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18.2.09

ग़ज़ल

अजब अनहोनिया हैं फिर अंधेरों की अदालत में
उजाले धुन रहे हैं सिर अंधेरों की अदालत में।

पुजारी ने बदल डाले धरम के अर्थ जिस दिन से,
सिसकता है कोई मन्दिर अंधेरों की अदालत में।

जो डटकर सामना करता रहा दीपक, वो सुनते हैं
वकीलों से गया है घिर अंधेरों की अदालत में।

सवेरा बाँटने के जुर्म में पकड़ा गया जो कल,
वो सूरज आज है हाज़िर अंधेरों की अदालत में।

सुना है फिर कहीं पर रौशनी की द्रोपदी चेतन,
घसीटी ही गई आखिर अंधेरों की अदालत में.

चेतन आनंद

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