जो टिकट खरीदता है...लाटरी
भी उसी की खुलती है।
शीर्षक थोड़ा अजीब
है...जो लाटरी खरीदता है...लाटरी भी उसी की खुलती है...लेकिन मसला ही कुछ ऐसा है
कि शायद लाटरी के माध्यम से ये बात आसानी से समझ में आ जाए। दरअसल मुद्दा है
आंदोलन का...बात 1974 में सत्ता पलट देने वाले भ्रष्टाचार, बदहाल शिक्षा, बेरजगारी
और महंगाई के खिलाफ जेपी के आंदोलन की नहीं...लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे के
आंदोलन की भी नहीं...और न ही विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस लाने को लेकर बाबा
रामदेव के आंदोलन की है...लेकिन हम जब आगे बढ़ेंगे तो निश्चित ही 74 के जेपी के
आंदोलन और हाल ही में जंतर मंतर पर हुए टीम अन्ना के आंदोलन के साथ ही बाबा रामदेव
के आंदोलन का जिक्र इसमें जरूर आएगा। दरअसल बात है कि क्या जब किसी चीज की अति हो
जाए तो उसके लिए आंदोलन की जरूरत है...और आंदोलन का कितना असर होता है...क्या वाकई
में आंदोलन अपने मुकाम पर आसानी से पहुंचता है। हिंदुस्तान के परिपेक्ष्य में अगर
बात करें तो भ्रष्टाचार अपने चरम पर है...ऐसा कोई दिन नहीं बीतता...जिस दिन टीवी
चैनल पर या अख़बार में किसी न किसी घोटाले की खबर न आती होया छपती हो...गाहे –
बगाहे इनमें लिप्त लोगों को सालों के बाद सजा भी होने की खबरें आती हैं...लेकिन
इसके बाद भी ये सिलसिला रूकने की बजाए बढ़ता जा रहा है। शोषण जनता का होता है...और
जनता के पैसे से भ्रष्ट कर्मचारी, अफसर और राजनेता ऐश करते हैं...इसके बाद भी जनता
चुप रहती है...चुपचाप सब कुछ सहती है...या यूं कहें कि ये उनकी दिनचर्या का हिस्सा
बन गया है कि उन्हें सरकारी दफ्तर में अपने छोटे से लेकर बड़े काम तक के लिए
रिश्वत देनी पड़ती है...ऐसा भी कह सकते हैं कि लोगों ने इसे अपने दिलो दिमाग में
बैठा लिया है...और उन्हें भी ये आसान तरीका लगता है कि ऐसे ही सही उनका काम हो
गया...और लोग बजाए भ्रष्टाचार के इस बात की चर्चा करते दिखाई दे जाते हैं कि मैंने
तो फलां काम सिर्फ 500 या 1000 रूपए की रिश्वत देकर करा लिया...जबकि सामने वाले उस
काम के लिए 3000 से 4000 रूपए मांग रहा था...यहां ये स्थिति होता है कि लोग सोचते
हैं कि उन्होंने अपने 2500 से 3000 रूपए बचा लिया। इसमें इनका भी कोई दोष नहीं है,
दरअसल स्थिति है ही ऐसी की अगर बिना रिश्वत दिए वे अपना काम करवाना चाहें तो उसमें
तमाम तरह की आपत्तियां लगा दी जाती हैं...और उस काम को होने में महीनों और कई बार
सालों लग जाते हैं...ऐसे में लोगों को लगता है कि कुछ पैसे देकर अपना काम करवा
लेना एक आसान विकल्प है। लेकिन उनका ये आसान विकल्प भ्रष्ट कर्मचारियों, अफसरों और
नेताओँ के लिए हथियार बन जाता है और वे इसे अपनी ताकत समझने लगे हैं। और जब ये
ताकत उनकी आदत में शुमार हो जाती है तो अति होना लाजिमी है। बात ऐसी ही किसी अति
के खिलाफ आंदोलन की जरूरत पर हो रही थी...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आंदोलन की
शुरूआत कौन करे...कौन भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने के लिए आंदोलन की बिगुल बजाए। असल
जिंदगी में लोग अपनी दो वक्त की रोटी जुगाड़ने में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि अगर
किसी दिन काम पर न जाएं तो शायद उस दिन घर में चूल्हा न जले...ये हकीकत है उन करोड़ों
परिवारों की जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं...और जिनके लिए रोज कुंआ
खोद कर पानी पीना उनकी मजबूरी है। लेकिन सवाल ये भी है कि अगर आंदोलन की बिगुल
नहीं बजेगा तो कैसे कुंभकर्णी सरकार की नींद टूटेगी। आंदोलन की जरूरत भी है...और
इसका बिगुल बजाने की भी...क्योंकि जैसा कि शीर्षक है कि अगर आपको लाटरी जीतनी है
तो लाटरी का टिकट तो खरीदना ही पड़ेगा...यानि बदलाव लाना है...भ्रष्टाचार पर अंकुश
लगाने के लिए सरकार को जगाना है तो आंदोलन तो करना ही होगा...जब आंदोलन होगा तो
निश्चित ही भ्रष्टाचार से त्रस्त लोग आंदोलन से जुड़ेंगे...भले ही वो समय न दे
पाएं...इतिहास गवाह है ऐसे आंदोलन को भारी जनसमर्थन मिलता आया है...1974 में भ्रष्टाचार,
बदहाल शिक्षा, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ जय प्रकाश नारायण ने आंदोलन का बिगुल
बजाया था तो आंदोलन के समर्थन में सड़कों पर हुजूम उमड़ पड़ता था...गली नुक्कड़ों
में पटना के प्रसिद्ध कवि सत्यनारायण अपनी कविताओँ से शब्द गर्जना करते थे तो
लोगों को जोश ए जुनून आसामन को छूने लगता था...सत्यनारायण कहते थे...
“जुल्म का चक्कर और
तबाही कितने दिन...हम पर तुम और सर्द स्याही कितने दिन...ये गोली, बंदूक, सिपाही
कितने दिन...सच कहने की मनाही कहो कितने दिन, कितने दिन”
जेपी के उस आंदोलन
ने सत्ता पलट दी थी...जेपी ने उस आंदोलन की नींव रखी थी...या यूं कहें कि लाटरी का
टिकट खरीदा था...अगर जेपी आंदोलन रूपी लाटरी का टिकट नहीं खरीदते तो शायद आज इस
लेख में 1974 के जेपी आंदोलन का जिक्र मैं नहीं कर रहा होता...ये अलग बात है कि
जेपी के सफल आंदोलन के नतीजे जरूर विफल रहे...लेकिन जेपी ने इसकी शुरूआत तो की ही।
ठीक इसी तरह अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए लोकपाल की वकालत करते हुए
आंदोलन किया...और बाबा रामदेव ने विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस लाने के लिए आंदोलन
का शंखनाद किया...यहां भी हमें देखने को मिला कि इन दोनों आंदोलनों को भारी
जनसमर्थन मिला...यानि लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं...इसलिए लोगों ने बढ़चढ़कर
आंदोलनों में भाग लिया...परिणाम भले ही कुछ भी हों...इसके पीछे की उनकी मंशा कुछ
भी रही हो...लेकिन अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने लाटरी का टिकट खरीदने की हिम्मत
तो जुटायी...अब लाटरी खुले या न खुले ये अलग बात है...लेकिन आप इस बात को नहीं
झुठला सकते कि जो लाटरी का टिकट खरीदता है...लाटरी उसी की निकलती है। इसलिए कुछ
करने की ईच्छा है...कुछ करने का मन है तो परिणाम की मत सोचिए...लाटरी का टिकट जरूर
खरीदें...वरना आपकी स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी जैसी कि जो किस्सा मैं नीचे सुनाने
जा रहा हूं...उसमे मंदिर के पुजारी की हुई थी।
“एक मंदिर का पुजारी जिसने अपना पूरा जीवन प्रभु की भक्ति में गुजार
दिया...एक दिन भगवान की मूर्ति के सामने खड़ा होकर बोला...हे प्रभु – मैंने जीवन
में आज तक आपसे कुछ नहीं मांगा...सदा आपकी तन मन से सेवा की...बस मुझ पर एक कृपा
कीजिए और मेरी एक दस लाख की लाटरी खुलवा दीजिए...ये कहकर पुजारी घर चले
गए...पुजारी रोज आते...रोज प्रभु से प्रार्थना करते लेकिन पुजारी की लाटरी नहीं
खुली...इस तरह जब 2 माह बीत गए...तो एक दिन पुजारी ने गुस्से में प्रभु से कहा –
प्रभु मैंने आपकी भक्ति में कोई कमी नहीं छोड़ी...दिन रात आपकी भक्ति की...फिर भी
आपने मेरी विनती नहीं सुनी और मेरी लाटरी नहीं खुली। पुजारी के सामने अचानक भगवान
प्रकट होते हैं...और पुजारी से कहते हैं...वत्स पहले जाकर लाटरी का टिकट तो खरीद
लो”
दीपक तिवारी
deepaktiwari555@gmail.com
1 comment:
majedaar, lekin ek achha satire....
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