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11.2.22

आरएसएस का हिन्दू राष्ट्र का सपना उत्तर प्रदेश में क्यों लड़खड़ाया

Krishan pal Singh-

यह तो सर्वविदित है कि आरएसएस का लक्ष्य देश में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना रहा है। अब जबकि आरएसएस की स्थापना के 100 वर्ष 2025 में पूरे होने जा रहे हैं तो अपने शताब्दी वर्ष में हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार रूप देने के लिए वह अधीरता की हद तक जल्दबाजी में है। अधिकांश लोग हिन्दू राष्ट्र से सिर्फ यह तात्पर्य रखते हैं कि इसका अर्थ मुसलमानों सहित सभी गैर हिन्दू अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहारिक रूप से बसर करने को अपनी नियति मान लेने के लिए मजबूर करना है जबकि हिन्दू राष्ट्र के वास्तविक सरोकार इससे कहीं आगे हैं। इसका अभीष्ट देश में वर्ण व्यवस्था के शासन को कायम करना है लेकिन आज बक्त जहां पहुंच चुका है उसमें इस दुराग्रह से कई जटिलतायें पैदा हो सकती हैं जिनके बारे में आरएसएस ख्याल नहीं कर सकी है। वैसे भी हिन्दू राष्ट्र के अपने अंतर्विरोध भयानक हैं जिसे अपनी कल्पना में उसने भुला दिया था। उत्तर प्रदेश में अपने हस्तक्षेप से आरएसएस ने हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को फलीभूत करने के लिए बड़ा कदम उठाया था पर अब यह उसके गले की फांस बन गया है जिसके कारण भाजपा को उत्तर प्रदेश में अपनी सत्ता की वापिसी के लिए लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं।


आखिर मोदी को क्यों किया स्वीकार-

यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर आरएसएस वर्ण व्यवस्था का हामी थी तो उसने शूद्र जाति के नरेन्द्र मोदी का वरण प्रधानमंत्री पद के लिए लालकृष्ण आडवानी, डा0 मुरली मनोहर जोशी, नितिन गडकरी आदि का पत्ता काटकर क्यों किया। दरअसल उत्तर प्रदेश में जब भक्त हनुमान के आधुनिक संस्करण कल्याण सिंह को मंडल आयोग की रिपोर्ट के प्रभाव के काट के लिए अस्थायी तौर पर बनाने की मंशा से भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए अवसर दिया था और इसके बाद मध्य में ही कोशिश की थी कि उन्हें बदलकर किसी सवर्ण को मुख्यमंत्री बनाया जा सके तो यह पासा उल्टा पड़ गया था।

उत्तर प्रदेश में बाद में न रामप्रकाश गुप्ता का कार्ड कामयाब हो पाया और न राजनाथ सिंह कामयाब हो पाये। पिछड़ों के मुंह मोड़ लेने से उत्तर प्रदेश में भाजपा का सत्यानाश होता चला गया। सपा-बसपा गठबंधन तुड़वाकर और मायावती को बार-बार समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाने से दलित और पिछड़ों को एक दूसरे के आमने-सामने कर देने की पैंतरेबाजी भी रंग नहीं ला सकी। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे असाधारण व्यक्तित्व वाले नेता के प्रधानमंत्री बनने के बाद में भी उत्तर प्रदेश में भाजपा में कल्याण सिंह के जमाने की चमक वापस नहीं आ सकी। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत का जादू भी सोनिया गांधी के सामने फेल हो गया और केन्द्र में लगातार जनमत मनमोहन सिंह जैसे निस्तेज प्रधानमंत्री को दो बार सत्ता में रहने का अवसर दे गया। इस सबक से आरएसएस इस नतीजे पर पहुंची कि हिन्दू राष्ट्र के लिए ठोस कदम उठाने के लिए अभी परिपक्व स्थिति तैयार नहीं हो पायी है। इसलिए अंतरिम व्यवस्था का रणनीतिक प्लान तैयार किया गया जिसमें नरेन्द्र मोदी का बतौर प्रधानमंत्री अभिषेक अनिवार्य माना गया। नतीजतन ओबीसी चेहरे के रूप में देश की इस सबसे बड़ी आबादी को उन्होंने भाजपा की झोली में डालकर भक्तिरस से अभिसिंचित कर दिया।

केशव मौर्य का तो कटना ही था पत्ता-

नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र में सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से आरक्षण को कदम दर कदम अर्थहीन बनाकर प्रतिगामी कुंलाचें भरी क्योंकि वे अपने पिछड़े वर्ग के होने की दुहाई देकर भी खड़ाऊ राज के प्रतिनिधि की भूमिका अदा कर रहे थे। उत्तर प्रदेश में 2017 का विधानसभा चुनाव जिन केशव प्रसाद मौर्य को चेहरा बनाकर लड़ा गया था वे अगर यहां मुख्यमंत्री बना दिये जाते तो यही भूमिका वे निभा रहे होते क्योंकि हिन्दू राष्ट्र में शूद्र के किसी परिस्थिति में राजा बनने के बाद भी वफादार सेवक का रोल अदा करना उसकी नियति है। पर अपने शताब्दी वर्ष में आरएसएस हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की सौगात संभालने के लिए आतुर है इसलिए उत्तर प्रदेश में उसे प्रतीक्षा करने का सब्र नहीं रहा। नतीजतन केशव मौर्य का पत्ता पार्टी के बहुमत में आने के बाद साफ कर दिया गया जो कि अनिवार्य था और सुनियोजित ढ़ंग से योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश की सत्ता जागीर की तरह सौंप दी गई। उनके मुख्यमंत्री बनने के पीछे किवदंतियां तो कई हैं कि उनके साथ क्षत्रिय विधायक लामबंद हो गये थे जो उनके मुख्यमंत्री न बनाये जाने पर विद्रोह कर देते वगैरह-वगैरह लेकिन यह सारी किवदंतियां फिजूल हैं उनका मुख्यमंत्री बनाया जाना संयोग नहीं सुचिंतित था।

हिन्दू राष्ट्र के फ्रेम में क्यों सबसे फिट माने गये योगी-

दरअसल हिन्दू राष्ट्र के फ्रेम में योगी आदित्यनाथ को सबसे फिट माना गया। वर्ण व्यवस्थावादी शासन का आदर्श है कि राजा यानी शासन का मुखिया क्षत्रिय हो और उसके मार्गदर्शन की डोर ब्राह्मणों के हाथ मंे रहे लेकिन इतिहास में बहुत पहले यह हो चुका है कि ब्राह्मण क्षत्रिय का राज तिलक करने के कर्तव्य से बंधे नहीं रहना चाहते बल्कि उन्हें प्रत्यक्ष रूप से सत्ता चाहिए जिसके नतीजे में क्षत्रिय ब्राह्मण संघर्ष की गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा है। भारतीय समाज के इस मर्म को आरएसएस समझ नहीं पायी जबकि योगी ने वर्ण व्यवस्था के लिए उत्तरदायी मुखिया के बतौर अपनी भूमिका बहुत ही निष्ठा से निभाई जिसके लिए पिछड़े और दलित समाज को राजा से मिलने वाली कृपा प्राप्त तक संतुष्ठ रहने की मानसिकता बनाने का उन्होंने भरपूर प्रयास किया।

इसी सोच के कारण अधिकारियों की पोस्टिंग में पिछड़ों और दलितों के प्रति हीन भावना का परिचय वे देते रहे। इससे मोदी ने भाजपा के लिए जो समेटा था उसमें बिखराव होने लगा जिसे मोदी ने समय रहते भांप लिया था लेकिन आरएसएस के आगे उन्हें बेवस हो जाना पड़ा। आरएसएस तो योगी के माध्यम से केन्द्र में वर्ण व्यवस्था के शासन को अपना शताब्दी वर्ष आने तक कायम कर देने का मंसूबा संजो चुकी थी जबकि उत्तर प्रदेश में तो सवर्ण शासन के अंतर्विरोध योगी के खिलाफ ब्राह्मणों के जगह-जगह बिगुल बजा देने से सामने आने लगे। उधर भक्ति की खुमारी में पिछड़ों और दलितों को इतना बेसुध करने का प्लान भी फेल हो गया कि वे सत्ता में भागीदारी की मांग और अपनी महत्वाकांक्षाओं को विराम दे सकें।

इससे भाजपा के खिलाफ उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव का अभियान शुरू होते-होते बड़ी लामबंदी हो गयी जिसके आगे मोदी का करिश्मा भी अब बेरौनक हो चुका है और बेकाबू स्थिति ने मोदी को हताश कर दिया है जो उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनके पूरी ऊर्जा से सक्रिय न हो पाने से जाहिर हो रहा है। तंद्रा भंग के माहौल ने पश्चिम में किसान आंदोलन, मंहगाई और बेरोजगारी की मांग आदि बिन्दुओं को भी प्रभावी बना दिया है। जगह-जगह चुनाव हिन्दुत्व की बजाय जातिगत समीकरणों और कैडिडेचर पर केन्द्रित हो   गया है। यहां तक कि जहां क्षत्रिय उम्मीदवार भाजपा ने नहीं बनाये हैं वहां क्षत्रिय तक दूसरी पार्टी के अपने सजातीय उम्मीदवार की ओर रूझान दिखा रहे हैं। जातिगत उद्वेलन ने मृत प्राय हो चुकी बसपा को कई निर्वाचन क्षेत्रों में मजबूती से खड़े होने का अवसर दे दिया है क्योंकि मायावती ने टिकट वितरण में जातिगत समीकरणों की जबरदस्त सूझबूझ दिखायी है। हालांकि इसकी झलक पंचायत चुनाव में ही देखने को मिल गई थी जब भाजपा के सदस्य पद के उम्मीदवारों को जगह-जगह जातिवाद के हावी हो जाने के कारण मुंह की खानी पड़ी थी। पर अपने मद में योगी ने इसे संज्ञान में नहीं लिया जो उनमें राजनीतिक सूझबूझ की कमी का द्योतक है। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अगर भाजपा सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रख पाती है तो यह चमत्कार ही होगा।

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