कारण बनते हैं।
इरेथ्रोसाइटिक शाइगोनी – लालरक्त कोशिकाओं में होने वाली
मुख्य और केन्द्रीय अवस्था (Erythrocytic Schizogony - Centre Stage in Red Cells)
मलेरिया परजीवी के अलैंगिक जीवन चक्र की मुख्य और केन्द्रीय
अवस्था लालरक्त कोशिकाओं सम्पन्न होती है। लालरक्त कोशिकाओं में परजीवी के विकास
का चक्र एक निश्चित अवधि में बार-बार पुनरचक्रित होता है और चक्र के अंत में
सैंकड़ों नन्हे अंशाणु उत्पन्न होते हैं जो नई लालकोशिकाओं पर आक्रमण करती हैं।
यकृत से निकल कर अंशाणुओं को लालरक्त कोशिकाओं को पहचान कर
उनसे चिपकने और फिर उनमें प्रवेश करने में एक मिनट से भी कम समय लगता है। इससे
परजीवी की सतह पर लगा एंटीजन पोषक (मनुष्य) के सुरक्षाकर्मियों की नजर से बच निकलने
में सफल हो जाता है। अंशाणुओं के लालरक्त काशिका में प्रवेश हेतु दोनों की सतह पर
लगे लाइगेन्ड्स के पारस्परिक आणविक संवाद भी मदद करता है। वाइवेक्स डफी बाइन्डिंग-लाइक
प्रोटीन और रेटिकुलोसाइट होमोलोजी प्रोटीन की मदद से सिर्फ डफी ब्लड ग्रुप
पोज़ीटिव लाल कोशिकाओं पर ही आक्रमण करते हैं।
ध्यान रहे कि आक्रामक और घातक फैलसिपैरम में चार तरह के
डफी बाइन्डिंग-लाइक प्रोटीन (DBL-EBP) जीन्स होते हैं, जबकि वाइवेक्स में
एक ही डफी बाइन्डिंग-लाइक प्रोटीन (DBL-EBP) जीन होता है।
इसलिए फैलसिपैरम कई तरह के लाल रक्त कोशिकाओं पर आक्रमण कर सकता है।
अंशाणु के सिरे पर बने विशिष्ट उपांग जिन्हें माइक्रोनेम्स,
रोपट्राइन्स और घने दाने (Micronemes, Rhoptries, and Dense granules)
कहते हैं, अंशाणु को लालरक्त कोशिकाओं से
जुड़ने और घुसने की प्रक्रिया में बहुत सहायक होते हैं। अंशाणु और लाल कोशिका का
प्रारंभिक सम्पर्क लाल कोशिका की सतह को एक लहर की भांति तेजी से विकृत करता है,
इससे दोनों का स्थिर जुड़ाव स्थल बनता है। इसके बाद अंशाणु एक्टिन-मायोसिन मोटर,
थ्रोम्बोस्पोन्डिन-रिलेटेड ऐनोनिमस प्रोटीन (TRAP) परिवार और
ऐल्डोलेज की मदद से लाल कोशिका की द्वि-भित्ति (Bilayer) में
घुसता है और पेरासाइटोफोरस वेक्युओल बनाता है, जिससे अंशाणु का लाल कोशिका के
कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) से कोई सम्पर्क नहीं रहता है, और
वह निश्चिंत होकर अपना जीवन चक्र आगे बढ़ाता है। इस अवस्था में परजीवी लालकोशिका
में एक अंगूठी जैसा दिखाई देता है, इसे मुद्रिकाणु कहते हैं।
विकासशील परजीवी का प्रमुख भोजन हीमोग्लोबिन होता है।
इसलिए इसे भोजन पुटिका (Food vacuole) में ले जाकर अपघटित किया जाता
है, जिससे अमाइनो एसिड्स निकलते है जो प्रोटीन निर्माण में काम आते हैं। हीम
पोलीमरेज एंजाइम बचे हुए टॉक्सिक हीम से हीमोज़ोइन (Malaria pigment) बनाते हैं। परजीवी पीएलडीएच और प्लाज़मोडियम ऐल्डोल्ज़ एंजाइम्स की मदद
से अवायवीय ग्लाइकोलाइसिस द्वारा ऊर्जा
उत्पादन करता है। जैसे जैसे परजीवी विकसित और विभाजित होता है, लालकोशिका की
पारगम्यता और संरचना में बदलाव आता है। यह बदलाव चयापचय अपशिष्ट को बाहर करने,
बाहर से उपयोगी पदार्थो का अवशोषण करने में और विद्युत-रासायनिक संतुलन बनाये रखने
मे सहायता करता है। साथ ही हीमोग्लोबिन का
अन्तर्ग्रहण (Ingestion), पाचन और विषहरण (Detoxification) अतिपारगम्य लालकोशिका के रक्त-अपघटन (Hemolysis) के
रोकता है। और परासरणीय स्थिरता (Osmotic Stability) बनाये
रहता है।
परजीवी का इरेथ्रोसाइटिक चक्र नौलेसी में हर 24 घंटे में,
फैलसिपैरम, वाइवेक्स तथा ओवेल में हर 48 घंटे में और मलेरिये में हर 72 घंटे में
दोहराया जाता है। हर चक्र में अंशाणु वेकुओल में विकसित तथा विभाजित होते हैं और
मुद्रिकाणु, ट्रोफोजोइट तथा शाइज़ोन्ट अवस्था से गुजरते हुए 8-32 (औसत 10) नये
अंशाणु बनते हैं। चक्र के अंत में लालकोशिका टूट जाती है और नन्हें अंशाणु बाहर
निकल कर नई फिर से लालकोशिका को शिकार बनाती है। इस तरह अंशाणु बड़ी तेजी से बढ़ते
हैं और इनकी संख्या 1013 तक पहुँच जाती
है।
कुछ अलैंगिक परजीवी शाइज़ोगोनी चक्र में न जाकर लैंगिक
अवस्था जननाणु (Gametocytes) में विभेदित हो जाते हैं। ये नर और मादा
जननाणु लालकोशिका से बाहर रक्त में रहते हैं और पोषक के शरीर में कोई रोग या
विकृति उत्पन्न नहीं करते हैं। ये मादा ऐनोफिलीज़ मच्छर के काटने पर उसके शरीर में
चले जाते हैं और परजीवी के लैंगिक विकास को आगे बढ़ाते हैं। इस तरह ये मलेरिया के
फैलने में मदद करते हैं। वाइवेक्स में जननाणु बहुत जल्दी बन जाते हैं, जबकि
फैलसिपैरम में अलैंगिक चक्र के भी काफी देर बाद बनते हैं।
3 comments:
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