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13.2.09

चड्डी की हड्डी अब गले नही उतरती

पब से बाहर किया तो तुमने चड्डी उतारी, गर कल पब जाने से रोक देंगे तो चड्डी पहनना छोड़ देंगे....
पिछले एक सप्ताह से ज्यादा समय से चिट्ठाजगत इस पिंक चड्डी में समां गया लगता है। मुझे ज्यादा तो नही कहना, पर क्या करूं, लिखने को विवस हो गया। पहली बार मुझे लिखते हुए लेखनी और पत्रकारिता को पेशे के रूप में चुनने का अफ़सोस हो रहा है, बेहतर होता मैं अभियांत्रिकी में ही विकल्प तलाशता।
पहले तो हमें यह समझना चाहिए की हमारा कोई भी कदम , हमारी स्वयं की सोच, अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता का घोतक है ऐसा मानकर हम मनुष्य कहलाने के अपनी निम्नतम निकृष्टता को छू लेते हैं। अआप आज जहाँ भी है, उसके पीछे आपके समाज , परिवार और पूर्वजों का कितना योगदान रहा है इसे नकार नही सकते। अगर कोई इस अथ्य को नज़रंदाज़ करता हैं तो आपसे यह उम्मीद करना ग़लत नही होगा कि वो कल अपने बहन से शादी न कर ले। क्यों कि उसके लिए नैतिकता का क्या अर्थ ? उसे तो सिर्फ़ अधिकार और इक्षा कि भाषा समझ में आती है और वो बाजारवादी ,कल यह तर्क आराम से रख सकता है कि "जब अच्छी गुणवता और "ओके टेस्टेड माल " अपने गोदाम में है तो बहार से खर्चीले आयात कि क्या ज़रूरत।
२ चाहे कोई लाख तर्क और समानता के नारे लगा ले , परन्तु इसे सत्य मानना कि पुरूष और नारी सारे मायने में बराबर है, एक अल्पज्ञान कि कहा जाएगा। शायद वो ज्ञान कह भी दे तो इसे व्यावहारिक ज्ञान कि श्रेणी में कदापि नही रखा जा सकता। स्वं प्रक्रिति जब भिन्नता कर दी, तो उसे नकारने का क्या अर्थ ?
सामान अधिकार कि बात करना , समान आचरण के द्वारा साबित करना कहाँ तक न्यासंगत है? गर ये बात है तो, पब कल्चर के समर्थक ये बताएं कि क्या कल वे अपने निकटतम महिला सम्बन्धी को दीवाल पे पुरुषों कि तरह पेशाब करते देखना चाहेंगे।? अगर हाँ? तो उन्हेंपूरी छुट है , इस pink panty घटना के समर्थन में किसी हद तक जाने की। क्यों कि उन्होंने साबित कर दिया कि वो नए और प्रगतिवादी विचारधारा के हैं।
४ सच तो ये है कि अपने स्वार्थ के लिए महिला हीत कि बात उठाने वाले ये पाश्चात्य संस्कृति कि अंधे अनुयायिओं को भ्रूण हत्या, दहेज़ उत्पीडन के मामले नज़र नही आते। ये वो वर्ग है जो पब, पाश्चात्य संस्कृति के अंधाधुंध चकाचौंध में अपनी दृष्टि गवां बैठा है । नही तो चड्डी पे पैसे बहाने वाले लोग कल बाहर निकल कर क्यों नही आए जब आज भी समाज कि एक बड़ी आबादी कि महिलाएं पुरुषों द्वारे त्यागे धोती को साड़ी कि तरह लपेट कर अपना तन ढंकती हैं।
५। आज गर महिलाओं ने इस घृणित विरोध प्रदर्शन का तरीका अपनाया तो ये कहना अतिशयोक्ति नही होगी की ये वेश्यावृति से भी ज्यादा शर्मनाक कम है। क्यों कि वेश्या वृति के पेशे को अपनाने में कहीं गर मजबूरी रही होगी, तो यहाँ तो शौकिया वेश्यावृति कि झलक है। इज्जत को ढकने वालऐ, अन्तः वस्त्र गर बाज़ार के मनसूबे के मोहरे बन जायें तो इससे घृणित नारी चरित्र का दृष्टान्त नारी इतिहास में नही मिलेगा।मुझे नारी कि इस कृत से इतनी घृणा हो रही है कि...अब यह कहना शोभा नही देगा कि,
पुत्र कुपुत्र होत है ॥माता कुमाता नाही .......

7 comments:

Unknown said...

'RAB' ne kab kaha ki 'PUB' mat jao. Phir bhi ye 'RAB' ke thekedar apna jaat aur aukat dikha kar apna wajood dikhane ka duh-saahas karte hain.

RAJNISH PARIHAR said...

pub jaao chahe bar me..koi kisi ke kahne se nahi rukta....par kuchh maryaada to rakhani chahiye...aise kaunse mata pita hai jo apne bachon ko pab me bhej kar khush honge....jana band karwa diya so..chaddi chaddi khelne lage...

KANISHKA KASHYAP said...

dharm ke thekedaari koi baat nahi. Ek baat samjh lijiye neeraj saab! duniya ke sare sanskrition ke agr naitik mulyon ki ek list banayo jaye , to aise kuchh bhi nahi bachega jo sabhi sanskrition mein manya ho. Par aap jaise SITTING DUCK type logon ko samjhna hoga hi natik aur anaitikta mein ek badi patli rekha hoti hai. jindagi ko swarthi hokar nahi samajik hogar jiyein to aap insaan kehlane ke jyde kaabil honge!

Anonymous said...

पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या…!

http://rewa.wordpress.com/2009/02/15/padhe-likhe-ko-farsi-kya/

रेवा स्मृति (Rewa) said...

http://rewa.wordpress.com/2009/02/15/padhe-likhe-ko-farsi-kya/


पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या…!

Anonymous said...

पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या…!

शर्म नही आती इन राजनेताओं को अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने में! अपनी मातृ संस्कृति - सभ्यता की बोली लगाने में! अपनी ओछी महत्वकांक्षा की पूर्ति के लिए धर्म को हथियार बनाने में! देश भक्ति के नाम अपनी ग़लत शक्ति की मनमानी करने में! वेश्यावृति करने में, और अपने पुरुषत्व पर! अरे हाँ, मैं भूल गयी थी कि इनके पास सारी संपत्ति तो है, लेकिन लज़्ज़ा की संपत्ति के मामले में कंगाल हैं! “बोया पेड़ बबुल का तो आम कहाँ से होये?” ये संपत्ति ना उधार ली जा सकती है, ना ही दी जा सकती है. इसे तो अपने बुद्धि विवेक से अर्जित किया जाता है, और यही परिपक्वता है समाज़ की, राष्ट्र की, व्यक्ति की, और पूरे विश्व की!

अगर उम्र के पड़ाव को पार करने से ही परिपक्वता आती है, तो मुझे खेद है कुछ हिन्दी ब्लॉंगर्स पर जो उम्र के अवसान पर हैं, लेकिन इतना भी संज्ञान नही है कि वो अपने ब्लॉग में क्या और कैसी चीज़ों को तस्वीरों के साथ परोस रहे हैं! वो ये कैसे भूल जाते हैं कि उनकी पीढ़ियाँ भी कल उनका ब्लॉग पढ़ेंगी? कितने शर्मनाक तरीके से पोस्ट लिखे जा रहे हैं, और बहिष्कार कर रहे हैं. बहिष्कार कीजिए! शौक से कीजिए! लेकिन थोड़ा लिहाज़ करना भी ज़रूरी है! कलम में समाज को सशक्‍त बनाने की ताक़त होती है, कृपया राजनेताओं की तरह संस्कृति की बोली मत लगाइए, बल्कि युग निर्माण में सकारात्मक भागीदारी निभाएँ.

“नाच न जाने आँगन टेढ़ा!” अपने व्यक्तित्व का निर्माण तो कर नही सकते, और चले आते हैं राष्ट्र निर्माण का राग अलापने! इन्हें किसने हक़ दिया है क़ानून को अपने हाथ में लेने का? समस्या है तो समाधान भी है, लेकिन ये किसी का अधिकार नही बनता कि वो किसी पर हाथ उठाए. बंदर की तरह उछल कूद करने से अच्छा है कि एक सभ्य इंसान की तरह, आप सभ्यता की राह पर चलकर भी हालातों को बदला जा सकता है!

मेरी समझ से मुद्दा ये है कि समाज में कुछ ग़लत हो रहा है, और उसमें कैसे बदलाव लाना है इस पर कोई बात नही हो रही. क्या एक ग़लत कदम को रोकने के लिए फिर दूसरे ग़लत कदम का उठाया जाना ही समस्या का समाधान है? जिन्हें इस बात का आभास है कि वो समाज़ को एक नयी सकारात्मक दिशा दे सकते हैं, अगर वे समस्या के समाधान पर पहल कर सकते हैं तो मैं उनके विचारों को आमंत्रित करता हूँ!

DINESH........

Anonymous said...

neeraj ji,rab ne kab kaha ki pab me hi jao,isliye, ghar me hi mammy-daddy aur sistar ke sath peg banao.