Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

6.3.08

अपने आलोचकों से अब घृणा करते हैं बालीवुड के सितारे

फिल्मफेयर पुरस्कार समारोह में शाहरुख खान और सैफ अली खान द्वारा आलोचकों का मखौल उड़ाए जाने के दौरान तमाम फिल्मकार और कलाकार हंस रहे थे, मजा ले रहे थे। जाहिर है कि पूरा उद्योग आलोचकों से नफरत करता है।
इससे यह भी सिद्ध होता है कि वे आलोचकों को पढ़ते हैं, भले ही हिकारत के साथ पढ़ते हों। आज के फिल्मकार-आलोचक के इस रिश्ते से याद आता है कि ख्वाजा अहमद अब्बास की समालोचना पढ़कर शांतारामजी ने उन्हें स्टूडियो में आमंत्रित कर समझाया था कि जिस दृश्य की उन्होंने आलोचना की है, वह किस तरह फिल्माया गया था।
कुछ वर्ष बाद अब्बास साहब की लिखी पटकथा ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ पर शांतारामजी ने फिल्म बनाई। महात्मा गांधी के कालखंड में इस तरह की सकारात्मक बातें होती थीं। उस दौर में फिल्मकारों, आलोचकों और दर्शकों ने इस नई विधा को गलतियां करते हुए साथ-साथ ही सीखा।
अजीत बी मर्चेट और बाबूराम पटेल को उद्योग सम्मान की दृष्टि से देखता था। उस दौर में बहुत कम प्रकाशनों में सिनेमा को थोड़ी सी जगह दी जाती थी। राहुल बारपुते तक सिनेमा को सीमित स्थान ही मिला। सिनेमा ने रंगमंच की लोकप्रियता घटाई थी- शायद इसी का मलाल था बारपुतेजी को। आज प्रकाशनों और सैटेलाइट चैनलों की संख्या बढ़ गई है और फिल्म को बहुत स्थान भी दिया जाने लगा है।
यह कमोबेश फिल्ममय देश हो गया है। अब फिल्म पत्रकार होने के लिए किसी प्रमाण पत्र/योग्यता की आवश्यकता नहीं है। दरअसल फिल्मकार और समालोचक दोनों ही इस बात से अनभिज्ञ हैं कि समालोचना की वजह से न एक टिकिट कम बिकता है, न एक टिकिट ज्यादा बिकता है क्योंकि भारतीय दर्शक की मनपसंद मनोरंजन चुनने की अपनी शैली है और इस मामले में वह पूरी तरह से स्वतंत्र है।
फिल्मकारों को एक शिकायत यह है कि पत्रकार उनकी नकल का स्रोत जगजाहिर करते हैं। अधिकांश भारतीय फिल्में उड़ाई हुई होती हैं। दूसरी शिकायत यह है कि फिल्म की कमियां गिनाते समय आलोचक अतिरेक करते हैं। उनको यह भी शिकवा है कि प्रदर्शन के दूसरे दिन ही कड़ी आलोचना से फिल्म के खिलाफ लहर बनती है।
फिल्मकारों को यह भी लगता है कि आलोचक अपने चहेते फिल्मकारों के प्रति नरम रुख रखते हैं और उनके पूर्वाग्रह स्पष्ट नजर आते हैं। उन्हें यह भी गिला है कि फिल्म आस्वाद में आलोचक प्रशिक्षित नहीं हैं। इन तमाम शिकायतों के बावजूद गालियां देने का उन्हें अधिकार नहीं है। यह अभद्रता अक्षम्य है।
दरअसल सितारे और सितारा फिल्मकार आत्मकेंद्रित अहंकारी लोग हैं और हिकारत को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। गैर-फिल्मी व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार की भावना रखते हैं। जिस आम आदमी की खून-पसीने की कमाई से उनकी संगमरमरी अटारियां बनी हैं, उस आम आदमी के बारे में वे कुछ नहीं जानते और उसके लिए उनके मन में कोई करुणा नहीं है।

3 comments:

Nitin Bagla said...

अगर कहीं यह भी लिख दिया होता कि यह लेख जयप्रकाश चौकसे जी का लिखा हुआ तो बहुत अच्छा होता....

http://www.bhaskar.com/2008/03/04/0803040451_filmmakers.html

Unknown said...

kmobesh yhik hi frmaya aapne sir g

Sanjeet Tripathi said...

नितिन बागला जी ने सही कहा, मैं भी चौंक गया था क्योंकि कुछ दिन पहले ही दैनिक भास्कर में पढ़ा था इसे और यहां ये साहब इसे अपने नाम से डाले हुए हैं।
क्या यार साहू जी, काहे ऐसे करते हो!!!