31.7.08
जय भोले और ये दे मारा
REMEMBERING RAFI
(On his 28th death anniversary i.e. 31st July)
BY SHRI RAM SHAW
Mohammed Rafi was the greatest ever playback singer of
India. He was uniquely and singularly responsible for the
very existence of the finest artistic grandeur, splendor and
original creativity that embodied the Golden Era of music
and melodies of Hindi Cinema. He had such fascinatingly
wide musical range, supreme artistic caliber, versatility
and mastery over music and melodies. Such was his
voice clarity, pleasantness of pitch and exquisite tone that
he was unsurpassable and unparalleled.He has the distinction of being the first playback singer of
all times to be featured in the pioneering list of the
Guinness Book of World Records, for having sung the
highest number of songs, which is a total of 26000 songs,
in Hindi and other languages.Mohammed Rafi created a unique musical artistic identity
and niche for each music composer whose compositions,
he sang. His voice conveyed every intricate human
emotion with such subtle care, artistic dexterity, exquisite
pleasantness and unique artistic creativity that it
influenced and over-powered the hearts and souls of
millions of music lovers all over the world. He had
infused life into the poetry written by legendry poets, song
writers with the power of his supreme capabilities as a
musical genius and marvelous singer.In 1948, on the fateful day when the father of the Indian
nation, Mahatma Gandhi was no more, famous poet:
Rajendra Krishan wrote: Bapu ki Amar kahani. It was
sung by Mohammed Rafi on the very same day on All
India Radio. It was so mesmerizing to hear the poetic-
biography of Mahatma Gandhi, in the melodious voice of
Mohammed Rafi that the millions of the listeners of All
India Radio were all moved to tears with sorrow and
poignancy. It was a great achievement because before
that no singer had ever attempted to sing songs which
had more than 2 stanzas but to sing a whole poetic-
biography seemed impossible at that time however for
Mohammed Rafi it was natural and many a time he has
sung the most difficult and long compositions with
absolute panache and marvelous elegance.Mohammed Rafi was like an angel. He was very soft
spoken, seldom angry, very humble. He was very pious
person. Rafi sahab's wife's name was Bilquis and they
had three sons and four daughters. He believed in the
concept of simple living and high thinking. During his
lifetime Mohammed Rafi had donated immeasurable
money in charity, noble causes and for our country. He
was a true patriot of India and he believed in our
country's secular values and our rich culture, tradition and
heritage. The boundaries of religion, caste, creed,
richness, poverty, economic class, language and politics
were beyond the legendry stature of Mohammed Rafi and
he was above all these boundaries. Numerous instances
are there when he bought expensive imported Dialysis
equipment to our country to assist charity hospitals that
serve ailing kidney patients of our nation.Rafi sahab was an ideal man with loft ideals and
esteemed values for which he was ready to face
anything. This was the same reason that he declared that
he will not take royalty for any of the songs that he had
sung. A view-point that resulted in a grave clash of
principles with another legend Lata Mangeshkar, who had
a major debate over the issue of royalties in 1960. Rafi
believed that once a recording was over and a singer has
been paid, he or she should not ask for more. Lata, on
the other hand said that singers should be paid royalties
for their works, over and above the amount given for the
singing. For, three years Mohammed Rafi and Lata
Mangeshker did not sing duets or speak with each other.
It was the most dignified silence over clash of principles.
They refused to sing songs together. At the insistence of
Nargis they finally made up at a stage concert and sang
Dil Pukare from the film Jewel thief, composed by S D
Burman. Many new music directors would come to Rafi sahab and request him that if he sang for their
compositions then they would get chance in films.
Mohammed Rafi sahab would not only sang for them but
also when the producer used to pay renumeration for the
songs, Rafi sahib would gift it to these new music
directors. That was the encouragement that Rafi sahab
had for new talent. He would recommend names of his
contemporary singers without an iota of jealousy. Thus,
making Rafi sahab the most loved respected and
cherished human being of all time. Till the day he lived,
he ruled like a king and after passing away from this
mortal world also Mohammed Rafi's voice and his
melodies continues to reign the music world.
End of matter
Yours
Shri राम Shaw
9818632282
हास्य Gazal
आसान होगी manzile पीता पिलाता चल।
डर गर ये लग रहा है कि कोई न लूटले
पउए को बाँध फैंट मैं हिलता हिलाता चल।
दारु अगर है कम तो परवा नही कोई
सोडा भी गर नही हैto paanee milaataa chal.
Ghaalib banegaa ek din ye baat jaanle
Fakaakashee kaa fool khilaataa hua too chal।
काली अंधेरी रात है,सीवर खुले हुए
बकर के पोल बिजली का तू झिलमिलाता चल।
राहें बहुत कठिन हैं मकबूल जीस्त की
बनकर के सूरदास तू टिकता टिकाता चल।
Maqbool
30.7.08
करूणाकर ने अच्छे नंबरों से पास किया अपना तीसरा साल
तुष्टिकरण चालू रहेगा
देश में हुए बम धमाकों ने तमाम सारे बुद्धिभोगियों के लिए सामान दे दिया. इधर मारे गए लोगों का दर्द नहीं है, दर्द है कि उनके विचारों को तवज्जो नहीं दी जा रही है. बमों के धमाकों ने किसी को कुछ दिया तो नहीं पर इन लोगों को जरूर बहस का मुद्दा दे दिया है. बम धमाकों की आड़ में हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर चर्चा आम हो गई है. कौन ज्यादा इस देश का है कौन इस देश का नहीं है, भाजपा ने क्या किया था, कांग्रेस ने क्या किया था.......अब दोनों क्या कर रहीं हैं, ये बात खोजी जा रही है.
बमों के साथ एक बार फ़िर गुजरात दंगों-बाबरी मस्जिद ने अपना सर उठाया है. सर उठाने के पीछे यही बुद्धिभोगी काम कर रहे हैं. बात की जारही है कि यदि बाबरी मस्जिद न गिराई जाती तो ये बम धमाके न होते. गुजरात दंगों में मुसलमानों को मारा गया इस कारण ये धमाके हुए हैं. क्या ये सही है? इसका उत्तर वे लोग हाँ देंगे जो किसी न किसी रूप में मुस्लिम तुष्टिकरण का रास्ता अपनाए हैं. यदि बाबरी मस्जिद ही एक मात्र कारण है तो क्या उसके पहले बम नहीं फ़ुट रहे थे? इसी तरह सभी साहित्यकारों को, फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े जावेद अख्तर टाईप के लोगों को गुजरात दंगों में मरने वालों के प्रति संवेदना है पर वेही किसी भी रूप में गोधरा में रेल काण्ड की चर्चा भी नहीं करते हैं. आख़िर क्यों? क्या गोधरा में मरने वाले इंसान नहीं थे? क्या इस देश में मुस्लिम के दंगे में मरने पर ही लोगों की संवेदना जगती है? क्या हर तरह की आतंकी घटना के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदू ही जिम्मेवार होता है? यही तमाम सारे सवाल हैं जो कुछ फिरकापरस्त लोगों को कहने का मौका देते हैं कि "सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं है पर सारे आंतकवादी मुस्लिम हैं."
इस तरह के एक-दो नहीं कई उदहारण हैं जो समाज को अलग-अलग खेमे में बाँट रहे है. संसद हमले के आरोपी अफज़ल गुरु की फांसी की सज़ा पर अज तक कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है, जबकि इसके ठीक उलट धनञ्जय चटर्जी को फांसी पर इतनी आनन्-फानन लटकाया गया था जैसे वो देश का बहुत बड़ा दुश्मन हो. क्या देश की संसद पर हमला करने वाला देश का दोस्त है जो संसद पर हमला कर उस ईमारत की मजबूती जांच रहा था? हमारा कहना है संसद पर हमला करने वाला कोई भी हो उसको तो उसी समय गोली मार देनी चाहिए थी जब वो पकडा गया था. यहाँ हिंदू या मुस्लिम वाली बात ही नहीं है. पर ये हमारे देश की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति है कि यहाँ आतंकवादी अपहरण करते हैं और छूट जाते हैं क्योंकि वे मुस्लिम हैं, एक आतंकवादी अबू सलेम चुनाव लड़ने तक का मन बना लेता है क्योंकि वो भी मुस्लिम है और तो और हास्यास्पद बात तब होती है जब देश की कुछ राजनैतिक पार्टियाँ परमाणु डील पर सरकार को इसलिए समर्थन देने को तैयार होती हैं क्योंकि उनको समझाया जाता है कि ये डील मुसलमानों के हितों के ख़िलाफ़ नहीं है. वह रे तुष्टिकरण की नीति, अब विदेश नीति भी इनको ध्यान में रख कर बनाई जायेगी।
समय आ गया है जब मुसलमानों को ख़ुद अपना अच्छा बुरा सोचना होगा. राजनीती उनको ऊपर उठाने के स्थान पर रसातल में ले जा रही है. बमों के धमाकों में हिंदू भी मरते हैं और मुसलमान भी, दंगे मुस्लिम भी करता है और हिंदू भी, धर्म दोनों के लिए महत्वपूर्ण है तब एक क्यों वोट की राजनीती का शिकार होकर ख़ुद को समाज में संदेह के घेरे में खड़ा कर रहा है? जहाँ तक बात तमाम बड़े-बड़े ठेकेदारों की है जो मुस्लिम समाज के स्वयम-भू ठेकेदार बने घूम रहे हैं वे ख़ुद बताये कि इन बम धमाकों में उनकी बोलती क्यों बंद हो गई है? ये लोग भी इस समाज को संदेहित बनाने का काम करते हैं. इनसे भी होशियार रहने की जरूरत है. क्या देश के मुस्लमान इस बात को समझेंगे?
29.7.08
फूल और कांटे
अस्तित्व ----------
बहुत आगे हैं बढ़ रही
कोई छू रही आसमान
तो कोई धरती की गहराई है नाप रही
कोई जीवन दान दे रही
तो कोई दूसरे का आशियाँ है बना रही
कोई दूसरो के हक़ के लिए लड़ रही
तो कोई दहेज़ है एक अभिशाप
का पाठ सबको पढ़ा रही
कोई अपना रही बेसहाराओ को
और पराये का भेद मिटा रही ,
तो कोई आज देश की प्रधानमंत्री , रास्ट्रपति बन
बागडोर संभाल रही ,
पर कौन जाने क्या हो सच
उन पर भी तो हो सकती है कोई मुशीबत
क्या गारंटी है की जो छू रही आसमान
उसे किसीने धरती पर न पटका हो
और जो गहराई है नाप रही
उसे कोई जख्म न गहरे दे जाता हो
जो जीवन दान दे रही ,घाव भर रही
कौन जाने उसे ही जीने के लाले हों ,
और शरीर पर जाने कितने ही निशान
घाव के गहरे हों ,
जो बना रही दूसरो का आशियाँ
हो सकता है वो ख़ुद ही
सर छुपाने की जगह हो ढूंड रही ,
लड़ रही है जो दूसरो के हक़ की लड़ाई
कौन जाने उससे ही सब लड़ते हों
हक़ की लड़ाई ,
दहेज है एक अभिशाप
पाठ जो सबको पढा रही
हो सकता है उसके ही ब्याह मे
हो दहेज़ की भारी मांग हो रही ,
जो अपना रही बेसहाराओ को
क्या गारंटी है की उसका भी कोई सहारा हो
या हो सकता है की सबने उसको ही
पराया कर डाला हो ,
जो कल थी देश की प्रधानमंत्री ,
आज है रास्ट्रपति ,
क्या हो नहीं सकता की
उसकी दुनियाँ भी हो विरान सी
दुखती हो उनकी भी आँखे
पर दिखा नहीं वो पाती हों
क्युकी आज हैं वो देश के
सर्वश्रेष्ठ पद पर ।
राजा बुश
पश्चाताप-हीन व्यवस्तिथ अपराधी
राजा बुश कि
कैसे चल सकता है मुकदमा उन पर
क्या राज प्रसाद से पाई गई
एक मुर्गी के पर चबी हड्डियाँ और खून के छींटें से
मुकदमा बनता है ?
फ़िर भी राजा बुश पर चला
--मुर्गी को क्या आपने काटा था राजा बुश
नहीं मरोड़ा था बेरहमी से
--क्या आपने पर नोचने के लिए गरम पानी किया था ?
नहीं मैंने चुनचुन कर एक एक पर खींचा था
जब वह जिंदा थी
--क्या किया फ़िर
शोरबा निकाला उसका
--फ़िर
पिया
फ़िर..............फ़िर...................
उसकी हड्डियों को चबाया
--फ़िर क्या आपने पुट्ठों पर हाथ झाड़ कर चल दिए
नहीं कतई नहीं मैंने पुट्ठों पर हाथ नहीं झाडे
मैं एक कोने मैं बैठ गया
मेरे जेहन मैं मुर्गी थी
मैं खूब देर तक रोया ; उसकी मौत पर
फ़िर मैंने एक कविता लिखी
आसुओं मैं डूबी ,
--आपने कविता लिखी राजा बुश
हाँ (स्वर भर्राया था )
आप बरी किए गए राजा बुश
नगर निगमों की माया निराली...
लायनेस क्लब "सिद्धि" ने करुनाकर के लिए इकट्ठा किया दस हज़ार
लायनेस क्लब "सिद्धि" ने करुनाकर के लिए इकट्ठा किया दस हज़ार रूपया। इस क्लब ने भड़ास के मध्यम से इस मुहीम के बारे में जानकारी अमर उजाला में छपी ख़बर को पढने के बाद ली। क्लब की जिला प्रेजिडेंट आभा संघी ने अपनी कमेटी से इस बारे में बिना देर किए बात की और करुनाकर की मदद के लिए लोगों का आव्हान किया। उनकी मुहीम में क्लब के सभी सदस्यों ने पूरा सहयोग दिया और कुल मिलाकर इस समिति ने करुनाकर के लिए १० हज़ार रूपया जामा किया। इसमे सैकडों लोगों ने यथासंभव अपनी मदद दी। उस मदद में १० रूपये से लेकर ५०० रूपये देने वाले लोग भी शामिल थे. आभा जी के पूरी मदद क्लब की सदस्य नलिनी शर्मा ने की. २६ जुलाई को एक स्पेशल कैंप लगाकर करुनाकर के लिए लोगों ने एक बॉक्स में रूपये जमा किए। सभी ने मिलकर करुनाकर के जल्द स्वस्थ हो जाने की kamna भी की । इस muhim को sakar करने के लिए अमर उजाला नॉएडा की रिपोर्टर निशि भाट ने अपना पूरा योगदान दिया। निशि की ज़िंदगी में एक ऐसा वाकया घटा है जिससे वो बहुत दुखी हैं. कुछ माह पूर्व निशि की माँ का निधन कैंसर के चलते हो गया था. अब वो नही चाहती की किसी की माँ भाई बहन इस बीमारी का शिकार हो. हम निशि की इस भावना का तहे दिल से क़द्र करते हैं. हम चाहते हैं की उनकी तरह हिम्मत करके हर कोई किसी की मदद को इसी तरह आगे आता रहे।
अमित द्विवेदी
28.7.08
मरने-डरने के बीच जिंदगी
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१- आतंकवादी हमारे हौसलों को कमजोर नहीं कर सकते.
२- हम पूरी सख्ती से आतंकवाद को कुचल देंगे.
३- जनता संयम से काम ले, स्थिति नियंत्रण में है.
४- देश तोड़ने की साजिश कभी सफल नहीं होगी.
५- आतंक को कुचलने के प्रयासों में कोई कमी नहीं आयेगी.
६- सरकार हर सम्भव अपराधियों को पकड़ने की कोशिश कर रही है.
७- आतंकवाद से डरे बिना लोगों का जीवन फ़िर अपने रास्ते पर.
८- ग़म को भुला कर फ़िर चल पड़ना भारतवासियों की ताकत है.
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ऐसे बयान इतने नहीं कई और भी हैं जो बताते हैं कि हम किस हिम्मत से आतंकवाद का सामना कर रहे हैं. मर रहे हैं, डर रहे हैं पर लोगों को दिखा रहे हैं कि हम न मर रहे हैं न डर रहे हैं.
इस मरने डरने के बीच कब तक चलेगी ये जिंदगी?
पूरे कुएं में भंग
रंजीत
जब कुएं में ही भंग हो, तो कौन होश में और कौन मदहोशी में , यह बात ही बेमानी हो जाती है ? ऐसे में अगर भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों का सामान्यीकरण न किया जाय तो क्या किया जाय ? हम बचपन से पढ़ते आये हैं कि अंगुली उठाने से पहले व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित कर लो और अपने दामन की जांच भी। लेकिन लगता है अब इसकी अनिवार्यता नहीं रह गयी। जिसकी पूंछ उठाओं मादा ही निकलेगी। अंगुली जिस पर टिकेगी वही भ्रष्ट निकलेंगे । अगर नहीं, तो समझो इन्हें मौका नहीं मिला।
गत दिनों संसद में नोट और वोट के प्रदर्शन की घटनाओं के बाद पूरे देश के मीडिया ने गिरती राजनीति पर जमकर आंसू बहायी। ऐसा लगा जैसे राजनीतिक अधोपतन से सबसे ज्यादा व्यथित पत्रकार समुदाय ही है। लेकिन उसी घटनाक्रम में जो पत्रकार-मीडिया समूह भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा होते नजर आये, उन पर शायद किन्हीं की नजर नहीं पड़ी। या यूं कहिए कि नजर पड़कर भी उन्हें कुछ नहीं दिखा। या फिर ऐसा कह लीजिए कि ये यह मानकर चलने लगे हैं कि जो अन्य करें वह पाप और जो हम करें वह पुण्य। इंसान का बचा जूठा और भगवान का प्रसाद। नोट प्रदर्शन प्रकरण में उस चैनल वाले ने क्या किया, जिसने पूरे मामले का स्टिंग ऑपरेशन किया था ? वह भी पूर्व नियोजित और पूरी तैयारी के साथ। आखिर उसने अगर इस लेनदेन को कैमरे में कैद किया तो प्रसारण क्यों नहीं किया। सामाजिक अधोपतन पर शब्दों और अक्षरों की आंसू बहाने वाले विद्वान पत्रकारों की अक्ल में यह बात नहीं अट रही क्या ? चैनल वालों की ओर से कह दिया गया कि यह विशेषाधिकार का मामला बनता है, इसलिए वे इसका प्रसारण नहीं करेंगे। लेकिन मैं मुफ्त में उन्हें कुछ सलाह देना चाहता हूं। उन्हें मालूम होना चाहिए भारत की 32 करोड़ जनता ग्रेजुएट हैं और उनको विशेषाधिकार की बात अच्छी तरह समझ में आती है। आखिर विशेषाधिकार की ही बात थी तो उस समय यह लागू क्यों नहीं हुई जब प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेते सांसदों की तस्वीर सार्वजनिक की गयी थी। जवाब बहुत सरल है- तब बात टीआरपी की थी। लेकिन इस बार बात कुछ बना लेने की हो गयी तो सारी नैतिकता, ईमानदारी और सरोकार आदि- इत्यादि चले गये घास काटने।
झारखंड के एक बड़बोले पत्रकार आजीवन अपनी ईमानदारी का पींग अपने कनिष्ठों को सुनाते रहते थे और कहते थे कि उनके पास तो रहने के लिए एक अदद घर भी नहीं है। वे तो ईमानदारी की झुग्गी में रहते हैं। लेकिन इनकम टैक्स वालों के यहां उन्होंने जो रिटर्न फाइल किया उसमें दो जुड़वा फ्लैट का जिक्र भी है, जिसकी कीमत 35 लाख रुपये है।
ऐसे में यह बात अब बिल्कुल शोभा नहीं देती कि कोई जनता के नाम पर ईमानदारी का भाषण छोड़े। चाहे वह पत्रकार हो या नेता। सब बराबर हो गये हैं। जो नहीं हुए हैं वे लाइन में खड़े हैं। अगर यह सच नहीं है तो ईमानदार पत्रकार इसके विरोध में आगे क्यों नहीं आते। पिछले एक दशक में क्या पत्रकारों के किसी समूह ने मीडिया में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की है ? मुझे तो याद नहीं आ रहा। दरअसल हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे लोग हैं और अब इसके इतने आदी हो गये हैं कि हमें सड़ांध में भी खूशबू की महक मिलने लगी है। इसलिए जो जहां है वहीं थैला भर रहा है। कोई भी गंभीरतापूर्वक कभी भी यह नहीं सोचता की इसकी कीमत हम ही चुका रहे हैं। कभी आतंकियों के हाथों, तो कभी अपराधियों के हाथों तो कभी स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवस्था के भ्रष्टों के हाथों। हम सभी किस्तों में मरने के अभ्यस्त हो गये हैं। शायद इसलिए अज्ञेय जी ने कभी लिखा था
एक दिन मैं कहीं किसी सड़क पर गिरा पाया जाऊंगा
तब लोग मेरे शव के पास आयेंगे
मेरी नसों और धड़कनों को जांचे बगैर मुझे मृत घोषित कर देंगे
और कहेंगे अच्छा-भला आदमी था- बेचारा
उस दिन मैं हंसने लायक नहीं रहूंगा
इसलिए उस बात को लेकर आज मुझे हंसना चाहिए
अस्तित्व ----------
बहुत आगे हैं बढ़ रही
कोई छू रही आसमान
तो कोई धरती की गहराई है नाप रही
कोई जीवन दान दे रही
तो कोई दूसरे का आशियाँ है बना रही
कोई दूसरो के हक़ के लिए लड़ रही
तो कोई दहेज़ है एक अभिशाप
का पाठ सबको पढ़ा रही
कोई अपना रही बेसहाराओ को
और पराये का भेद मिटा रही ,
तो कोई आज देश की प्रधानमंत्री , रास्ट्रपति बन
बागडोर संभाल रही ,
पर कौन जाने क्या हो सच
उन पर भी तो हो सकती है कोई मुशीबत
क्या गारंटी है की जो छू रही आसमान
उसे किसीने धरती पर न पटका हो
और जो गहराई है नाप रही
उसे कोई जख्म न गहरे दे जाता हो
जो जीवन दान दे रही ,घाव भर रही
कौन जाने उसे ही जीने के लाले हों ,
और शरीर पर जाने कितने ही निशान
घाव के गहरे हों ,
जो बना रही दूसरो का आशियाँ
हो सकता है वो ख़ुद ही
सर छुपाने की जगह हो ढूंड रही ,
लड़ रही है जो दूसरो के हक़ की लड़ाई
कौन जाने उससे ही सब लड़ते हों
हक़ की लड़ाई ,
दहेज है एक अभिशाप
पाठ जो सबको पढा रही
हो सकता है उसके ही ब्याह मे
हो दहेज़ की भारी मांग हो रही ,
जो अपना रही बेसहाराओ को
क्या गारंटी है की उसका भी कोई सहारा हो
या हो सकता है की सबने उसको ही
पराया कर डाला हो ,
जो कल थी देश की प्रधानमंत्री ,
आज है रास्ट्रपति ,
क्या हो नहीं सकता की
उसकी दुनियाँ भी हो विरान सी
दुखती हो उनकी भी आँखे
पर दिखा नहीं वो पाती हों
क्युकी आज हैं वो देश के
सर्वश्रेष्ठ पद पर ।
अब जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई है, खबर समझने के लिए इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा- पुण्य प्रसून वाजपेयी
''एनडीए शासनकाल ने ढेरों ऐसे जर्नलिस्ट पैदा किए जिनका खबर या समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। इन दिनों में फेक जर्नलिस्टों की पूरी फौज तैयार हो गई। पैसे का भी आसपेक्ट है। चैनलों में एक लाख रुपये महीने सेलरी पाने वालों की फौज है। ये लोग शीशे से देखते हैं दुनिया को। इन्हें भीड़ से डर लगता है। आम जनता के बीच जाना नहीं चाहते। अब उनको आप बोलोगे कि काम करो तो वो कैसे काम करेंगे। मुझे याद है एक जमाने में 10 हजार रुपये गोल्डेन फीगर थी। हर महीने 10 हजार रुपये पाना बड़ी बात हुआ करती थी। ज्यादा नहीं, यह स्थिति सन 2000 तक थी। 10 हजार से छलांग लगाकर एक लाख तक पहुंच गई। इससे जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई। उनको अगर वाकई असली खबरों को समझना है तो खुद को डी-क्लास करना होगा। वरना ये एक लाख महीने बचाने के लिए सब कुछ करेंगे पर पत्रकारिता नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनका वो क्लास ही नहीं रह गया है।''
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कई खुलासे किए। कई विचारोत्तेजक बातें कहीं। सहारा प्रकरण से लेकर आधुनिक पत्रकारिता के हाल पर अपने स्पष्ट विचार रखे।
संपूर्ण साक्षात्कार पढ़ने के लिए क्लिक करें भड़ास4मीडिया डाट काम
27.7.08
धमाके, मौतें, आंसू, आश्वासन.....कब तक?
अभी और कुछ नहीं, बस इतना ही कि कब तक ये आंसू बहेंगे? कब तक??????????
मजदूर चुप रहो
मन ख़राब है !
एक न्यूज़ चैनल में काम करता हूँ इस नाते मौका मिलता है खबरों को ज़्यादा नज़दीक से देखने का, ज्यादा जानकारी पाने का और उनको ज्यादा समझने का......... साथ ही साथ उनसे ज्यादा उदासीन होना और अधिक संवेदनाहीन होने का ! परसों बेंगुलुरु में धमाके हुए और कल हुए अहमदाबाद में और बेशक सारे मीडिया में यह सब छाया रहा। दोनों दिन ऑफिस में ही था और अभी फिलहाल ऐसे विभाग में हूँ जहाँ बहुत अधिक काम नहीं रहता सो न्यूज़ डेस्क पर बैठा रहा। फिलहाल पहले चर्चा धमाकों की क्यूकि पत्रकार हूँ उसके बाद बात जिरह अपने मन की क्यूंकि साहित्यकार मन है। सुरक्षा एजेंसियों को लगातार मिली सूचनाओं के बावजूद निश्चित रूप से ये गृह मंत्रालय और सुरक्षा तंत्र की ज़बर्स्दस्त विफलता ही कही जाएगी कि देश के दो बड़े शहरो में लगातार दो दिन के लिए बम धमाके होते रहे और एक दो नही बेंगुलुरु में २५ जुलाई को १० विस्फोट हुए और कल अहमदाबाद में एक के बाद एक १६ बम पते जिसमे कुल मिलाकर 46 लोग मारे गए और १०० से अधिक घायल हुए। जिम्मेदार अधिकारी तो इस मामले पर अपना पल्ला झाड़ते नज़र आए ही नेताओं ने इस पर इतने गैरजिम्मेदाराना बयान दिए कि क्या कहें। खैर उनके बयान तो आप पढ़ ही लेंगे पर सोचने की बात है कि संसद में लोकतंत्र की नौटंकी बना देने वाले इस समय चुप हैं या एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में जुटे हैं मतलब कुल जमा फिर नौटंकी और राजनीतिक दांव पेंच ! ये दुखद है पर आश्चर्यजनक नहीं ..... क्यूंकि किसी नेता का कोई परिजन इस घटना का शिकार नही हुआ और आजकल आदमी राजनीति में आता तभी है जब सारी संवेदना मार देता है। किसी शायर की चंद लाइन याद आ रही हैं ,
कभी मन्दिर, कभी मस्जिद कभी मैखाने जाते हैं
सियासी लोग तो बस आग को भड़काने जाते हैं
सियासी लोग तो खैर सियासी हैं पर अब बात मन की .............. तो फिलहाल एक समाचार चैनल में काम कर रहा हूँ और पिछले दो दिनों में काफ़ी कुछ देखना पडा। ख़बर आई कि धमाके हो गए हैं ....... पहले २ फिर ४, फिर ६ और अब १६ ........................मन डरा , उत्तेजित हुआ भागादौडी मच गई और लगी ख़बर पे ख़बर...........लाइव पर लाइव .......... शॉट्स...फीड्स........बाइट्स और खेल ख़बर का जितने धमाके बढ़ते गए उतनी ही टी आर पी ! आश्चर्य या कहूँ दुखद आश्चर्य ये हुआ कि अधिकतर लोग बहुत या बिल्कुल दुखी नही थे। कुछ तो शायद काफ़ी उत्साहित थे ....... ख़बर को लेकर ! असाइंमेंट डेस्क आतंकवादियों को गालियाँ बक रहा था ...... इसलिए कि आज भी जल्दी घर नहीं जाने दिया .............. रिपोर्टर इसलिए कि वीकएंड ख़राब कर दिया और डेस्क इसलिए कि अब सन्डे को भी आना पड़ेगा ........ सीनिअर लोग चहक रहे थे कि अबकी टी आर पी आने दो ......... कुल मिला के लोग दुखी और नाराज़ थे पर इसलिए कि उनको काम ज्यादा करना पड़ेगा। शायद गिने चुने लोग होंगे जो इस ख़बर को ज़िम्मेदारी समझ कर चला रहे होंगे !
खैर मेरा घर जाने का वक़्त हो चला था ........ डेस्क के बड़े लोग सनसनीखेज एंकर लिंक और धाँसू पैकज लिखने में जुट चुके थे .......... उन सबका मूड ऑफ़ हो रहा था पर मेरा मन भारी हो रहा था ................... मालूम था कि जब घर पहुंचूंगा तो टीवी पर सारेगामा या वौइस् ऑफ़ इंडिया चलता मिलेगा। शायद रियलिटी शो के आंसू रियलिटी से ज़्यादा रियल हैं और तभी घर वालों की आंखों को नम कर पाते हैं .......................धमाको में तो रोज़ ही लोग मरते हैं !
मयंक सक्सेना
तीन सूचनाएं...जोशी जी का ब्लाग, डांसिंग डिजिगनेशन और पितृ शोक
kishore kamal (kishorekamaldelhi@gmail.com)
to yashwantdelhi@gmail.com
date 25 Jul 2008 13:50
subject जोशी जी का ब्लॉग
mailed-by gmail.com
मेरठ के पत्रकार जगत में गुरुजी के नाम से मशहूर पंडित हरिशंकर जोशी ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भागदोड़ से कुछ समय निकालकर अपना ब्लॉग बनाया है, नाम है इर्दगिर्द http://www.irdgird.blogspot.com/ जोशी जी ने उस समय वीडियो कैमरा संभाला था जब इस देश में बमुश्किल एक दो वीडियो कैमरे थे। वो अपने मामाजी के साथ एबीसी के लिये काम करते थे। लेकिन बाद में वो अमर उजाला से जुड़ गये और स्टिल फोटोग्रॉफी करते रहे। उनके फोटो धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में भी पहले पेज पर कई बार छपे हैं। कैमरे पर उनकी पकड़ सीएनबीसी आवाज़ में उनकी खबरों में साफ नज़र आती है।
2- Dancing designation of Mrinal Pande
Mrinal Pande all powerful lady of Hindustan group of Hindi publication had three designations in a fortnight. Her long time Editor-in-Chief label was found missing from the print line one day. She was just editor of Hindustan.This really put her in a fix. She had a tough time explaining about the missing in-chief of her designation. She was so infuriated that when Yashwant Singh broke this news on his media portal www.bhadas4media.com she had a bitter argument with him. In a week or so her designation grew in size with the addition of word principal to Editor. But no one knows what does the new designation means. (www.gujratglobal.com के न्यूजलेटर से साभार)
3- वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला को पितृ शोक
कानपुर निवासी और अमर उजाला, दिल्ली में एक्जीक्यूटिव एडीटर शंभूनाथ शुक्ला के पिता श्री राम किशोर शुक्ला का निधन कानपुर में हो गया। उनका देहांत 24 जुलाई को हुआ। तेरहवीं 6 अगस्त को है। शोक की इस घड़ी में हम शंभूनाथ जी के साथ हैं और स्वर्गवासी पिताश्री को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
जय भड़ास
यशवंत
हे राम !
देश की कांग्रेस सरकार(माफ़ कीजिये केन्द्र सरकार ) ने अपनी नीचता दिखाते हुए एक बार फ़िर इन विस्फोटों को भाजपा का (माफ़ कीजिये राज्य सरकारों का ) आंतरिक मामला बताया हे और वही रटारटाया वाक्य दोहराया हे की राज्यों ने इंटेलिजेंस सुचना को महत्व नही दिया ।
लेकिन क्या देश की सरकार जनता को सुरक्षा का भरोसा इस तरह देगी ? विस्फोट भले किसी ने किए हो कम से कम देश की सरकार को इस समय तो दलगत राजनीती से उपर उठकर कुछ ऐसा कहना और करना चाहिए जिससे जनता को इस मुश्किल घड़ी में राहत महसूस हो, ना की देश की गन्दी राजनीती की तस्वीर सामने आए ।
क्या इन सब से यह नहीं लगता की देश राम भरोसे (राज्यों की भाजपा सरकारों के ) चल रहा हे न की भारत सरकार के ।
हे राम ! ?
26.7.08
योगेश भाई की तीन साल की बेटी कल से अस्पताल में बेहोश पड़ी है.........
अभी हाल ही में मेरे पास बीहड़ नामक ब्लाग के रचयिता श्री योगेश जादौन जी का फोन आया तो मुझे लगा कि भाई ने बस यूं ही हाल जानने को फोन करा होगा लेकिन उन्होंने बहुत दुखी होकर बताया कि उनकी तीन साल की बेटी को कल रात को शायद कानपुर के अस्पताल में पेट दर्द की शिकायत पर भर्ती कराया वहां डाक्टरों ने बताया कि आंतो में मवाद भर गया है जिसका कि संक्रमण फेफड़ों तक फैल गया है ,डाक्टरों ने आधा लीटर से ज्यादा मवाद निकाला है; हमारे भाई की बेटी अभी तक बेहोश है। मैंने उन्हें अपनी गुरूशक्ति के भरोसे पर आध्यात्मिक उपाय बता दिया है और आप सबसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि अपने अपने ईश्वर-अल्लाह या गुरुदेव से प्रार्थना करें कि वह मासूम जल्दी से स्वस्थ हो जाए।
आप सबसे निवेदन है कि इस कठिन समय में योगेश भाई को ढाढ़स बंधाएं और उनकी कानपुर में रहने वाले भाई लोग यथासंभव सहायता करें।
उनका मोबाइल नंबर : 09456073566 है
लम्बोदर
उस लम्बमान ताल उपात से सटे
संकुल वृक्षों की लसस डालियों
के पत्र्पुन्ज से आवृत स्थल पर
कार स्कूटर ट्रक ट्रालियों मैं
विराजित - विसर्जन के लिए
बात जोहते लम्बोदर असंख्य - जनों के संग
अकस्मात्
चीरकर
वह पगलाई स्त्री
ताल की अथाह गहराई मे चलते चलते
डूब गई उसके कांधे पर उसका
लम्बोदर था जो
भूख से तड़पकर
उसी दिन अंकोर मे सर रख कर
मरा था
सांसदों की ख़रीद-फरोख्त के खिलाफ एकजुटता का आवाहन
प्रिय भडासी भाइयों,
22 जुलाई 2008 को अपने देश की संसद में हमें एक ऐसा शर्मनाक नजारा देखने को मिला जिसे देखकर लगा कि क्या हमारा देश, उसके सांसद और पूरा का पूरा लोकतंत्र एक मंडी की तरह बनता जा रहा है, जहां नेता खुलेआम बिकते हैं। लेकिन यह तो सच्चाई की एक अंश मात्र ही है। हम सब जानते हैं कि सरकार गिराने और बचाने के नाम पर जो इस संसद के अंदर और बाहर खेला गया वह उससे कहीं ज्यादा है। जितना सामने आया, इसमें सांसदों के अलावा और भी बहुत लोग शामिल हैं। क्या इन लोगों का जुर्म संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों से कम है ? क्या इन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलना चाहिए ? लेकिन अब हम क्या करें। यूं ही चुप बैठे रहें ? अगर यूं ही चुप बैठे रहे तो एक दिन यह सांसद हमें और हमारे देश को बेच डालेंगे।आइए हम सब मिलकर जोरदार तरीके से मांग करें कि
१. सरकार बचाने-गिराने के लिए पिछले एक महीनें में जो सांसदों की खरीद फरोख्त हुई, उसकी निष्पक्ष जांच ऐसे लोगों से कराई जाए जिनपर देश को भरोसा हो। दोषी लोगों को जेल भेजा जाए।
२. आईबीएन चैनल ने जो रिकार्डिंग लोकसभा अध्यक्ष को सौंपी है, उसमें हो रही सांसदों की खरीद-फरोख्त को सभी चैनलों के माध्यम से देश की जनता को दिखाया जाए।
३. भ्रष्ट सांसदों, मंत्रियों, प्रधानमंत्री और अफसरों पर मुकदमा चलाने और जेल भेजने के लिए तुरंत लोकपाल बिल लाकर एक शक्तिशाली एवं निष्पक्ष-स्वतंत्र लोकपाल नियुक्त किया जाए।
सत्ता के गलियारों तक इन मांगों को पहुंचाने के लिए सैक़ड़ों लोग रविवार 27 जुलाई, शाम 6 बजे इंडिया गेट पर एकि़त्रत हो रहे हैं। यह आवाहन किसी संगठन या पार्टी का नहीं, आम लोगों का आम लोगों के नाम है। आपका वहां पहुंचना की आपकी आवाज बनेगा।
सभी भड़ासी भाइयों से अनुरोध है कि भारी संख्या में रविवार शाम 6 बजे इंडिया गेट पहुंचकर इस आवाज को बुलंद करें।
सेल्समेन
फैली सर्द रात के सन्नाटे
को चीरती है
- जैसे लकडहारे चीरतें हैं लकड़ी -
उसकी माँ की चीख
और हम सब बड़ जातें हैं
पोस्ट - मार्टम कक्ष मैं
मेरे सामने ही होता है शव विच्छेदन
और निकलती है उसमें से
-ढेरों मन गालियाँ
-दुस्तर लक्ष्य
-अंतहीन दबाव
-असंखय गुटकों के पाउच
-"कुत्तों से सावधान ""सेल्समेन आर नोट एलाऊड की पट्टियाँ"
तिरस्कार से बंद होते दरवाजों की आवाज
और ..........................और...............................और
एक कोने मैं दबे कुचले सहमे
माँ के कुछ सपने ;
"आखिरी बार कब हंसा था ?
"मरने से कुछ देर ही पहले "
गीली रात ढलती है
भौर उमग रही है
रोशनियाँ पीली पड़ने लगती हैं
एक अच्छी जानकारी - एक ऐ मेल से चलायें सभी एकाउंट
सरल प्रक्रिया
जीमेल एकाउंट में साइन - इन करें, फिर दाहिने और सबसे ऊपर सेटिंग्स में जाएँ, इस तरह आपको accounts टैब दिखेगा इस पर क्लिक करें तो पहले विकल्प sand as mail की मदद से ही आप अपने जीमेल compose box से ही किसी भी e-mail account के id से बना massage bhej sakte hain. इसमें आपसे पुछा जाता है किआप किस ईमेल एकाउंट से मेल करना चाहते हैं।
दूसरा option है 'Ad another ID' जब आप इसपर clik करेंगे तो आपसे नाम और इमेल आई डी पुछा जायेगा। आप दूसरा इमेल आई डी भरकर अगली स्टेप पर जायेंगे तो आपसे verification code पुछा जायेगा, यह verification मेल उस आई डी पर भेजा जाता है जिसका पता आपने भरा है, जैसे आप verification प्रक्रिया पूरी करेंगे यह आई डी आपके एकाउंट से जुड़ जायेगा।
इस तरह आपका एक ईमेल का पैक तैयार हो जायेगा जो बचायेगा आपके समय को तथा चार पाँच ईमेल एकाउंट को सँभालने की समस्या से।
संजीव परसाई
वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार गौतम के दुख को महसूस करिए
सुनील जी से संपर्क के लिए आप उनसे उनके मोबाइल नंबर 09431080582 पर फोन कर सकते हैं या उनके घर के लैंडलाइन फोन 0612-2578113 पर काल कर सकते हैं। सुनील जी का बैक एकाउंट नंबर भी भड़ास के पास भेजा गया है जो इस प्रकार है - bank account no - 2201050040687 HDFC bank।
25.7.08
रोना, हंसना, परिवार बनाना
भाई,
आपने जो तस्वीरें भड़ास पर डाली हैं उन्हें देख कर एक बार मैं रूपेश दादा से लिपट कर रो ली क्योंकि एक मेरा वो बायोलाजिकल परिवार था जो मुझे कब का भूल चुका है और एक आप लोग हैं जिनसे मेरा कोई रक्त संबंध न होने पर भी लगता है कि जन्म जन्म का साथ है। आज भाई के घर पर ही रुक गयी हूं।
आपको बहुत सारा प्यार,अच्छे से नौकरी करो और खूब नाम कमाओ ताकि आपकी ये बहन आप सब पर गर्व कर सके।
प्रेम सहित
मनीषा दीदी
रजनीश जी ये ढीट नेता तब तक नही सुधरेंगे जबतक ...........................................
सुनील चौधरी
दृश्य-1 - तब पीपी शर्मा मुख्य सचिव हुआ करते थे. होटल अशोका में टाटा पॉवर के अधिकारीयों के साथ मीटिंगहो रही थी. करीब 100-125 पत्रकार आए हुए थे. सब कवर करना चाहते थे. पर यह इन्टरनल मीटिंग थी. किसी कोअन्दर नहीं जाने दिया गया। पीपीशर्मा जी जब मैंने ख़बर के लिए आग्रह किया. तब उन्होंने कहा की 15 मिनट बादउद्योग सचिव तथा ऊर्जा सचिव नेपाल हाउस में प्रेस वार्ता कर बता देंगे। 15 मिनट बाद नेपाल हाउस मात्र 5 पत्रकारही थे। प्रभात ख़बर से मैं था. 2 लोग हिंदुस्तान तथा जागरण से थे. तब के ऊर्जा सचिव के विद्यासागर ने मजाक मेंही गंभीर बात कह डाली। कहा- क्या यार अशोका होटल में तो 100 के करीब पत्रकार थे. यहाँ केवल 3 ही हो। अबउन्हें कौन बताता की सब न्यूज़ के लिए नहीं, टाटा पॉवर से गिफ्ट की आस में आये थे. जिन्हें न्यूज़ लेना है, वो यहाँहै.
दृश्य-2- दवा के संगठन की प्रेस वार्ता थी. 150 पत्रकार थे. फर्जी भी थे. बेचारे का गिफ्ट भी घट गया. एकपदाधिकारी ने बताया की केवल 5 प्रेस को ही सूचना दी गई थी. पता नही 150 कहाँ से आ गए।
दृश्य-3- सीएम नरेगा में जाँच की घोषणा करने वाले थे। प्रेस सलाहकार ने लगभग हर प्रेस को सूचना भेजी थी।पर आए केवल 7-8 लोग ही, क्यूंकि वहाँ गिफ्ट का कोई इन्तेजाम नहीं था। वहाँ गरीबों के लिए बनी योजना में होरही धाँधली पर बात होती, जो गिफ्टउवा पत्रकार के कोई काम का मुद्दा ही नहीं था।
ये चंद उदहारण हमारी रांची के पत्रकारों के लिए है जो अपने आपको टॉप समझते हैं, अब आप ही तय करें की ख़बरके लिए क्या महतवपूर्ण था। फिर नदीम ने क्या ग़लत कह दिया। दरअसल कुछ पत्रकार इस पेशे में आते ही हैंकमाने के लिए। चमचागिरी इनकी खासियत है। चाहे संपादक की करें या नेताओं की। ये लोग तरक्की का शार्टकटजान गए हैं। 2-4 साल में ही कार, फ्लैट, और न जाने क्या-क्या? ताज्जुब तो तब होता है की इनके परिवार मेंशादी ब्याह तो मनो वरदान है। एक साल में एक ही बच्चे का 2-2 बार बर्थडे मना लेने में इन्हे महारत हासिल है. अब कोई पूछे कि आख़िर एक ही बच्चे का साल में तीन-तीन बार जन्मदिन क्यूँ मन रहे हो भाई? जानते हैं क्यूँ - मैं बताता हूँ, क्यूंकि ऐसे ही अवसरों में अपने अपने संपर्क वालों का लोग दोहन कर लेते हैं। मतलब जो जहाँ है, वहींअपने हिसाब से दूह रहा है... जय राम जी की॥
गैंगवार में मारा गया रामनरेश
माँ
देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
बाहर आ कर पाता हूँ
बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
स्नेहसिक्त आँखे
और डाल देता हूँ एक लोटा रस्मी पानी
मुस्कराती है वह तब भी
छूता हूँ मैं उसके
पियराते पत्ते
बर्गरेज अभी दूर है
चश्मा भूल आया हूँ मेज पर रखा है
मैं मुड़ता हूँ
गिरती हैं कुछ बूंदे आसुओं की
पलट कर देखता हूँ
मुझे लगता है जैसे माँ बेठी हो सामने
सोमनाथ के बहाने
सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।
24.7.08
ओलम्पिक का सफर
ओलम्पिक का सफरनामा-4 आपके लिए लाया है ओलम्पिक की यादें. हाँ यदि इन यादों, जानकारियों का पता हमारे सम्मानित भडासी भाइयों को हो तो हमें उनका बहुमूल्य समय नष्ट करने के लिए क्षमा करियेगा.
मेरी कलम से
कपडों की तरह लोग ख़ुद को बदलने लगे है
ज़रा ! संभलकर चलना दोस्त, चेहरे
बदल-बदल कर लोग घर से निकलने लगे है
दर्शन विकास की, पथ भी विकास का................
सड़क तो जाम सड़क के नीचे कीचड़ का जाम मैं किधर से जाऊं(रिक्शे वाले की गुहार)
सत्ताधारी पार्टी के विधान पार्षद के निवास का जलमग्न मार्ग, पार्षद तो अपनी सवारी से चले जायेंगे आम जन का क्या ? दरभंगा.......
दरभंगा बिहार का एक और बड़ा शहर, और ये दरभंगा का बस स्टैंड, अगर आको यहाँ आना है तो सोचिये की कैसे आयेंगे और अगर बाहर से आप यहाँ आए तो अपने घर को कैसे जायेंगे।
ये है विकाश पुरुष कि कुछ झलकियां, पत्रकारों के सहारे शानदार विकास किया है नितिश सरकार ने, इसकी जीवन्त झलकियों का भी इन्तेजार करें।
जय जय भड़ास।
क्योंकि हम "भड़ासी" है
नही हम कभी नही सुधरेंगे |
क्यों ?
क्योंकि हम तो पवित्र है पावन हैं |
हम पवित्र और पावन क्यों हैं |
क्योंकि हम "भड़ासी" है |
जो कुछ भी नही रखते अपने अन्दर
जो करे उनका मन मैला |
सब उलट देते है |
सारी विकृतियाँ सारी पीड़ा
जो समाज ने उन्हें दी है
इसलिए हम पावन है पवित्र है
क्योंकि हम भड़ासी है
जय भड़ास
जय धन्वन्तरी , जय यशवंत
चाईना की रेलवे
चार दिनों दा प्यार हो रब्बा...
अभी अखबार पढ़ते-पढ़ते मुझे बाहर से फ़िल्म जन्नत का ये गाना सुनाई दिया. चार दिनों दा प्यार हो रब्बा... लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई. मौका और दस्तूर के हिसाब से ही गाना बज रहा था, इसलिए चेहरे पर एक मुस्कान खिल गयी. असल में संप्रग और वाम के रिश्तों की टूटी डोर और सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकले जाने के बाद इस गाने की प्रासंगिकता और बढ़ी हुई लगी. लेकिन फर्क सिर्फ़ इतना ही है कि वाम और संप्रग का बेमेल प्यार या फिर यूँ कहें कि वाम दलों द्वारा संप्रग के साथ अप्राकृतिक राजनीतिक यौनाचार चार दिनों तक नहीं बल्कि चार सालों तक चला. सरकार बहुत ज़्यादा तकलीफ महसूस करने लगी, तो उसने भी बिस्तर से उठने की हिम्मत दिखा ही दी. लेकिन वाम दलों ने लाजवंती सरकार की इस हिमाकत का बदला अपने ही वरिष्ठ साथी से ले लिया. 40 सालों तक जिसने पार्टी (सीपीएम) की निःस्वार्थ सेवा की, उसे एक झटके में पार्टी से निष्कासित कर डाला. आख़िर माकपा क्या चाहती थी सोमनाथ चटर्जी से. क्या वे स्पीकर के दायित्व का निर्वहन न करके एक आम राजनेता की तरह आचरण करते. स्पीकर होने का मतलब जिस करीने से सोमनाथ चटर्जी ने भारत के लोगों और राजनेताओं को समझाया है, संसदीय इतिहास में आज तक इतने कायदे से कोई नहीं समझा पाया था. सोमनाथ चटर्जी भले ही विश्वास मत से पहले कुर्सी छोड़ कर नहीं गए, लेकिन उन्होंने विश्वास मत की पूरी प्रक्रिया के दौरान अपने आचरण में किसी दल विशेष का पुट सुवासित नहीं होने दिया. अपना काम बखूबी अंजाम दिया और वैसी नौबत भी नहीं आयी की स्पीकर को पक्ष-विपक्ष के मतों में समानता आने के कारन अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना पडा हो. और जब सोमनाथ चटर्जी ने अपने मत का इस्तेमाल ही नहीं किया, तो उनके ऊपर किसी के समर्थन या फिर किसी के विरोध का आरोप कैसे मढ़ा जा सकता है. सिर्फ़ इसलिए कि सोमनाथ जी माकपा के संसद हैं, और उन्हें भी नोटों का बण्डल दिखने जैसा कोई नाटक करना चाहिए था वेल में खड़े हो कर. या फिर उन्हें भी इस्तीफा देकर आम माकपाइयों की तरह "इन्कलाब मुर्दाबाद" का नारा लगना चाहिए था क्या? आख़िर सोमनाथ चटर्जी इस्तीफा दे भी देते तो क्या होता, संप्रग ने अभी जिस प्रकार सांसदों का जुगाड़ किया वैसे ही सोमनाथ के इस्तीफे के बाद भी जुगाड़ कर ही लेते संप्रग के नेता. और वैसे भी राजनितिक आरोप तो दोनों और से लगाये जा रहे हैं. कौन दूध का धुला है. पक्ष के पास तो विपक्ष से ज़्यादा तादाद में सांसद हैं विपक्षी दलों पर आरोप लगाने के लिए. असल में माकपा को ऐसा लग रहा है कि इस खेल में उनकी नहीं चली, तो आगे जहाँ-जहाँ उनकी सरकार है वहाँ की जनता को ये क्या मुंह दिखाएंगे? लोगों से क्या कहेंगे कि हम कांग्रेस के साथ हो चुके हैं, असल में इन्हें सरकार से या फिर यूँ कहें कि कांग्रेस से पल्ला तो छुडाना ही था, बस मौके की तलाश थी, वो मिल गया. अब उस मौके के बाण से कुछ तीर भी छूट रहे हैं. एक तीर सोमनाथ चटर्जी को लगा है, आगे देखिये और किसे-किसे लगता है..
बैंक ने किया गरीब किसानों से छल
सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखंड क्षे़त्र के बांदा जिले के गरीब किसानों पर एक तरफ प्रकृति ने कहर बरपा रखा है वहीं दूसरी तरफ बैंक भी किसानों को बदहाली की और धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। सूचना के अधिकार के जरिए बांदा जिले के त्रिवेणी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में अनेक प्रकार की अनियमितताएं उजागर हुईं हैं।
आरटीआई के माध्यम से जो सूचनाएं मिली हैं उनसे पता चला है कि इस बैंक ने क्षेत्र के गरीब किसानों के साथ बहुत बड़ा छल किया है।अप्रैल 2008 में आवेदक राजा भईया यादव द्वारा दायर आरटीआई के माध्यम से पूछा गया था कि इस सूखेग्रस्त जिले के जिन किसानों के क्रेडिट कार्ड बनें हैं, उनकी फसल का बीमा किया गया है या नहीं। यदि बीमा नहीं हुआ है तो इसकी वजह बताएं। आवेदन में उन किसानों की संख्या भी पूछी गई जिन्हें दावा राशि का भुगतान किया गया था।
आरटीआई आवेदन का कोई जवाब नहीं मिलने पर मई में प्रथम अपील दायर की गई। प्रथम अपील से जो जवाब मिले वह आधे-अधूरे थे। प्रथम अपील में जो सूचनाएं उपलब्ध कराईं उसमें यह तो स्वीकार कर लिया गया कि किसी किसान को दावा राशि का भुगतान नहीं किया गया है। लेकिन मांगी गई अन्य सूचनाएं नहीं दी गईं। अन्तत: मामला राज्य सूचना आयोग पहुंचा। आयोग ने बैंक को निर्देश दिए कि आवेदक द्वारा मांगी गई सूचनाओं को तुरंत उपलब्ध कराए। सूचना आयोग के आदेश का असर हुआ और किसानों के खातों में करीब 1 करोड़ रूपये की राशि स्थानांतरित कर दी गई।
ओलम्पिक यात्रा
देश में सब ठीक है
हे माताराम! संसद में उठापटक हुई, हमने टी.वी.देखा फिर अखबार पढ़े,कुछ बदलाव आया क्या? नहीं आपके खाने के लिये सड़क के किनारे घास भी है और सड़क पर बने गड्ढों में पीने के लिये पानी भी है और मुझे पेट भरने के लिये आपके थन में दूध भी है..... देश में सब ठीक है...(एक पुत्र और उसकी मां के बीच का संवाद जिसमें अनुभवी मां चुपचाप घास चर रही है और दुधमुंहा पुत्र एकालाप कर रहा है)
आइना,
भाजपा और लेफ्ट दोनों ही सरकार के विरुद्ध रस्त्रव्यापी आन्दोलन की बातें कर रहें हें । ये ऐसा लगता हे जैसे खिसियानी बिल्ली खभा नोचे ।
इसमे भाजपा और लेफ्ट की गलती नही हे यह तो राजनितिक अवसरवादिता हे जिसने लोकतंत्र को आइना दिखाया हे ।
बीहड़ में ऐसी हो जाती है हालत
23.7.08
रिश्वत का भूत संसद में
संसद में विश्वास प्रस्ताव पर बहस हुई और समाप्त भी हो गई पर इस दौरान रिश्वत का जो भूत संसद में घुसा उसने समाज में नै बहस शुरू करवा दी। कैसे आया, कौन लाया, क्यों लाया आदि-आदि अनेक ऐसे सवाल हैं जो अपने जवाब मांग रहे हैं। क्या कोई इनका जवाब देगा? शायद कोई भी नहीं, नेता तो कतई नहीं क्योंकि नेता तो अपने क्षेत्र की जनता के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। तब क्या ये तमाम सारे सवाल अनुत्तरित रह जायेंगे?
बदल डालो उसे , बह रही हवा जो .................
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
मो. ०९४२५४८४४५२
देश ने तो तरक्की बहुत की मगर , देश निष्ठा हुई आज बीमार है
बोलबाला है अपराध का हर जगह , जहाँ देखो वहीं कुछ अनाचार है
नीति नियमों को हैं भूल बैठे सभी , मूलतः जिनके हाथों में अधिकार हैं
नहीं जनहित का जिनको कोई ख्याल है , ऐसे लोगों की ही भरमार है
सोच उथला है , धनलाभ की वृत्ति है , दृष्टि ओछी , नहीं दूरदर्शी नयन
कुर्सियाँ लोभ के हैं भँवर जाल में , दूर उनसे बहुत अब सदाचार है
नियम और कायदे सिर्फ कहने को हैं , हर दुखी दर्द सहने को लाचार है
योजनायें अनेकों हैं कल्याण हित , किंतु जनता का बहुधा तिरस्कार है
सारे आदर्श तप त्याग गुम हो गये , बढ़ गया बेतरह अनीतिकरण
दलालों का चलन है , सही काम कोई चाह के भी न कर पाती सरकार है
देश कल कारखानों से बनते नही , देश बनते हैं श्रम और सदाचार से
देश के नागरिको की प्रतिष्ठा , चलन , समझ श्रम , गुण तथा उनके आचार से
है जरूरी कि अनुभव से लें सीख सब , सुधारे आचरण और वातावरण
सचाई , न्याय ,कर्तव्य की लें शरण , देश से अपने जो तनिक प्यार है
बदलने होंगे व्यवहार सबको हमें , अपने सुख के लिये देश हित के लिये
जहाँ भी है आज तक अंधेरा घना , जलाने होंगे उन झोपड़ियों में दिये
देश में आज जो सब तरफ हो रहा देख उसको जरूरी है नव जागरण
क्योंकि जो पीढ़ियाँ आने वाली हैं कल उनको भी सुख से जीने का अधिकार है
जो सरल शांत सच्चे हैं वे लुट रहे , सब लुटेरों के हाथो में व्यापार है
देश हित जिन शहीदों ने दी जान थी क्या यही उनकी श्रद्धा का उपहार है ?
है कसम देश की सब उठो बंधुओं ! बदल डालो उसे बह रही जो हवा
बढ़े नैतिक पतन हित हरेक नागरिक और नेता बराबर गुनहगार है .
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
करात और आडवाणी को तमाचा, राजनैतिक नेतृत्व का सफल इम्तिहान.
कल का दिन भले ही लोकसभा में उथल पुथल भरा रहा, आरोप और प्रत्यारोप के साथ संसद की गरिमा भी तार तार हुई, मगर इन सभी के आदि हो चुके नेता और जनता के लिए लिये ये बात एक घटना से अधिक ना थी । कुछ नया और अदभुत था तो वो हमारे प्रधान मंत्री का करिश्मा.
बेहद नाटकीय घटना क्रम में डाकटर मनमोहन सिंह ने जिस कुशलता और राजनैतिक कौशल से अपने नेतृत्व गुण का लोहा मनवाया ने सच में बहुतों बडे दिग्गजों ओर धाकडों के होश उडा दिये होंगे। सबसे बडा ओर जोरदार तमाचा तो आडवानी के साथ तमाम विपक्षी के गाल पर कि एक छोटा सा दिखने वाला अदना सा मैडम के साये के साथ चलने वाला एक कुशल राजनेता कैसे हो गया। भाइयों वो कहावत है कि गुरु गुड ओर चेला चिन्नी। पुर्व प्रधानमंत्री श्री पी वी नरसिम्हा राव के चेले ने साबित कर दिखाया कि वो सिर्फ़ एक अर्थसाश्त्री ही नही वरन आज के दौर का कुशल राजनेता बन चुका है। हथकन्डों के साथ संसद में पहुंचे सांसदों के सारे हथकन्डे धरे के धरे रह गये ओर छोटा सरदार सब पर भारी पडा।
आडवाणी जी गाल सहला रहे होंगे ओर करात की साढे चार साल की चिख चिख सौदेबाजी का भी अन्त। खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे, आज के लोन्डे नेता ओर सांसद बडे दादा को राजनीति का पाठ दे रहें हैं।
वाह रे भारत, वाह रे भारतीय राजनीति ओर वाह रे हमारे देश के कर्णधार नेता।
जय जय भडास
दुनिया
जो मेरे लिए है
वहां सब कुछ है, उदासी है नींद है , तन्हाई है
कुछ भूखे लोग है कुछ नंगी आँखें है
उन आंखों में दुनिया है , दुनिया में भूख है
भूख में गरीबी है और गरीबी ही इज्ज़त है
फिर भी मै जीता हूँ
क्योंकि ये दुनिया मेरे लिए है सिर्फ़ मेरे लिए
मौजा ही मौजा
हुए अपने हरजाई
लोकतंत्र को रौंद जो,जीत गई सरकार
जीत गई सरकार,बंदिशें काम न आईं
चला कैश का खेल,हुए अपने हरजाई
झारखण्ड के लोगों का नजरिया....गौर फरमाएं...
सब कुछ कल पर नहीं टाला जा सकता
डॉ भारती कश्यप
सीइओ द कश्यप मेमोरियल आइ हॉस्पीटल
राज्य गठन के आठ साल पूरे होने को हैं। नवसृजित राज्य ने अपने रास्ते में कई उतार-चढाव देखे। इस पूरे कालखंड में कई सपने साकार हुए, तो कई बिखरे भी। पेशे से मैं एक डॉक्टर हूं. समाज के हर तबके, हर वर्ग से अपने प्रोफेशन की बदौलत रिश्ता बनता चला जाता है। समाज के अमीर-गरीब सबकी मनोभावना, आकांक्षा और फिर पीडा अनुभव करती हूं। निःसदेंह यहां के लोगों के भी सपने हैं।राज्य की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है। यानी इस आधी आबादी के गुजर-बसर का संकट है। रोटी, कपडा और मकान जैसे मौलिक चीजों के लिए यह वर्ग संघर्ष करते जीवन काट रहा है। ऐसे में आप यह मानकर चलें कि समाज ये वंचित लोग अपने बूते अपनी स्वास्थ्य की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। अपने ईलाज के लिए अस्पतालों तक नहीं आ सकते हैं। इनके पास संसाधन नहीं हैं, पैसे नहीं हैं, जिससे ये सरकार या फिर निजी क्षेत्र की सेवाएं ले सके। बीमार एवं कुपोषित जिंदगी अभाव में ही कट जाती है। ऐसे में आप बिना इनकी जिंदगी को संवारे और बिना स्वस्थ बनाये एक सबल राज्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। राज्य की ये पूरी आबादी मायने रखती है। इनको नजरअंदाज कर हम आगे बढ ही नहीं सकते हैं। समाज के ऐसे लोगों तक जबतक सरकार की सेवाएं नहीं पहुंचेंगी, इनके चौखट तक समाधान नहीं पहुंचेंगी, तबतक राज्य स्वस्थ नहीं बन सकता है। बीमारियों से अपने घर-गांव में लडते ये लोग न विकास की धारा से जुड सकते हैं और न हीं विकास के सहभागी बन सकते हैं। जाहिर सी बात है, हेल्दी स्टेट में ही विकास की सभी अवधारणाएं लागू होते हैं। जिनकी आंखों में रौशनी नहीं है, उनको आप लंबी चौडी सडकें, बडी इमारतें और मेगा मॉल का सपना नहीं दिखा सकते हैं. जो चलने के काबिल नहीं है, उन्हें आप इन सडकों को देकर कुछ भी हासिल नहीं कर रहे हैं। हमें पहले समाज के इन तबकों के बीच पहुंचना होगा। स्वास्थ्य की इनकी जरूरतों को बडे शहरों में सरकारी अस्पताल खोलकर, यहां मशीनें-उपकरणें लगाकर पूरा नहीं किया जा सकता है। आज जबकि सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं हैं, अस्पतालों की कमी है, डॉक्टर प्रर्याप्त नहीं हैं। ऐसे में तो इनको अपनी कल की योजनाओं पर छोड भी नहीं सकते। किसी भी राज्य सरकार को अस्पतालों का जाल-बिछाने, मेडिकल कॉलेज खोलने और फिर डॉक्टर तैयार करने में कम से कम आठ से दस साल लग जायेंगे। अगर तेजी से भी काम हो, तो इन आठ से दस सालों के लिए ऐसे गरीब लोगों को चंद अस्पतालों और कुछ डॉक्टरों के भरोसे नहीं छोडा जा सकता है। सबकुछ कल पर नहीं टाला जा सकता है। ऐसे में उन निजी अस्पतालों को भी आगे लाना होगा, जिन्होंने अच्छे संसाधान जुटाये हैं और उससे बढकर समाज को कुछ देने का जज्बा भी रखते हैं।
जारी रहेगा
Blogger घन्नू झारखंडी said...
आज पहली बार रांची हल्ला को करीने से देखा। इसके पहले नदीम भाई कई बार लिंक भेज चुके थे, पर मैं अति व्यस्तता के कारण लिंक डाल नहीं पाया। डा भारती कश्यप का एक पीस पड़ा था। शायद फांट की गड़बड़ी है या मेरे कंप्यूटर की, ठीक से पढ़ा नहीं जा रहा। पर मैं भारती कश्यप को लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय से जानता हूं। तब से जब से वह अपने श्वसुर डा कश्यप की विरासत अपने पति डा बीपी कश्यप के साथ डंगराटोली चौक पर अपने छोटे से अस्पताल में संभालती रही थीं। आज कश्यप मेमोरियल हास्पीटल रांची की धरोहर बनकर खड़ा है। अंतर्मुखी डा बीपी कश्यप की काबिलियत झारखंड और देश के नेत्र चिकित्सक जानते हैं। उनका स्वभाव संत जैसा है। काम करो, सिर्फ काम। इसके विपरीत डा भारती कश्यप का बहिर्मुखी स्वभाव भी सब जानते हैं। कश्यप मेमोरियल हास्पीटल की बिल्डिंग की तरफ से गुजरते हुए कई बार देखा, तो मन में यही ख्याल आया, जरूर यह बुलंद इमारत, जो हर दिन सैकड़ों नेत्रहीनों के जीवन में प्रकाश भरती है, भारती कश्यप जैसी लौह महिला के आत्मविश्वास, जुनून और पैशन के बिना खड़ा हो पाती क्या? इस इमारत की सौविनिर को पढ़ते हुए यही लगा, इस तरह का अस्पताल तो लंदन में होना चाहिए था। यहां इसकी कद्र आखिर कौन करेगा? स्वास्थ्य विभाग के रहनुमा अगले १० साल में डेढ़ सौ पीएचसी बनाने का दावा करते हैं, क्या उन्हें पता है कि उनकी सत्ता की मियाद कितने साल है। लाम-काफ में लगे और सत्ता का सुख भोग रहे नेताओं से इस अस्पताल को कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। शायद ही किसी को एहसास हो कि झारखंड के जिस गुमला, सिमडेगा, चक्रधरपुर, पलामू और अन्य कई इलाकों में अंधापन अभिशाप बना हुआ था, वहां डा भारती कश्यप और डा बीपी कश्यप ने दसियों दिन लगातार कैंप लगाकर मरीजों की अनवरत सेवा की। इसके बाद भी उनकी इम्पैथी देखिए, शहर को दिया अंधापन निवारण के लिए एक सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल, जिसके उदघाटन के बाद सरकार ने अस्पताल के साथ किसी तरह का संबंध बनाने की भी जरूरत नहीं समझी। होना तो यह चाहिए था कि सरकार इस अस्पताल के साथ समझौता कर राज्य के नेत्रहीनों के इलाज की मुकम्मल व्यवस्था सुनिश्चित कराती, पर सत्ता के बारे में रात-दिन सोचनेवाले लोग इतने इम्पैथेटिक कभी नहीं हो सकते। डा भारती कश्यप का सिंगल वूमन इफोर्ट ही कहिए कि उन्होंने अस्पताल में ऐसी-ऐसी सुविधाएं जुटा रखी हैं, जो शंकर नेत्रालय और एम्स से भी बेहतर हैं। पर इसकी चरचा कम होती है। कई बार वहां बैठे दूर-दराज के रोगियों को देखा है, जो आते तो हैं निराश, पर जाते वक्त आंखों की रौशनी पा लेने की रौनक उनके चेहरे पर झिलमिला रही होती है। मंत्री से संतरी, अधिकारी से पदाधिकारी- हर तबके के लोग इस अस्पताल खुद या अपने संबंधियों का इलाज कराने आते हैं। डा भारती कश्यप उन हाई प्रोफाइल लोगों का मन से इलाज करती हैं- बिना सेवा शुल्क लिए। सबको चश्मा देती हैं, दवाएं देती हैं, आपरेशन निशुल्क या छूट पर करती हैं, पर ठीक होते ही बिसार देते हैं नेता। फिर भी वह भागती रहती हैं, दौड़ती रहती हैं, सबसे अच्छा व्यवहार करती हैं, संबंध बनाने में विश्वास करती हैं, पर कश्यप परिवार की इस विरासत के लिए शहर या सरकार ने आज तक क्या किया। अगर कुछ हो तो हम सबको बहुत अच्छा लगेगा। फर्ज कीजिए ऐसा अस्पताल शहर में नहीं होता तो क्या आप अपनी तकलीफों के लिए शंकर नेत्रालय या फिर वेल्लोर तो जाते ही। कश्यप मेमोरियल हास्पीटल राज्य का गौरव बने और शंकर नेत्रालय से रिटर्न मरीज इस अस्पताल में नेत्रसुख पाएं, क्या इसके लिए कुछ इंतजाम यह सरकार करेगी?
घनश्याम श्रीवास्तव, रांची
July 17, 2008 4:42 PM
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Blogger नदीम अख़्तर said...
मुझे ऐसा लगता है कि मैडम ने जो बातें कही हैं वो 100 फीसदी सही हैं. ये सरकार इच्छाशक्ति के मामले में सबसे गयी बीती है. किसी के अन्दर थोड़ी सी भी संवेदना नहीं दिखती. वैसे एक बात साफ़ है कि यहाँ जब तक निजी डॉक्टरों की मदद सरकार नहीं लेगी तब तक सर्वे सन्तु निरामयाः का सपना साकार नहीं होगा. अभी आठ साल ही हुए हैं, लेकिन यही हाल रहा तो अस्सी साल तक इस राज्य की तस्वीर नहीं बदलेगी. बल्कि बदलने की तो दूर की बात, और खराब हो जायेगी. इस मुद्दे को उठाने के लिए डॉक्टर भारती कश्यप को धन्यवाद. इतनी गहराई से लिखने वालों की आज-कल कमी हो गयी है, ऐसे में डॉक्टर भारती कश्यप ने ज्वलंत प्रश्न सामने रख कर समाज में एक नयी बहस की शुरुवात कर दी है. रांचीहल्ला वालों से गुजारिश है की वो भी अपने विचार रखें. जय हो रांची !!
नदीम अख्तर
July 17, 2008 7:16 PM
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Anonymous दीपक said...
अभी अभी डॉक्टर भारती मैडम का लेख देखा. ऐसा लगा की मेरे अंतरात्मा की आवाज़ यही है कि सही में क्या हमारा राज्य कभी सुधरेगा कि हमेशा ऐसे ही रहेगा. यहाँ हो यही रहा है कि आप काम कीजिये और सरकार ही आपकी टांग खींच देगी. संचार सुविधा लगाने वाली कंपनी को अभी तक सरकार पैसा नहीं दे सकी है. या फिर ऐसा कहें कि देना ही नहीं चाहती क्यूंकि उस कंपनी ने भुगतान के बदले में कमीशन देने से इनकार कर दिया है. ऐसे में तो राज्य में गृह युद्ध होना तय है. डॉ भरती को इस लेख के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद
दीपक, स्टार न्यूज़
July 18, 2008 3:40 PM
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Anonymous आलोक व्यास said...
मैडम आप तो आँख की डॉक्टर हैं, क्या आप राज्य की अंधी सरकार का इलाज नहीं कर सकती हैं? अगर आपके पास कोई नेत्रदान हो तो पहले इस सरकार के आँख में रोशनी डाल दीजियेगा. किसी एक आदमी को रोशनी देने से कुछ नहीं होगा पहले इस नेत्रहीन सरकार के आँख में एक रोशनी वाली पुतली डाल दीजिये. ये तुंरत कर दीजिये, बहुत ज़रूरी है. आप इस महान कार्य के लिए फीस नहीं लेंगी ये मुझे पता है, तो कहिये कब भेजें सरकार को आपके क्लिनिक में आँख लगवाने के लिए?
आलोक व्यास, जमशेदपुर, झारखण्ड
July 18, 2008 3:46 PM
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Anonymous sunil choudhary said...
डॉ कश्यप ब्लोग्स में आपका स्वागत है. यदा-कदा आपसे मिलने का मौका मिला है. आप भी इतनी संवेदनशील है, अच्छा लगा आपके विचार पढ़कर, मैडम सरकार सिर्फ़ अपनी झोली भरने के लिए फिक्रमंद रहती, गरीबों की चिंता की जवाबदेही तो हमारे आपके लिए है. कुछ दोष तो हम जैसे गरीबों का है जो इन्हे चुनकर भेजते है. फिर कोसते है. पर इन्हे क्या जो हॉस्पिटल कमीशन देगा, वहां ही इलाज होगा. आप शायद पिचर गई है. पर हम आपके साथ है.
July 18, 2008 6:35 PM
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Anonymous kumar ayush said...
I am a jharkhand resident but presently not living in jharkhand. I am at seol (south korea). through some newspapers i use to know the conditions of jharkhand, but today i read a story on times site about the ongoing bargaining on politicians. such instances corelate the writ-up of dr bharti. next time whenever i come to india i will meet bharti madam. thanks mam, get going on and on and on...yaps.
July 19, 2008 12:52 PM
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Anonymous पुष्पगीत, said...
मैडम, रांचीहल्ला पर आपका लेख पढ़ा. कम शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है. आप के योगदान को यह सरकार समझ नही पा रही है,लेकिन आप अपने समाज के प्रति सजगता को बनाये रखे.सरकार का अपना चरित्र होता है. आप अकेले ही अपने रास्ते चलते रहे. यह दीगर बात है की झारखण्ड में आपने सरकार की आँखों पर लेंस लगा दिया है, अब तो इनको साफ दिखे.
पुष्पगीत, प्रभात ख़बर, रांची
July 19, 2008 4:49 PM
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Blogger Rajat Kr Gupta said...
इस सरकार की हालत तो हर बार उजागर होती है. इस स्थिति से हम वाकिफ हैं. फ़िर भी राज्य का पढ़ा लिखा वर्ग इन मुद्दों पर सोच रहा है, यह अच्छी बात है. मुझे लगता है हम सभी को राजनीति को बेहतर बनाने की दिशा मे प्रयास जारी रखना चाहिये. राजनीति का मैदान अगर निरंकुश हुआ तो ऐसा ही होगा. राजनीति से रोजगार पाने वालों को अपने ऊपर जागरूक जनता की निगाह होने का एहसास भी हमे कराना होगा.
July 20, 2008 12:31 PM
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Anonymous Vishnu Rajgadia said...
डॉक्टर भारती कश्यप के विचार पढ़कर अच्छा लगा, इसलिए भी कि सामाजिक दायरों की सोच रखने का समय प्रोफेशनल लोगो को कम ही मिल पता है. तो मुद्दा गरीब लोगो के इलाज का है और मंच पर मीडिया और हैल्थ से जुड़े लोग हैं, इसलिए मैं कोई सेंटीमेंटल बात करने के बदले एक जरूरी व्यावहारिक बात कहना चाहूँगा जो मीडिया और हैल्थ दोनों से जुड़े लोगो के लिए महत्व की है. भारत सरकार ने वर्ष २००५ से नेशनल रुरल हैल्थ मिशन चला रखा है. यह २०१२ तक चलेगा. इसका लाभ हमारा झारखण्ड ठीक ढंग से नही उठा रहा और गरीबो के हैल्थ से सरोकार रखने वाले लोग भी इस मिशन के डिटेल पर नही जा रहे. बेहतर होगा कि इसकी मॉनीटरिंग हो. सरकार ने देश के नौ स्टेट में इसकी कम्युनिटी मॉनीटरिंग का पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है जिसमे झारखण्ड भी है. यहाँ तीन डिस्ट्रिक्ट हजारीबाग पलामू और चाईबासा में कम्युनिटी मॉनीटरिंग चल रही है. मीडिया फेल्लोशिप के जरिए आठ पत्रकारों को इसकी रिपोर्टिंग का दायित्व दिया जा रहा है और यह सरकार के लिया फील गुड कराने कि नही बल्कि वाकई रुरल झारखण्ड में हैल्थ की स्थितियों को सामने लाने का प्रयास है. लिहाजा, डॉ भारती कश्यप को साधुवाद की उन्होंने गरीबो के हैल्थ को मुद्दा बनाया. यह हमारा कम है कि इसे वास्तविक धरातल से जोड़े, न कि महज यह कुछ भावनात्मक पहलुओ तक सिमट कर रह जाए
विष्णु राजगडिया
July 21, 2008 4:37 PM