30.6.09

मन करता है

इस जंगल को छोड़कर
गांव जाने का मन करता है
ढहाकर दडबानुमा इमारत
घर बनाने का मन करता है

देखता हूं हर तरफ
सब भाग रहे हैं बेतहाशा
तेरी गोद में आकर अम्मा
सुस्ताने का मन करता है

चंद लोगों की मुट्ठी में
सारे सिक्के सारी ताकत
ऐसे लोगों की बस्ती में आग
लगाने का मन करता है

भविष्य देश का लिए कटोरा
लालबत्ती पर खड़ा है
उनके हाथों में कलम
थमाने का मन करता है

उखाड़ने को आतुर हैं जो
तानाशाही सरकारें
उनके दिलों में अब शोला
भड़काने का मन करता है

चकाचौंध इस शहर की
आंखों में चुभने लगी हैं
हमेशा के लिए अब इसकी
बत्ती बुझाने का मन करता है...

भागीरथ

दूसरों के लिए खड्डे खोदने वाला खुद गिरता है खड्डे में

एक पुरानी कहावत है की जो दूसरों के लिए खड्डे खोदता है , वह ख़ुद भी खड्डे में गिर जाता है। अब किसी को
किसी के लिए खड्डे खोदने की जरूरत नहीं है। इस देश की सड़कों का ये हाल है कि चारों तरफ़ खड्डे ही खड्डे
दिखाई देते है। कोई भी कभी भी किसी भी खड्डे में गिर सकता है। हर बरसात में सड़कों पर पानी भर जाता है।
कुछ दिन पहले ही ठेकेदारों द्वारा बने गई सड़के उधड चुकी होती है। जगह जगह खड्डे हो जाते है। आए दिन कोई नाकोई खड्डों में गिरता है। इस से न तो हमारी सरकार के कानों पर जूं रेंगती है और न ही प्रशासन पर
कोई असर पड़ता है. लेकिन दुःख जब होता है। जब छोटे छोटे बच्चे खड्डों में गिर जाते है और कई घंटों तक खड्डों में फंसे रहते है , मां -बाप की साँस अटकी रहती है , कोई भरोसा नहीं होता की बच्चा जीवित भी बचेगा
या नहीं .लोग नल-कूप लगाने के लिए साठ - साठ फीट गहरे खड्डे खुदवा लेते है, पानी नहीं निकले पर खड्डों को खुला छोड़ देते है. खेलता हुआ कोई बच्चा उसमे गिर जाता है। अब ऐसी घटनाएँ आयेदिन होने लगी है।
लेकिन अभी तक न तो खड्डे ख़ुदवाने पर कोई रोक लगी है नाही जमीन के नीचे कम होते पानी के दोहन पर
किसी प्रकार की पाबन्दी है। पानी जमीन के नीचे और नीचे चला गया,लोग गहरे और गहरे खड्डे खोदते
जा रहें है।
तीन वर्ष पहले हरियाणा के एक गाँव में नल - कूप के लिए खुदे खड्डे में प्रिन्स नाम का एक चार वर्षीय
बच्चा गिर गया था। दो दिन बाद सेना की मदद से उस बच्चे को जीवित बाहार निकाला गया। विभिन्न चैनेलों
ने इस घटना को बहुत महत्व दिया । खूब शोर मचा पर क्या हुआ , इस के बाद भी ऐसी घटनाएँ होती रही ।
चैनेलों की भी इन घटनाओं में विशेष रुचि नहीं रह गई । पिछले दिनों राजस्थान के दोसा जिले के गाँव में
ऐसे ही एक पचास फीट गहरे खड्डे में चार वर्ष की एक बच्ची गिर गई । यधपि प्रशासन ने चोबीस घंटे की
मशक्कत के बाद उस बच्ची को बाहर निकाल लिया । किंतु खड्डा खोदने वालों के खिलाफ क्या कार्यवाही की गई। क्या भविष्य में भी ऐसे ही खड्डे खोदे जाते रहेंगे । बच्चे गिरते रहेंगे। अब खड्डे खोदने वाले ख़ुद खड्डों में
नहीं गिरते है. -

नवभारत टाइम्स में भड़ास और भड़ास4मीडिया की खूब हुई है चर्चा

नवभारत टाइम्स में 'हिंदी का कच्चा चिट्ठा' शीर्षक से एक आलेख ब्लागिंग पर कंचन श्रीवास्तव ने लिखा है। इस आलेख में कुछ त्रुटियां हैं- 'जैसे अमेरिका में रहने वाले फुरसतिया' की जगह 'अमेरिका में रहने वाले उड़न तश्तरी' होना चाहिए था, बावजूद इसके बेहद कम शब्दों और नपे-तुले स्पेश में हिंदी ब्लागिंग के पूरे परिदृश्य को समेटने की कोशिश की गई है। आप भी पढ़िए, क्लिक आर्टिकल पर क्लिक करिए....

29.6.09

बनाने वाले…………

बर्तन बिखरे हुए, सड़क किनारे
चुल्हे पे है रोटी पकती, सड़क किनारे
रात मे वो एक होते, सड़क किनारे
दिन का सूरज, सड़क किनारे
रात मे चान्द, सड़क किनारे
आना-जाना
खाना-पीना
लडाई-झगड़े
सब कुछ इनका, सड़क किनारे

ये महानगरों के सडक बनानेवाले हैं!

भूखों मर गया संगीत का शहंशाह

शोर-शराबा संगीत के बेताज बादशाह माइकल जैक्‍सन इतना लोकप्रिय अपने कैरियर के दौर में नहीं हुए जितना की अपनी मौत के बाद होते जा रहे हैं। माइकल को भूल चुके लोग तथा नई पीढी के बच्‍चे इस बात को सुनकर बेहद परेशान हैं कि संगीत का बेताज बादशाह भूखों मर गया। अमर होने की चाहत जब इंसान करने लगता है तो वह कुदरत की दी हुई जिंदगी भी पूरी नहीं जी पाता। जो भी प्रक्रति के साथ खिलवाड करता है वह कहीं का नहीं रहता। माइकल ने अपनी सफलता हासिल करते ही सबसे पहले यही काम किया। चेहरे को बंदर के आकार का बनाने के लिए प्‍लास्टिक सर्जरी का सहारा लिया। अपना सेक्‍स चेंज करवाने का प्रयत्‍न किया। जिस तरह से जिंदगी माइकल पर हावी हो रही थी वह अंधविश्‍वास से घिरता जा रहा था। पंडितों की बातों पर उसका विश्‍वास जम रहा था। तांत्रिकों की बातें उसे रास आने लगी थीं। उसे संसार अपनी मुटठी में दिख रहा था। उसे लगता था कि वह वो सबकुछ कर सकता है जो इस जगत में कोई और नहीं कर सका। पर जब माइकल की मौत हुई तो वह चिल्‍ला भी नहीं पाया बस बडे आराम से मौत की आगोश में सो गया। पर इसके बाद पूरी दूनिया में तहलका मच गया। यह होना स्‍वा‍भाविक भी था क्‍योंकि जो माइकल सैकडों साल जीने की ख्‍वाहिश रखता था वह अपनी जिंदगी की हाफ सेंचुरी ही लगाने में सफल हो पाया। अगर माइकल को दवाओं का सहारा नहीं होता तो वह कई साल पूर्व ही इस दुनिया को अलविदा कह जाता। क्‍योंकि बहुत समय पहले ही उसके पापों का घडा भर चुका था।
माइकल जैक्सन की लीक पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलता है कि महान पॉप गायक पिछले कुछ समय से कुछ नहीं खा रहे थे और हड्डियों का ढांचा मात्र रह गए थे और जिस समय उनकी मौत हुई, उनके पेट में केवल गोलियां थीं। दी सन द्वारा प्रकाशित पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, जैक्सन गंजा हो चुका था, उसके शरीर पर खरोंच के निशान थे और उसकी पसलियां टूटी हुई थीं। जैक्सन के कूल्हों, जांघों और कंधों पर सुइयों के घाव थे, जिनके बारे में कहा गया है कि ये उन मादक दर्दनिवारक इंजेक्शनों का परिणाम रहे होंगे जो सालों से उन्हें दिन में तीन बार लगाए जाते थे। अभी भी दुनिया के कोने में मौजूद माइकल के प्रशंसक उन्‍हें महान बनाने में जुटे हुए हैं। पर सच्‍चाई में माइकल महान नहीं हैं क्‍योंकि अगर ऐसा हुआ तो महानता की परिभाषा बदल जाएगी। विवादों से गहरा नाता रखने वाला माइकल कभी भी किसी का नहीं हुआ उसने जो कुछ किया वह अपने स्‍वार्थ के लिए। अपनी अय़याशियों के लिए पैसे पानी की तरह बहाए। आज जब माइकल मरा तो वह कर्ज के बोझ तले दबा हुआ था। मैं नहीं मानता माइकल के जाने से संगीत जगत को कोई क्षति हुई है। पर इस घटना से मुझे एक बात समझ में आ गई है कि आदमी जितना बडा होता जाता है अंधविश्‍वास उसकी सबसे बडी दोस्‍त बनती जाती है जो बाद में बर्बादी का कारण बनती है। ईश्‍वर है बस यही सच है कोई भी इस जगत में ऐसा नहीं है जो तंत्र मंत्र के सहारे आपका कुछ बिगाड सकता है। अगर तुम अपने अंदर के ईश्‍वर को नहीं पहचानोगे तो जिंदगी इस बिखर जाएगी कि उसे समेटना मुश्किल हो जाएगा। सबसे बडा सत्‍य यही है कि संगीत का बेताज बादशाह भूखों मर गया। मरने के बाद उसने दुनिया में कमाया तो वह बदनामी और बडा सा कर्ज। अगर पुराणों की बातों पर भरोसा किया जाए तो जैक्‍सन को गधा बनकर यह कर्ज उतारना ही पडेगा। यह संसार है जो यहां आया है वह जाएगा।

बीहड़ टूरिज्म हमारे साथ

बीहड़ के बारे में मन में बैठ चुके डर को दूर करने के लिए यह मेरा प्रोफेशनल प्रयास है। वह जो बीहड़ को नजदीक से देखना चाहते हैं। उसमें घूमना चाहते हैं। पुराने बागियों से मुलाकात की इच्छा रखते हैं और बीहड़ के एडवेंचर को जीने की इच्छा है। वह मुझसे मोबाइल नंबर 9456073566 पर संपर्क कर सकते हैं।

तूफ़ानों से अपनी यारी है......




ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है



बारहा* डूबते-डूबते बचे हैं * बार-बार
बारहा मौजों में क़श्ती उतारी है

अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है...



आसमां तो फिर भी आसमां है
अब तो आसमां से भी आगे जाने की तैयारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है.....



जिसे चाहे अपना बना लें,
जिसे चाहे दिल से लगा लें,
इसे मेरा जुनून समझो या समझो कोई बीमारी है..

ज़िंदगी तूफ़ानों में बीती सारी है
अब तो तूफ़ानों से अपनी यारी है.............




-पुनीत भारद्वाज
http://teer-e-nazar.blogspot.com/

28.6.09

आलोक तोमर के विरोधियों के नाम खुला पत्र

इधर मक्कारों के मोहल्ले में कई नामचीन पत्रकारों पर कीचड़ उछालने की कवायद के तहत मशहूर पत्रकार और देश के नामचीन रिपोर्टर आलोक तोमर को निशाना बनाया गया, दरअसल विस्फोट नामके ब्लॉग पर किन्ही आशीष अग्रवाल नामके सज्जन की रिपोर्ट को आलोक जी ने अपनी साईट डेट लाइन इंडिया में छाप दिया था, ऐसा उन्होंने किसी आर्थिक फायदे के लिए नही बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक एक बेहतर ख़बर को पहुंचाने की ललक और गरज के चलते किया था, चूँकि विस्फोट में बहुत साफ़ लिखा है की सर्वाधिकार अ ( सुरक्षित) यानी जनहित में विस्फोट पर छापी ख़बर का कोई भी भलामानुष इस्तेमाल कर सकता है, दुनिया जानती है विस्फोट के मार्गदर्शक संजय तिवारी जी बिना किसी आर्थिक फायदे के हित को केन्द्र में रखकर विस्फोट को चला रहे हैं,
आलोक जी ने भी अपनी कई बेहतरीन खबरें बिना किसी फायदे के विस्फोट पर लिखी, विस्फोट एक जैसे विचार और सोच रखने वाले लोगों का साझा मंच है, जिस ख़बर की चोरी करने का बेहूदा और घटिया आरोप पत्रकार आलोक तोमर पर लगाया जा रहा है उसके लेखक आशीष अग्रवाल न इतने बड़े पत्रकार हैं और न ही उनका लेख इस कदर उम्दा था की उसे चोरी करने की जरुरत पत्रकार आलोक तोमर को पड़ती, जिस पत्रकार की खबरों पर सत्ता और सत्तासीनों की कुर्सिया हिल गई और आज भी पत्रकार से लेकर तोमर को जानने
वाले उनके जुझारूपन और ख़बर के लिए जूझ जाने के जज्बे के कायल हैं क्या उस पत्रकार के लिए अपने किसी मित्र से कहकर किसी भी किस्म की ख़बर लिखवाना कोई बड़ा काम था, आलोक जी मुझ जैसे किसी भी जूनियर से कह भर देते और आशीष अग्रवाल से हजार गुना बेहतर ख़बर उनकी मेज पर पटक देने में शायद हम में से कोई भी एक पल की भी देर लगाता, आलोक जी के मीडिया में दुश्मन भी कम नही हैं लेकिन सच ये भी है की उनको चाहने वाले भी कुछ कम नही है, जिस पत्रकार को प्रभाष जोशी जी जैसा समर्पित पत्रकार बड़े गर्व और अदब से अपना शानदार शिष्य बताता है क्या उस पत्रकार को एक बेहद से गुमनाम पत्रकार की ख़बर चुराने की कोई जरुरत है, और खासकर तब जब ऐसे एक भी कदम से उस नामचीन पत्रकार पर एक बेहद घटिया आरोप लगने का खतरा भी मौजूद है, न तो आलोक तोमर इतने नासमझ हैं और ना दुनिया , आलोक जी से संवाद में यही बात साफ़ हुयी की सिर्फ़ लोगों को बेहतर ख़बर पदाने और उससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को परिचित कराने की गरज से उन्होंने ख़बर विस्फोट डॉट कॉम से लेकर डेट लाइन इंडिया पर छापी, विस्फोट पर बिना किसी आर्थिक फायदे के आलोक जी लिखते रहे हैं और जिस किस्म की पत्रकारिता संजय तिवारी और आलोक तोमर कर रहे हैं उसमे ख़बर का मतलब किसी को ब्लैक मेल करना या पैसा कमाना नही बल्कि सरोकारों को आगे करके लोगों में सही ग़लत का फर्क पैदा करने की कोशिश करना है, लेकिन अफ़सोस की एक बेहद शानदार पत्रकार पर उस इंसान ने कीचड़ फेंक दिया जिसका ख़ुद का चरित्र दागदार और विवादों से भरपूर रहा है, जिसे बाकायदा एक टीवी चैनल, अखबार और ना जाने कितने संस्थानों से मुहीम चलाकर निकाला गया, सस्ती और घटिया लोकप्रियता पाने के लिए ऊल जुलूल हरकतें करना जिसका पेशा हो उस बाजारू और ख़ुद को पत्रकार कहलाने वाले लम्पट को कोई सजा नही दे सकता,
इधर कई दिनों से देख रहा हूँ की अब आलोचना भी फायदा नुक्सान सोच समझकर लोग कर रहे हैं, चूँकि म्रणाल पाण्डेय, शशि शेखर, दीपक चौरसिया और इन जैसे तमाम लोग जो या तो नौकरी देने की हैसियत में हैं या फिर किसी भी पत्रकार का खेल बना या बिगाड़ सकते हैं इनके तमाम स्याह और सफ़ेद कामों पर कोई ऊँगली नही उठा रहा वजह क्यूंकि सबको
अपने भविष्य की फिकर है, आदरणीय म्रणाल जी के कई स्याह कामों के ख़िलाफ़ और कई पत्रकारिता संस्थानों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए यशवंत सिंह हैं क्यूंकि उनको किसी के दरवाजे पर नौकरी पाने नही जाना है, संजय तिवारी हैं क्यूंकि उन्होंने अपने हित के लिए सोचा ही नही, आज जिस मंच पर देखिये हर घिसा पिता ऐरु-गैरू पत्रकार प्रभाष जोशी जी को गरिया देता है, एक साथी हैं ब्रजेश सिंह उन्होंने तो बाकायदा प्रभाष जी के सरोकारों पर ही ऊँगली उठा दी और पत्रकार आलोक तोमर के पत्रकारिता के लिए किए गए बलिदान ( तिहाड़ जेल में कैद होने को) को ही निशाना बना दिया और बेहद
सतहीऔर हलके तरीके से उनपर आरोप लगा दिया
जो काम आलोक तोमर के सिवाय कोई पत्रकार नही कर सका उसे बजाय
सम्मान देने के इसलिए कठघरे में खड़ा कर दिया गया क्यूंकि आलोक तोमर न किसी गुट में हैं और ना किसी मठ के मठा धीश, शायद इसीलिए हर ऐरा गैरा एक बेहद सम्मानित साथी को और उसके काम को सलाम करने के बजाय उसे सिर्फ़ इस बिना पर आलोचना की सूली पर चढ़ा देता है क्यूंकि इनकी आलोचना करने से एक तो करियर के लिहाज से कोई खतरा नही रहेगा और दूसरा बड़े पत्रकार के ख़िलाफ़ कुछ भी बोल देने से अपना भी थोड़ा बहुत प्रचार हो जाएगा,
आलोक तोमर जी पर लगाये गए मौजूदा आरोपों को इसी प्रसंग में देखा जाना चाहिए, और एक सवाल भी उन लोगों से पूछा जाना चाहिए की भैय्या क्या आपका कद इतना बड़ा हो गया है की आप प्रभाष जी और आलोक तोमर जैसे पत्रकारों पर ऊँगली उठा सकें, या फिर आपको बाकी पत्रकारों की काली करतूतें नजर नही आती, कहते हैं आलोचना करना दुनिया का सबसे आसान काम है, और बेहतर समाज की रचना करने का दावा करने वाले अपने से बुजुर्ग और सीनियर साथियों के प्रति शिष्टाचार की बुनियादी चीजों का ख़याल तक आलोचना करने के दौरान नही रख सकते क्या उनको पत्रकार कहलाये जाने का हक है, चुपचाप और शालीन पत्रकारिता करनेवाले अभिलाष खांडेकर जैसे पत्रकार पर सिर्फ़ इसलिए कीचड़ उछाल दिया जाता है क्यूंकि उन्होंने एक उस पत्रकार को संस्थान से बाहर का रास्ता दिखाने में एक पल की भी देर नही लगाई जिसने पत्रकारिता की छात्रा को बेहतर पत्रकार का सबक सिखाने के बजाय ऐसा सबक दिया जिससे शायद एक कॉम के प्रति ही विरक्ति का भाव भर दिया होगा
तथ्यों के साथ, सुबूतों के साथ और पत्रकारिता के स्याह सफ़ेद को सामने लाने की गरज रखने वाले हर पत्रकार के सवाल और आलोचना का स्वागत होना चाहिए लेकिन क्या आपने एक साईट खोल ली और स्पेस बुक करा लिया तो उसका बेजा इस्तेमाल की इजाजत किसी को दी जानी चाहिए, प्रसंग आलोक तोमर पर बेवजह कीचड़ उछालने का है, उनका उस दौर से प्रसंशक हूँ जब चड्ढी पहननी भी कायदे से नही आती थी, मैं ही नही एक पूरी पीड़ी एस पी, राजदीप, प्रभाष जी और आलोक तोमर की दीवानी है, लेकिन उनपर बेहद घटिया आरोप लगाने वालों को क्या वेब बिरादरी से बाहर का रास्ता नही दिखा देना चाहिए।
जिन आशीष अग्रवाल ने अपनी रपट चुराने का रोना रोया है उनसे विनम्रता से एक सवाल पूछता हूँ की क्या आपने इस सिलसिले में आलोक तोमर पर आरोप लगाने से पहले कोई संवाद किया था, क्या आलोक तोमर के प्रशंषकों की लम्बी लिस्ट को देखते हुए भी आपके मन में कोई भ्रम था की बजाय आप जैसे अनजान आदमी की ख़बर चुराने के वह अपने किसी जूनियर से एक इशारे भर पर सैकड़ों बेहतर खबरें तैयार करा सकते थे, डेट लाइन इंडिया जिसका कोई आर्थिक सरोकार नही है, बकौल आलोक जी वह सिर्फ़ लिखने की आलोक तोमर की क्षुधा को शांत करने का एक माध्यम भर है उस पर आपका हाय तौबा मचाना कितना उचित है, बंधू आपकी थ्योरी में कई पेंच हैं जो आपके इरादे पर शक करने का मौका देते हैं,
दूसरो को बेहतरी और भलमनसाहत के पाठ पदाने वाले पत्रकारों का अपने बुजुर्गों की छीछालेदर करना, आने वाली पीड़ी को कौन सा बेहतर सबक दे रही है, पता नही इसका जवाब कितने पत्रकारों के पास होगा,
इस प्रसंग से सिर्फ़ हम नए पत्रकारों को सबक लेना चाहिए की कीचड़ उछालू पत्रकारिता से बचिए मेरे दोस्त वरना नई पौध हमें सिवाय गालियों के और कुछ नही देगी, कहते हैं जैसा बोते हैं वैसा ही काटते हैं, अगर अपने बुजुर्गों पर बेसबब और बेवजह गालियाँ बरसाएंगे तो यकीन जानिए नई पौध आप पर
जूते भी बरसा सकती है और तब आपके पास ये कहने के लिए भी नही बचेगा की तुमको मैंने ऐसे संस्कार तो नही दिए थे
( तो भाई ब्रजेश जी, आशीष जी और उस आरोप लगाने का खेल खेलनेवाले शख्स से यही निवेदन है की बुजुर्गों के कद और काम को अपने कद और काम से पीछे छोड़ दीजिये फिर आपकी हर आलोचना बड़े गौर से और ध्यान लगाकर सुनी जायेगी, उम्मीद है बात समझ में आएगी)
हृदयेंद्र

कोहिनूर की ग्वालियर से लन्दन तक की यात्रा

पानीपत मे सुलतान इब्राहीम लोधी को पराजित करने के बाद बाबर को दिल्ली तथा आगरा पर कब्जा करने के लिए युद्ध नही करना पड़ा !हुमायूं सेना लेकर जब दिल्ली पंहुचा तो किसी ने उसका विरोध नही किया ,यहाँ तक की लोधी सल्तनत की राजधानी आगरा पर भी बाबर का युद्ध के बिना ही कब्जा हो गया !इस तरह फरगाना और बुखारा की सत्ता से बेदखल किया गया जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर बहुत आसानी से हिंदुस्तान का बादशाह बन गया !हिंदुस्तान की बदशाहद पूरी पाने के लिए उसे हसन खान मेवाती से घमासान युद्ध करना पड़ा !हालाकिं बीस हजार सेना के साथ हसन खा मेवाती शहीद हो गया ,लेकिन उसने बाबर की सेना के छक्के छुडा दिए थे !इसके तत्काल बाद सबसे भीषण युद्ध भरतपुर के खान्वाहा मैदान में चित्तोड़ के महाराणा संग्राम सिंह के साथ बाबर को युद्ध करना पड़ा !अपने लोगो की दगा बाजी के कारण राणा सांगा युद्ध तो हार गये लेकिन बाबर भी यह समझ गया की उसे भविष्य में किस तरह के संकटो का सामना करना पड़ सकता है !ग्वालियर की महारानी द्वारा बाबर को भेंट किय गया कोहिनूर हीरा तोमर राजाओं को कहाँ से और केसे मिला इस बारे में इतिहास मौन है !कोहिनूर की चर्चा सन १५२६ इस्वी से ही शुरू होती है !उस समय इस हीरे कीजो कीमत आकीं गयी थी वह इतनी थी की उस समय की इस्लामी दुनिया तीन दिन तक बढ़िया भोजन कर सकती थी !नवरत्नों में हीरा राजा माना जाता रहा है !लेकिन कोहिनूर हीरों का भी महाराजा था !सन १७२९ इस्वी में ब्राजील में हीरा मिलने से पहले यही माना जाता था की हीरा सिर्फ़ भारत में ही मिलता है !मध्य प्रदेश का पन्ना हीरो की खान के लिए आज भी जगप्रसिद्ध है !कोहिनूर
हीरे ने इतिहास में कई उलट पुलट कराई है !यह नेकनामी और बदनामी दोनों अपने साथ समेटे हुए है !इस नायाब हीरे पर मानब रक्त के इतने छींटे है इसकी गिनती नही की जा सकती !इसे पाने के लिए कई बार घमासान युद्ध हुए और तख्त ताज बदल गये !राजमुकुतों की शोभा बदाता हुआ कोहिनूर हीरे का एक टुकडा इस समय ब्रिटेन की महारानी के राजमुकुट पर बिराजमान है !कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के शासन की बर्बादी का कारन बना तो इसने मुग़ल साम्राज्य को भी एक तरह से ध्वस्त कर दिया !(जारी )






27.6.09

मीडिया में एक्टिव लोगों के लिए यह ख़बर निसंदेह किसी खुशखबरी से कम नहीं की, मिनिस्ट्री ऑफ़ आई बी ने २२ नए चैंनलों को मंजूरी दे दी है। कम से कम मंदी के दौर में बेरोजगार हुए कुछ पत्रकार नया जॉब पा जायेंगे। लगता है प्रणब दा का बजट मीडिया सेक्टर को कुछ राहत देगा। अब तक तो जिस किसी से बात करो, मंदी का रोना रोने लगता है। गुजरी अक्टूबर से मंदी का जो खौफनाक रूप पत्रकारों ने देखा है, वह याद रखा जाएगा। न जाने कितने पत्रकार इस दौर में उस घड़ी को कोसने लगे जिस दिन उन्होंने इस पेशे को अपनाया था। हाल के वर्षों में पत्रकारिता तो उद्योग बन गई लेकिन हिन्दी के पत्रकार जहाँ के तहां रह गए। उम्मीद करना चाहिए की दिन बदलेंगे, भले ही देर हो जाए।

लो क सं घ र्ष !: मुंद जाते पहुनाई से


परिवर्तन नियम समर्पित ,
झुककर मिलना फिर जाना।
आंखों की बोली मिलती ,
तो संधि उलझते जाना॥

संध्या तो अपने रंग में,
अम्बर को ही रंग देती।
ब्रीङा की तेरी लाली,
निज में संचित कर लेती॥

अनगिनत प्रश्न करता हूँ,
अंतस की परछाई से।
निर्लिप्त नयन हंस-हंस कर,
मुंद जाते पहुनाई से ॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

लो क सं घ र्ष !: संघी कारसेवको से कांग्रेस को बचाएँ राहुल -2

वास्तव में कांग्रेस में अपना आशियाना बनाकर आगे अपनी पार्टी को शक्ति एवं उर्जा देने की भाजपा की परम्परा रही है। वर्ष 1980 में जब उस ज़माने के कांग्रेसी युवराज संजय गाँधी के अनुभवहीन कंधो की सवारी करके कांग्रेस अपनी वापसी कर रही थी और दोहरी सदाशयता का दंश झेल रहे भाज्पैयो को अपनी डूबती नैय्या के उबरने का कोई रास्ता नही सूझ रहा था तो संजय गाँधी द्वारा बने जा रही युवक कांग्रेस में अपने कार्यकर्ताओ को गुप्त निर्देश भाजपा के थिंक टैंक आर.एस.एस के दिग्गजों द्वारा देकर उन्हें कांग्रेस में दाखिल होने की हरी झंडी दी गई। परिणाम स्वरूप आर.एस.एस के नवयुवक काली टोपी उतार कर सफ़ेद टोपी धारण कर लाखो की संख्या में दाखिल हो गए। कांग्रेस तो अपने पतन से उदय की ओर चल पड़ी , मगर कांग्रेस के अन्दर छुपे आर.एस.एस के कारसेवक अपना काम करते रहे और इन्हे निर्देश इनके आकाओं से बराबर मिलता रहा । यह काम आर.एस.एस ने इतनी चतुराई से किया की राजनीती चतुर खिलाडी और राजनितिक दुदार्शिता की अचूक सुझबुझ रखने वाली तथा अपने शत्रुवो पर सदैव आक्रामक प्रहार करने वाली इंदिरा गाँधी भी अपने घर के अन्दर छुपे इन भितार्घतियो को पहचान न सकी। इसका एक मुख्य कारण उनका पुत्रमोह भी था परन्तु संजय गाँधी के एक हवाई हादसे में मृत्यु के पश्चात इंदिरा गाँधी ने जब युवक कांग्रेस की सुधि ली और उसके क्रिया कलापों की पर गहरी नजर डाली तो उन्हें इस बात का अनुमान लगा की कही दाल में काला जरूर है । बताते है की इंदिरा गाँधी युवक कांग्रेस की स्क्रीनिंग करने की योजना बनाकर उस पर अमल करने ही वाली थी की उनकी हत्या १९८४ में उन्ही के सुरक्षागार्ङों द्वारा करा दी गई । उसके बाद हिंसा का जो तांडव दिल्ली से लेकर कानपूर व उत्तर प्रदेश के कई नगरो में सिक्ख समुदाय के विरूद्व हुआ उसमें यह साफ़ साबित हो गया की आर.एस.एस अपने मंसुबू पर कितनी कामयाबी के साथ काम कर रही है। राजीव गाँधी ,जो अपने भाई संजय की अकश्मित मौत के पश्चात बेमन से राजनीती में अपनी मान की इच्छा का पालन करने आए थे, जब तक कुछ समझ पाते हजारो सिक्खों की लाशें बिछ चुकी थी करोङो की उनकी संपत्ति या तो स्वाहा की जा चुकी थी या लूटी जा चुकी थी । लोगो ने अपनी आंखों से हिन्दुत्ववादी शक्तियों को कांग्रेसियों के भेष में हिंसा करते देखा , जिन्हें बाकायदा दिशा निर्देश देकर उनके आका संचालित कर रहे थे । सिखों को अपने ही देश में अपने ही उन देशवासियों द्वारा इस प्रकार के सुलुक की उम्मीद कभी न थी क्योंकि सिख समुदाय के बारे में टू इतिहास यह बताता है की उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए ही शास्त्र धारण किए थे और विदेशी हमलावरों से लोहा लिया था । देश में जब कभी मुसलमानों के विरूद्व आर.एस.एस द्वारा सांप्रदायिक मानसिकता से उनका नरसंहार किया गया तो सिख समुदाय को मार्शल फोर्स के तौर पर प्रयुक्त भी किया गया ।

राजीव गाँधी ने अपने शांतिपूर्ण एवं शालीन स्वभाव से हिंसा पर नियंत्रण तो कर लिया परन्तु एक समुदाय को लंबे समय के लिए कांग्रेस से दूर करने के अपने मंसूबो को बड़ी ही कामयाबी के साथ आर.एस.एस अंजाम दे चुकी थी । देश में अराजकता का माहौल बनने में अहम् भूमिका निभाने वाले आर.एस.एस के लोगो ने अब अवसर को उचित जान कर उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश व राजस्थान को अपना लक्ष्य बना कर वहां साम्प्रदायिकता का विष घोलना शुरू किया और धीरे-धीरे इन प्रदेशो में मौजूद कांग्रेसी हुकुमतो को धराशाई करना भी शुरू कर दिया।

फिर राजीव गाँधी से एक भूल हो गई वह यह की 1989 में नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें यह सलाह दी की हिंदू भावनाओ को ध्यान में रखते हुए अयोध्या से ही लोकसभा चुनाव की मुहीम का गाज किया जाए और भाजपा व विश्व हिंदू परिषद् के हाथ से राम मन्दिर की बागडोर छीन कर मन्दिर का शिलान्याश विवादित परिषर के बहार करा दिया जाए। यह सलाह आर.एस.एस ने अपनी सोची समझी राद्निती के तहत कांग्रेस के अन्दर बैठे अपने कारसेवको के जरिये ही राजीव गाँधी के दिमाग में ङलवाई थी । नतीजा इसका उल्टा हुआ , 1989 के आम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल उत्तर प्रदेश में चारो खाने चित्त हुई बल्कि पूरे उत्तर भारत, मध्य भारत, राजस्थान व गुजरात में उसकी सत्ता डोल गई और भाजपा के हिंदुत्व का शंखनाद पूरे देश में होने लगा । अपने पक्ष में बने माहौल से उत्साहित होकर लाल कृष्ण अडवानी जी सोमनाथ से एक रथ पर सवार होकर हिंदुत्व की अलख पूरे देश में जगाने निकल पड़े। अयोध्या तक तो वह न पहुँच पाये, इससे पहले ही बिहार में उनको गिरफ्तार कर लालू, जो उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे, ने उन्हें एक गेस्ट हाउस में नजरबन्द कर दिया । उधर अडवानी जी की गिरफ्तारी से उत्तेजित हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने पूरे देश में महौल गर्म कर साम्प्रदायिकता का जहर खूब बढ़-चढ़ कर घोल डाला , इस कार्य में उन्हें भरपूर समर्थन उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सहाबुद्दीन , इलियाश अहमद आजमी व मौलाना अब्दुल्ला बुखारी जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के आग उगलते हुए भासनो से मिला।

क्रमश:
-तारीक खान

देयर मस्ट बी मोर टु लाइफ दैन दिस...



सब कुछ धुआं-धुआं लगने लगा,
कोई अपना प्यारा जो खो गया?
ऐसी भी क्या नाराजगी थी यारो,
जो खुशनुमा आलम को बिखेर गया..


फर्श से अर्श की और जाने और फिर अर्श से फर्श की ओर लौटने का सफर तय करते-करते पॉप की दुनिया का नायाब सितारा अचानक से औझल हो गया। अपने पॉप गायिकी के जादू से प्रशंसकों के दिल पर राज करने वाले माइकल जैक्सन बिना ब्रेक(डांस) लिए चल दिए, एक बार सोचा तक नहीं कि मेरे चाहने वालों का क्या होगा? खैर उन्होंने ये बात पहले ही समझ ली थी और फ्रैंडी मरकरी के साथ डुएट गाया था। पता नहीं ये गीत रिलीज क्यों नहीं हुआ, पर इस गीत के बोल --देयर मस्ट बी मोर टु लाइफ दैन दिस... इस बात का संकेत दे रहे हैं कि माइकल को आभास हो चुका था कि उन्हें बहुत जल्द विदा लेनी है।

माइकल जैक्सन ने अपने जीवन से बहुत कुछ सीखा और हम जैसे साधारण लोगों को बहुत कुछ सिखाया भी। उनके एलबम हील द वर्ल्ड .. को जब भी सुनो, लगता है कि दर्द से ऊपर उठने को कह रहा है कोई। जितनी बार भी इसकी लिरिक्स को सुना, लगा दर्द की मरहम सिर्फ प्यार है, अपनापन है। मगर दुनिया को प्यार की सीख देने वाला खुद प्यार से मरहूम रहा ।
जैक्सन अपने गाने रॉक विद यू...करते रहे..अपने गम को छिपाने के लिए, कर्ज के बोझ से उबरने के लिए मशक्कत के रूप में बर्न दिस डिस्को आउट...करते रहे, पर स्पीड डिमोन (मृत्यु) के आगोश में उनका क्रिलर थम गया...
और वे लीव मी अलोन....कहते-कहते चले गए, डॉक्टरों को कोई मौका नहीं मिला उन्हें बचाने का..

किंग ऑफ पॉप माइकल जैक्सन के निधन की खबर से उनके मिलने-जुलने वालों को एक झटका जरूर लगा। कोरियोग्राफर फराह खान की तमन्ना पूरी न हो सकेगी, क्योंकि उन्होंने सोच रखा था कि वे जैक्सन को कोरियोग्राफ कर अपने करियर से टा-टा-बाय-बाय कहेंगी, पर वे जैक्सन की आवाज..रिमेमबर द टाइम... न सुन सकी, न समझ सकीं। उन्हें अपना गुरु मानने वाली फराह को निधन की खबर तब लगी, जब वे लॉस एंजेलिस में फिल्म माय नेम इज खान की शूटिंग के सिलसिले में शाहरुख से मिलने गई थीं। फराह ने डांस का कहीं से प्रशिक्षण नहीं लिया, उन्होंने इस बात का जिक्र अपने कई इंटरव्यू में भी किया है। उन्होंने हमेशा कहा-मैंने जो कुछ सीखा, वह माइकल जैक्सन के वीडियो और विशेषकर थ्रिलर से सीखा है।

1996 में मुंबई में आयोजित जैक्सन का लाइव कन्सर्ट उनके फैन्स न भूले हैं, न भूल पाएंगे। फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की अविस्मरणीय यादें माइकल के इस कन्सर्ट से जुड़ी हैं। माइकल जैक्सन का जीवन भी ब्लैक एंड व्हाइट.. गीत की तरह ही था। पॉप का बादशाह कहलाना वाला अपने प्रशंसकों को छोड़ गया, पर उनके प्रशंसक उनके ही फेवरेट सॉन्ग आई जस्ट कान्ट स्टॉप लविंग यू...´ गुनगुनाते रहेंगे।

लो क सं घ र्ष !: छाया पड़ती हो विधु पर...


खुले अधर थे शांत नयन,
तर्जनी टिकी थी चिवु पर।
ज्यों प्रेम जलधि में चिन्मय,
छाया पड़ती हो विधु पर॥

है रीती निराली इनकी ,
जाने किस पर आ जाए।
है उचित , कहाँ अनुचित है?
आँखें न भेद कर पाये॥

अधखुले नयन थे ऐसे,
प्रात: नीरज हो जैसे।
चितवन के पर उड़ते हो,
पर भ्रमर बंधा हो जैसे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल "राही"

26.6.09

अमेरिका की खुली चमचागिरी है न्‍यूयार्क

इरफान खान के इस मूवी के डायलॉग हमेशा सही बताने में लगे रहे कि अमेरिका कितना अच्‍छा देश है। बीच-बीच संवादों को संतुलित करने के लिए उन्‍होंने यह बात भी स्‍वीकार की अमेरिका ने कई बडी गलतियां की हैं। पर इसके अलावा इस मूवी में एक बात ही समझ में आई कि इस मूवी का निर्माण आदित्‍य ने सिर्फ यह बताने के लिए किया कि अमेरिका में वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद 12 सौ मुसलमानों पर एफबीआई ने जुर्म ढाए थे जिन पर सभी आरोप बाद में खारिज हो गए थे। यह ऐसी बात है जिसे इंटरनेट के माध्‍यम से हर कोई जानता है पर मूवी समाप्‍त होने पर यह संदेश दिखता है। इस मूवी में कहीं रोमांच दिखता हो यह याद नहीं आता क्‍योंकि सभी को पता था कि न्‍यूयॉर्क की एफबीआई बिल्डिंग को जान अब्राहम नहीं उडाएंगें। पर मुझे इस बात पर काफी गुस्‍सा आया कि जब जान यानी की समीर को गोली लगी तो निर्देशक कबीर खान साथ में कटरीना यानी की माया को क्‍यूं मरवा दिया। वो जिंदा रहती तो कम से कम दर्शक यह तो कह पाते चलो अच्‍छा हुआ नील नितिन मुकेश को उसका प्‍यार वापस मिल गया भले ही वह एक बच्‍चे के साथ मिला। पर मूवी के अंत में नील को ढेर सारे संघर्षों के बाद अपनी प्रेमिका का बच्‍चा मिलता है। इस मूवी को जिस वर्ग को ध्‍यान में रखकर बनाया गया है वह पढा लिखा तपका है इसलिए अंग्रेजी के संवादों की कमी नहीं है। हिंदी जानने वालों के लिए ट्रिकर का प्रयोग किया गया है पर वह उतना प्रभावशाली नहीं है। जान ने अपनी भूमिका को सजीव बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोडी है। नील और कटरीना की भूमिका औसत है। न्‍यूयार्क का कोई ऐसा संवाद नहीं जिस पर हंसी आती हो पर कहीं-कहीं हास्‍य के पुट डालने की कोशिश जरूर लगती है। उदाहरण के लिए जब इरफान नील को कुछ माइक्रोफोन देता है और नील उसे पटक देता है इस पर इरफान कहता है कि तुम इसे पटके बिना भी अपनी बात कह सकते थे। अगर संगीत की बात की जाए तो जुबान पर कोई गाना याद नहीं आता। जिस हाल में मैंने यह मूवी देखी वहां के दर्शक कलाकारों से अधिक प्रतिभाशाली थे। एक द्रष्‍य में जब इरफान को यह बताता है कि माया यानी की कटरीना की शादी हो गई है और उसके एक तीन साल का बच्‍चा भी है। इस पर दर्शकों की प्रतिक्रिया थी, साला मामू बन गया। अब मजे कर। कुल मिलाकर इस मूवी में ऐसा कुछ नहीं है जिसे दर्शक पसंद करें। अगर अमेरिका की बहादुरी देखनी है उसकी तारीफ सुननी है तो जरूर इस मूवी को देखें।

ग्वालियर में अपराधियों का बोलबाला

ग्वालियर शहर में अपराधियों का किस कदर बोलबाला हे इसका इस घटना से अंदाजा लगाया जा सकता हे की आज रात में चेकिंग के दोरान जब पुलिस ने सफेद रंग की एस्टीम गाड़ी को रोकना चाह तो उसमे सवार लोगों ने फायर ठोक दिया जिसमे तीन पुलिस कर्मी घायल हो गए ।भाजपा सरकार की जनता को सुरछा देने वाली बात पूरी तरह मजाक साबित हो रही हे।

इन दिनों सहर की काननों व्यवस्था की धज्जिया उड़ गयीं हें। अफसरों के तबादलों से भी कोई फर्क नही पड़ा। अपराधियों का बोलबाला हे,आम नागरिक परेशान हें,आए दिन चोरी,डकेती की घटना आम बात हो गई हे। भाजपा सरकार अपराधियों की नाक में नकेल डालने में नाकाम साबित हो रही हे प्रदेश के होम मिनिस्टर ग्वालियर से होने के बाद भी हालत यह हें। अभी तक तो जो था सो था लकिन २५ जून को रात की घटना से तो अपराधियों के होसले और अधिक बुलंद हो गए हूंगे जो लोग पुलिस पर ही फिरे कर सकते हें तो आम नागरिक का क्या होगा? जिस गाड़ी में अपराधी थे बताया जाता हे उसमे एक क्विंटल से अधिक नशीला सामान बरामद किया गया हे।

लो क सं घ र्ष !: संघी कारसेवको से कांग्रेस को बचाएँ राहुल

दो दशक पश्चात उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का बनवास समाप्ति की पि अल पुनिया को मिली ऐतेहासिक जीता । में भाजपा वोट बैंक-मुस्लिम, दलित व ब्राहमण को कदम एक बार फिर उसकी और मुड रहे है । कांग्रेसी अपनी इस सफलता पर फूले नही समां रहे है ,परन्तु साथ ही आर.एस.एस नाम का एक घटक वायरस दबे पाँव कांग्रेस को स्वस्थ होते शरीर में दोबारा पेवस्त हो रहा है , यदि कांग्रेस हाईकमान समय से न जागा और केवल सत्ता प्राप्ति को नशे में चूर आँखें बंद करके ऐसे तत्वों को पार्टी में दाखिले पर रोक न लगे तो कांग्रेस का हश्र वाही होगा जैसा की नब्बे को दशक में हुआ था की न राम मिला न रहीम और अंत में ब्याज को रूप में दरिद्र नारायण भी उससे रूठ गए।

15 वी लोकसभा चुनाव में जहाँ कांग्रेस को पूरे देश में अद्वितीय सफलता हाथ लगी है , तो वही देश की राजनीति का makka कहे जाने वाले prant उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने दो दशक उपरांत अपने अच्छे दिनों की वापसी को संकेत भी दे दिए है। उसने 21 सीटें प्राप्त करके समाजवादी पार्टी को बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी को रूप में अपना स्थान बनाया है । जबकि प्रधानमन्त्री का सपना अपनी आँखों में संजोये सुश्री मायावती को २० सीटो को साथ तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा और पी.एम इन वेटिंग की पार्टी भाजपा को चौथा स्थान उस प्रान्त में प्राप्त हुआ जहाँ उन्हें नब्बे को दशक को प्रारम्भ में सत्ता प्राप्ति की चाभी मिली थी।

कांग्रेस की इस जीत का सेहरा यद्यपि कांग्रेसी अपने युवा कमांडर राहुल गाँधी के सर बाँध रहे है । परन्तु क्या अकेले राहुल गाँधी के करिश्माती व्यक्तित्व के चलते कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता में यह उछाल आया है ? इस प्रश्न पर विचार करना अति महत्वपूर्ण है।

कांग्रेस को जो सफलता इस बार के संसदीय चुनाव में मिली है उसका यदि गंभीरता से विश्लेषण किया जाए टू हम पाते है की जहाँ-जहाँ भाजपा हाशिये पर सिमट गई है वहीं कांग्रेस को सफलता अधिक प्राप्त हुई है । सुल्तानपुर की सीट पर बाष्प के मुस्लिम उम्मीदवार ताहिर खान के जितने की प्रबल आशा थी परन्तु ज्यों - ज्यों चुनाव आगे बढ़ा कांग्रेसी उम्मीदवार संजय सिंह की स्तिथि मजबूत होती गई । इसका मुख्य कारण है भाजपा का सिमट जाना। इसी प्रकार बाराबंकी सीट पर पी.एल पुनिया को मिली ऐतिहशिक जीत में भाजपा के वोटो का उनकी और स्विंग होना मुख्य कारण रहा , कांग्रेस को २५ वर्ष बाद यह सीट दिलाने में ,तो वहीं भाजपा के लिए सदैव प्रतिष्ठा की रह मानी जाने वाली फैजाबाद सीट पर भी भाजपा का दुर्गत बन गई और लल्लू सिंह को तीसरा स्थान मिला कांग्रेस का निर्मल खत्री ने जमाने का बाद यहाँ कांग्रेस का तिरंगा लहराया उनकी जीत यहाँ और दरियाबाद रुदौली विधान सभाओ का मुस्लिम वोटो का समर्थन उनके पास था तो वहीं अयोध्या समेत अन्य भाजपा का गढ़ वाले क्षेत्रो से भी निर्मल खत्री को अपार समर्थन मिला इसी तरह, श्रावस्ती बहराइच की सीटें जो कांग्रेस जीती तो उसमें भी मुख्य भूमिका आर.एस.एस वोटो की थी यहाँ तक की गोंडा की सीट बेनी बाबू ने यहाँ तेज़ कर दिया होता और उसके जवाब में हिंदू वोटो का ध्रुवीकरण बेनी बाबू की और हुआ होता टू कांग्रेस को यह सीट कदापि मिलती

सपा से या बसपा से सीधी लडाई में कांग्रेस थी और भाजपा का उम्मीदवार कमजोर था भाजपा का वोट कांग्रेस के पक्ष में स्विंग हुआ, चाहे वह कुशीनगर की सीट रही हो या डुमरियागंज की, चाहे वह झाँसी की सीट रही हो या प्रतापगढ़ कीकेवल रामपुर एक ऐसे सीट थी जहाँ सपा के पक्ष में भाजपा का वोट स्विंग हो गया और जो जयाप्रदा पूरे चुनाव भर आंसुओं से रोती रही वह अन्त्तोगोत्वा विजयी होकर अब मुस्कुरा रही हैयहाँ गौरतलब बात है की भाजपा के राष्ट्रिय महासचिव मुख्तार अब्बास नकवी की जमानत तक जब्त हो गईउन्हें शर्मनाक शिकस्त का का सामना करना पड़ावह पार्टी जिसको भाजपा अपना शत्रु नम्बर 1 मानती रही और उसके पक्ष में अपना वोट स्थानांतरित करना एक बड़ी योजना का हिस्सा थाबताते है की आजम खान के हौसलों को पस्त करने के लिए अमर सिंह ने संघ से मदद यह कह कर मांगी की यह उनके मान-सम्मान की बात है , तुम हमारी मदद करो हम केन्द्र में तुम्हारी सरकार बनाए में तुम्हे मदद करेंगेयह बात समझ में भी आती हैवरना इतनी आसानी से भाजपा अपने चहेते वफादार मुस्लिम नेट की दुर्गत यू बनवातीयह बात और है कि भाजपा का सौदा अधूरा रह गया और पि.ऍम इन वेटिंग वेटिंग रूम में बैठकर वेटिंग ही करते रह गए और कांग्रेस कि गाड़ी दिल्ली पहुँच गईऐसी नौबत आई कि राजग को सत्ता में अमर सिंह कि सेवाएँ लेनी पड़ती

क्रमश:
- मो. तारीख खान

करवट ले रहा है लोकतंत्र

उलझी हुई दाढ़ियों के बीच झांकती निर्दोष आंखें
पूछती हैं सरकार से अपना अपराध
जल, जंगल, जमीन के लिए लड़ना...अपराध है
जंगलियों के हक की बात करना...अपराध है
भूखों को रोटी के लिए जगाना...अपराध है
गर तुम्हारे शब्दकोश में है ये अपराध
तो ऐसी जेल पर सौ जवानियां कुर्बान
जेल से ही रचे जाते रहे हैं इतिहास

इस बेचैनी पर मंद मंद मुस्कुरा रहा हैं शहंशाह
और नींद में ही बुदबुदा रहा है
तुम भी बन सकते थे सरकारी डॉक्टर
या फिर खोल लेते कोई नर्सिंग होम ही
गर कुछ नहीं तो एनजीओ ही सही
सरकार के रहमोकरम पर चल पड़ती दुकान
क्या जरूरत थी उनके बीच खुद को खपाने की
जंगल से खदेडे जाते हैं लोग....मौन धारण करते
भूख से बिलखते हैं बच्चे...चुप्पी ओढ लेते,
क्या जरूरत थी इनके झंडाबरदार बनने की
लोगों की चुप्पी को आवाज देने की
शहंशाह के आंखों में आंखें डाल सवाल करने की
अब भुगतो अपने किए की सजा

आज अमीरों की गोद में नंगी सो रही है सरकार
बढा रही है उनके साथ सत्ता की पींगें
और इन्हीं दिनों गरीबों पर कसता जा रहा है
सरकारी फंदा
शहंशाह को पता है इनकी हदें
एक पौव्वे पर ही डाल आते हैं कमल, पंजे पर वोट
रोटी के एक टुकडे पर बिक रहा है
लोकतंत्र
इन्हीं दिनों फुटपाथ पर करवट ले रहा है
लोकतंत्र
उनकी चरमराहट से बेखबर सो रही है
सरकार
उसके खर्राटे की आवाज अब लोगों को डराती नहीं
एक विनायक सेन की आवाज हिला देती है सत्ता की चूलें
वो हंस रही है सरकार की बेबसी पर मौन
और कर रही है इंतजार आने वाले कल का
जब शहंशाह की मोटी गर्दन पर कसा जाएगा
लोकतंत्र का फंदा

एक ऐसे दौर में
जब शहंशाह के मौन इशारों पर
लोग बनाए जाते रहेंगें बागी
यों ही कांपती रहेगी सरकार
एक अदने आदमी के भय से

चंदन राय

ग्वालियर की सुर्खियाँ

दैनिक भास्कर ग्वालियर संस्करण के एडिटर दिनेश मिश्रा ने इस्तीफा दे दिया है !उनकी जगह अनिल शर्मा (भोपाल )से आने की ख़बर है !श्री शर्मा आज ज्वाइन हो सकते है !वरिष्ठ पत्रकार विनोद श्रीवास्तव ने आचरण का दामन थाम लिया है !उधर पीपुल्स समाचार के होर्डिंग्स लगने से पत्रकारिता जगत में गरमी आ गई है ,सूत्र बताते है ,अभी तक करीब २०० से ऊपर पत्रकारिता से जुड़े लोगों ने अपनी अर्जी लगा दी है !

सांप को दूध पिलाने वाले



Angry_cow =>मेरे बच्चों, अब मैं तुमको और दूध नहीं पिला सकता । केन्द्र सरकार की बुरी नज़र अब मेरे तबेले पर भी पड़ने लगी है ।



जैसे ही केन्द्र सरकार ने भाकपा (माओवादी) पार्टी को आतंकवादी संगठनों की सूची में डाला वैसे ही वामदलों को मिर्गी के दौरे आने लगे । नक्सली आंदोलन आज से 40 साल पहले वामदलों की बदौलत परवान चढा था । आज भारत के आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में नक्सलिस्ट कहर बरपा रहे हैं । पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई. एस. आई. भी इनको अपना सगा सम्बन्धी मानकर मदद करती रहती है । जितना नुकसान भारत का पाकिस्तान अपनी आतंकी गतिविधियों से नहीं कर रहा है उससे ज्यादा जान-माल की क्षति भारत को नक्सली पहुंचा रहे हैं । इन सांपों को पाला और दूध पिलाया वामदल ने पश्चिम बंगाल में । नक्सली आंदोलन की वजह गरीबी, असंतुलित विकास और मदमस्त, नवाबी, कठोर, अड़ियल, बेपरवाह प्रशासन था, लेकिन पिछले 40 सालों से पश्चिम बंगाल (जहां कि इस आंदोलन ने जन्म लिया) में तो वामदलों का ही शासन है । यानी की नक्सली आंदोलन की मुख्य वजह तो यही महानुभाव थे और वो वजहें आज 40 साल बाद भी अगर जिंदा हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उस रोग का इन्होंने कोई इलाज नहीं किया बल्कि फुंसी को कैंसर बन कर पड़ोसी राज्यों में भी फैलने दिया ।

वामदल और नक्सलियों का खतरनाक गठजोड़ बहुत पुराना है । पश्चिम बंगाल में पिछले 40 साल से जिन कमुनिस्टों का राज चल रहा है उसकी दो ही बैसाखियां है । नं0 1 नक्सली, नं0 दो बंग्लादेशी घुसपैठिये । इन दोनों की मदद से ये 40 साल से राज्य में शासन करते चले आ रहे हैं । नक्सली गुंडों की बदौलत ये बूथ कैप्चर करवाते है और फर्जी बंग्लादेशी नागरिकों को वोटर बना कर वोट पड़वाते हैं । अपनी सरकार बनी रहे यही मुख्य मुद्दा है बाकी भारत देश और लोकतंत्र तो इनकी निगाह में दो कौड़ी की भी हैसियत नहीं रखते ।

भारत के महान वामदल । दस हज़ार साल से निरंतर चली आने वाली विश्व की एकमात्र सभ्यता, संस्कृति जिसे दुनिया एक प्रकाशपुंज के रूप देखती है, उस महान देश के महान इतिहास, संस्कृति से इनका कोई लेना देना नही है, सब कूड़ा कर्कट है इनकी समझ से । विचारक भी इनको इस देश में नहीं मिले, मजबूरीवश आयात करने पड़े । कार्ल माक्र्स, लेनिन, माओ । राष्ट्र और राष्ट्रवादिता दोनों ही इनके लिए ढकोसला है । राम और कृष्ण इनके लिए किताबी कहानी से ज्यादा और कुछ भी नहीं । धर्म अफीम की पुड़िया है । अगर इतने ही बड़े सेकुलरवादी हो तो बंगाल में दुर्गा पूजा बंद करवा दो और बेलूर मठ को आग में झोंक दो । सुभाषचंद्र बोस को कुत्ता कहने वाले और देश के बंटवारे के लिए जिन्ना का समर्थन करने वाले ये मीर जाफ़र और जगत सेठ की जायज़ संताने हैं । एक पाकिस्तान बना चुके हैं, दूसरे के लिए नक्सली आंदोलन को पाल पोस रहे हैं । चीन से इनको आर्थिक और वैचारिक दोनो ही खुराकें मिलती हैं ।

जैसे ही केन्द्र ने माओवादी (भाकपा) को आतंकवादी संगठन घोषित किया वामदलों ने एक नई बहस को परवान चढाना शुरू कर दिया कि आतंकवाद की परिभाषा क्या होती है ? ये वो लोग हैं जो कि अलगाववादी संगठनों को प्रश्रय और संरक्षण देते हैं और फर्जी राजनीति करते हैं । इनमें और कश्मीरी अलगाववादियों में बाल बराबर भी अंतर नहीं । अब बेचारे बडे़ धर्म संकट में पड़े हुय हैं । जिन नक्सली गुंडों कीं की मदद से चुनाव जीतते रहे अब उन्हीं पर प्रतिबंध लगाने के लिए केन्द्र सरकार दबाव डाल रही है । अब क्या करें ? माओवादी कोई चीनी का खिलौना तो नहीं कि जब तक चाहाउससे खेला और जब चाहा मुंह में डाल कर गुडुप कर लिया । इनकी दशा देखकर मित्रों अवधी की एक कहावत याद आती है जो कि इनपर एकदम सटीक बैठती है ”पूतौ मीठ, भतारौ मीठ, के कर किरिया खाऊं ।"

लो क सं घ र्ष !: जलते है स्वप्न हमारे...


वक्र - पंक्ति में कुंद कलि
किसलय के अवगुण्ठन में।
तृष्णा में शुक है आकुल,
ज्यों राधा नन्दन वन में॥

उज्जवल जलकुम्भी की शुचि,
पंखुडियां श्वेत निराली।
हो अधर विचुम्बित आभा,
जल अरुण समाहित लाली॥

विम्बित नीरज गरिमा से
मंडित कपोल तुम्हारे।
नीख ज्वाला में उनकी ,
जलते है स्वप्न हमारे॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

हम किधर जा रहे है .......

एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2050 तक ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, चीन, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों में आबादी का वह निर्धन तबका प्रभावित होगा जो प्रमुख एवं सहायक नदियों पर निर्भर है।ग्लोबल वार्मिंग आज पुरे विश्व की प्रमुख समस्या बन चुकी हैयह किसी एक देश से सम्बंधित होकर वैश्विक समस्या है ,जिसकी चपेट में लगभग सारे देश आने वाले है
भारतीयों के लिए गंगा एक पवित्र नदी है और उसे लोग जीवनदायिनी मानते हैं। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि नदियों में परिवर्तन और उन पर आजीविका के लिए निर्भरता का असर अर्थव्यवस्था, संस्कृति और भौगोलिक प्रभाव पर पड़ सकता है। गंगा तब जीवनदायिनी नही रह पायेगीबाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ जाएगा
जर्मनी के बॉन में जारी रिपोर्ट Searh of Shelter : Mapping the Effects of Climate Change on Human Mitigation and Displacement में कहा गया है कि ग्लेशियरों का पिघलना जारी है और इसके कारण पहले बाढ़ आएगी और फिर लंबे समय तक पानी की आपूर्ति घट जाएगी। निश्चित रूप से इससे एशिया में सिंचित कृषि भूमि का बड़ा हिस्सा तबाह हो जाएगा। यह रिपोर्ट एक भयावह स्थिति को प्रर्दशित करता हैसमय रहते ही चेत जाने में भलाई है , नही तो हम आने वाली भावी पीढियों के लिए कुछ भी छोड़ कर नही जायेंगे और यह उनके साथ बहुत बड़ा धोखा होगा

25.6.09

पत्रकार व्याख्याताओं की आवश्यकता है

देश के प्रतिष्ठित शारीरिक शिक्षा विवि लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा विवि, ग्वालियर के खेल प्रबंधन एवं खेल पत्रकारिता विभाग में व्याख्याताओं की आवश्यकता है. पत्रकारिता शिक्षा से जुड़े लोग इन पदों हेतु साक्षात्कार दे सकते हैं. साक्षात्कार का आयोजन दिनांक 30 जून को विवि परिसर में प्रातः 10 बजे से किया जायेगा. अनुबंध आधारित इन पदों के लिए प्रतिमाह रूपए 10,000 (दस हज़ार) मानदेय निर्धारित किया गया है. अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें. अथवा विवि के फ़ोन न. -0751-4000963 पर संपर्क करें.

लो क सं घ र्ष !: बढती महंगाई और घटी दर ,यह देखो सरकारों का खेल



कृपया इस पिक्चर पर क्लिक कर के पढ़ें

ब्लू लाइन की बढती गुण्डागर्दी और डी टी सी का बढता निठल्लापन

सेवा में,

परिवहन मन्र्ति
दिल्ली



विषयः ब्लू लाइन की बढती गुण्डागर्दी और डी टी सी का बढता निठल्लापन



महोदय,
मुझे यह जान कर बहुत खेद हुआ कि डी टी सी का घाटा दोगुना से ज्यादा हो गया है। मगर शायद इस बात पे ध्यान नहीं दिया गया कि ऐसा क्यों हो रहा है। मैं आपको बताना चाहुंगा कि ब्लू लाइन की बढती गुण्डागर्दी और डी टी सी का बढता निठल्लापन ही इसका मुख्य कारण है। अगर आप ब्लू लाइन बसों की हालत देखें तो यह तो बद से बद्दतर है ही मगर इन्होंने डी टी सी को दागी और भ्रष्ट बना दिया है। डिपो से डी टी सी बसें एकदम ठीक आ जाती हैं मगर स्टैण्ड पर पहुंचते ही कागज़ों में 'बस खराब है' लिख दिया जाता है और आधे एक घण्टे से डी टी सी बस का इन्तज़ार कर रहे लोगों को परेशानी का सामना करना पडता है। यह कोइ एक दिन की बात नहीं बल्कि आए दिन ऐसी घटनाऐं देखने को मिलती हैं। नीचे दिए गए कुछ मुख्य पवाइंटस दिल्ली की यातायात व्यवस्था पर पश्न चिन्ह लगाते हैं। पहले ब्लू लाइन से शुरू कर रहा हूं -

१ - ब्लु लाइन बसों की जर्जर स्थिति - ब्लू लाइन बसों की स्थिति दयनीय है कि उन में बैठने को दिल नहीं करता मगर मजबूरी मैं लोगों को जाना पडता है। जाने ये बसें पास कैसे हो जाती हैं।

२ - असभ्य वर्ताब - ब्लू लाइन बसों के संवाहक बस को तब तक भरते रहते हैं जब तक कि सवारी से सवारी का शरीर न मिल जाए। कई बार तो यात्रीयों को गेट पे लटका कर ले जाते हैं। इस बीच यदि कोई उन्हे टोक देता है तो वे गन्दी गन्दी गालियां देना शुरू कर देते हैं या फिर बस से तुरन्त उतर जाने को कहते हैं मगर मजबूरी में यात्री कुछ भी नहीं कर पाते। एक बस में ज्यादा से ज्यादा ५२ सीटें होती हैं मगर बस में सफर कर रहे यात्रीयों के संख्या सीटों से दोगुनी होती है। क्या प्रशासन किसी बडी दर्घटना होने का इन्तज़ार कर रहा है? पैसे देकर भी लोग गालियां सुन रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि ये प्रशासन उनकी मदद करने की बजाए उल्टा उन्हें ही तंग करेगा।

वास्तव में ब्लू लाइन के कन्डक्टर जो एक बस में ६ से ७ हो सकते हैं, गुण्डे हैं जो दिल्ली में आतंक मचाने कि लिये जाने जाते हैं।

३ - रिश्वत - हलांकि ये बात जगजाहिर है कि ब्लू लाइन आपरेटरस डी टी सी के कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों तक रिश्वत देते हैं उनका रास्ता साफ रहे और कोई डी टी सी बस उनके पीछे न चले। अगर कोई बस पीछे चलती भी है तो उस में ब्लू लाइन के एक या दो बन्दे (गुण्डे) डी टी सी बस में चढ जाते हैं और ड्राइवर हो अपने निर्देशानुसार चलाते हैं। यदि कोई यात्री इसका विरोध करता है तो उसे जान से मार देने की धमकियां दी जाती हैं। यह सब मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि ये सब में खुद भुगत चुका हूं।

४ - धूम्रपान - यूं तो सरकार ने नियम बनाया है कि पब्लिक पलेस में धूम्रपान करना अपराध है मगर ये ब्लू लाइन के बस ड्राइवर कहां मानते हैं। अगर कोई बीच में टोकता है तो उनके कोप का भाजन बनता है। स्थिति तो तब और सोचनीय हो जाती है जब पुलिस वाले अपराधी को पकडने की बजाए शिकायत करने वाले को ही फंसा देती है। आम आदमी तो पुलिस के पास जाने से भी डरता है।

ये तो बात हुई भयानक ब्लू लाइन बसों की अब चलते हैं डी टी सी की कारगुजारियों की ओरः

१ - कोई समय सारणी नहीं - पेपरों में तो डी टी सी हमेशा समय पर चलती है मगर वास्तिक्ता तो कुछ और ही है। डी टी सी बस के ड्राइवर और कण्डक्टर ही मानो बस के मालिक होते है बे जब चाहे बस रोके, जब चाहे चलाएं या फिर जब चाहें बस को खराब बता कर यात्रियों को कहीं भी उतार सकते हैं।

२ - रिश्वत का चलन - मैंने कई बार डी टी सी बस ड्राइवरों और कण्डक्टरों को ब्लू लाइन वालों से रिश्वत लेते देखा है दु्र्भाग्य से मेरे पास कैमरे वाल मोवाइल नहीं है नहीं तो मैंने विडियो बना लिया होता। एक डी टी सी ड्राइवर से बात होने पर उसने बताया की अगर वे उनके दिये पैसे नहीं लेते तो उन्हें मारने की धमकी दी जाती है और अगर वे ये बातें अपने अधिकारियों को बताते हैं तो वे ब्लू लाइन वालों से न उलझने के सलाह देते है, फिर हम क्या कर सकते है। उसने बताया जब हमारे साहब लोग ही पैसे लेते हैं तो हम क्यों नहीं ले सकते।

३ - शिकायत पुस्तिका नहीं - जब कभी कोई यात्री डी टी सी कण्डक्टर से शिकायत पुस्तिका मांगता है तो वह कहता है कि हमारे पास शिकायत पुस्तिका होती ही नहीं है।

४ - घटिया हेल्पलाइन - यदि कोई यात्री भूल से भी डी टी सी हेल्पलाइन १८०० ११ ८१८१ पर फोन कर दे तो उसे कोई सपष्ट जबाव नहीं मिलता। डी टी सी हेल्पलाइन में बैठे व्यक्ति यहां तक कहते हैं कि भइया डी टी सी का तो भगवान ही मालिक है। हम कुछ नहीं कर सकते। उनकी रूखी आवाज़ यात्रियों को और ज्यादा परेशान कर देती है।

५ - बिके हुए टिकेट का दुबारा प्रयोग - यह वो सच्चाई है जो किसी के भी रोंगटे खडे कर सकती है। टिकट बिक जाने पर डी टी सी के कण्डक्टर स्टैण्ड आने पर आगे वाले गेट पर चले जाते हैं और टिकेट चेक करने के बहाने उनसे टिकेट लेकर आगे चढने वाले यात्रियों दे दिए जाते है। यह समस्या रूट नम्बर ३९२ पर ज्यादा देखी जा सकती है।

६ - डी टी सी बसों के कमी - हलांकि अगर डिपो में देखा जाए हो कई बसें बेकार में वहां खडी मिलती हैं मगर रोड पर बहुत कम। १५ मिनट से ३० मिनट के अन्तराल पर डी टी सी बस सेवा है कई बार तो १ घण्टा भी यात्रियों को इन्तजार करना पडता है। इससे डी टी सी की इमानदारी पर तो शक होना लाज़मी है। चाहे कुछ भी हो जनता डी टी सी से एक अच्छी सेबा की उम्मीद लगाऐ बैठी है।

७ - बसों में भीड - चाहे ब्लू लाइन हो या डी टी सी सभी बसों में इतनी ज्यादा भीड होती है कि बिमार आदमी, गर्भवती स्त्रीयां, बच्चे बाली औरतें और बूढे लोगों का सफर करना दूभर हो जाता है। ४२ सीटों वाली बस में १०० के लगभग यात्री हो सकते हैं। यदि दुर्घटना होती है तो आप समझ सकते हैं कि ये कितनी भयानक हो होगी।

दिल्ली (NCR) के यातायात की जो व्यवस्था अभी है वह २०१० में होने वाले कामनवेल्थ खेलों पर डालेगा। नीचे कुछ ऐसे सुझाव दिये जा रहे है जिससे दिल्ली (NCR) की यातायात व्यवस्था कुछ हद तक सुधारी जा सकती हैः

१ - डी टी सी के स्टाफ को ब्लू लाइन के गुण्डों से सुरक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे उनके दवाब में आकर गाडी न चलाऐं।
२ - बस की समय सारणी बस के बाहर गेट पर लिखी रहनी चाहिए ताकि जनता को बस के टाइमिंग का पता रहे और डी टी सी के स्टाफ गाडी समय पर ही चलाए।
३ - हर ५ से १० मिनट के अन्तराल पर डी टी सी की बस सेवा होनी चाहिए ताकी यात्रियों को कोई परेशानी न हो।
४ - डिपो से निकलने से पहले हर डी टी सी बस चेक होनी चाहिए ताकि ड्राइवर बस खराब होने का बहाना न बना सकें।
५ - भ्रष्टाचार के केस में जो कोई भी पकडा जाए, उसकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से खत्म कर दी जानी चाहिए ताकी उन पर जो सरकारी कर्मचारी होने का भूत है उतर जाए।
६ - ब्लू लाइन बसों को जल्द से जल्द बन्द कर दिया जाना चाहिए क्यों कि डी टी सी में भ्रष्टाचार का मुख्य कारण ब्लू लाइन ही है।
७ - राजनेताओं की बसें पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए प्रयोग नहीं होनी चाहिए इससे भी भ्रष्टाचार फैलता है इसमें कोई शक की गुंजाइस ही नहीं।
८ - जो भी जनशिकायत हो उसका सही ठंग से उचित (लिखित में) जबाव दिया जाना जाना चाहिए ताकि लोग सरकारी काम पर भरोसा कर सकें।

उपरोक्त दिए गए सुझावों को अगर सरकार लागू करती है हो निश्चित ही दिल्ली (NCR) में यातायात व्यवस्था सुधरेगी। अगर सरकारी बसों की सेवा सही हो जाए तो लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करेंगे। सरकारी बसों की सेवा सही न होने की बजह से ही दिल्ली में यातायात बढा है।

सुशील कुमार पटियाल

लड़कियों की खरीद-फरोख्त की मंडी बना मेरठ



सलीम अख्तर सिद्दीकी
सरकार और मीडिया महिला सशक्तिकरण की बहुत बातें करते हैं। नामचीन महिलाओं का उदाहरण देकर कहा जाता है कि महिला अब पुरूषों से कमतर नहीं हैं। लेकिन जब किसी गरीब, लाचार और बेबस लड़की के बिकने की दास्तान सामने आती है तो महिला सशक्तिकरण की धज्जियां उड़ जाती हैं। 24 जून को पष्चिम बंगाल की 25 साल की मौसमी को पष्चिम बंगाल से खरीदकर लाया गया। उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। मौसमी को अपने बेचे जाने की भनक लगी तो वह किसी तरह वहषियों के चंगुल से निकल भागी। कुछ लोगों ने उसे मेरठ के नौचंदी थाना पहुंचाया। लड़की केवल बंगला में ही बाते कर रही थी। 'संकल्प' संस्था की निदेषक श्रीमती अतुल षर्मा तथा उनकी सहयोगी कादम्बरी कौषिक ने थाने पहुंचकर कलकत्ता स्थित अपने एक कार्यकर्ता से मौसमी की बात करायी। कार्यकर्ता ने हिन्दी में मौसमी की व्यथा को बयान किया। इससे पहले भी मेरठ में लड़कियां के बिकने की खबरें आती रही हैं। संकल्प की अतुल षर्मा बताती हैं कि मेरठ लड़कियों की खरीद-फरोख्त की मंडी बन चुका है। श्रीमती अतुल बताती हैं कि वे अब तक 131 लड़कियों को बिकने से बचा चुकी हैं। लड़कियों को दिल्ली के जीबी रोड तथा मेरठ के कबाड़ी बाजार स्थित रेड लाइट एरिया मे ंखपाया जाता है।
दरअसल, मेरठ ही नहीं, पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश लड़कियों की खरीद-फरोख्त और देह व्यापार का अड्डा बन गया है। ये लड़कियां नेपाल, असम, बंगाल, बिहार, झारखंड मध्य प्रदेश तथा राजस्थान आदि प्रदेशों से खरीदकर लायी जाती हैं। पिछले साल के शुरू में ÷एंटी ट्रेफिकिंग सेल नेटवर्क' का एक दल झारखंड से तस्करी से लायी गयीं 602 महिलाओं को खोजने मेरठ आया था। सेल नेटवर्क की अध्यथ रेशमा सिंह ने बताया था कि पिछले पांच से छः वर्षों के दौरान पश्चिमी यूपी में लगभग 6 हजार महिलाएं तस्करी से लाकर बेची जा चुकी हैं। इनमें से कुछ 15 से 16 तथा कुछ 20 से 22 साल की आयु की थीं। उन्होंने बताया कि झारखंड के लोगों के लिए मेरठ मंडल ही यूपी है। झारखंड के बोकारो, हजारी बाग, छतरा और पश्चिम सिंह भूम जिलों में महिलाओं की हालत सबसे खराब है। इन्हीं जिलों से महिलाओं की तस्करी सबसे अधिक होती है।
मेरठ की बात करें तो पिछले दिसम्बर 2007 तक सरकारी आंकडों के अनुसार 419 बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट है। इनमें से विभिन्न आयु वर्ग की 270 लड़कियां हैं। लड़कियों के बारे मे पुलिस शुरूआती दिनों में प्रेम प्रसंग का मामला बनाकर गम्भीरता से जांच नहीं करती है। निठारी कांड के बाद गायब हुए बच्चों की तलाश के लिए बड़ी-बड़ी बातें की गयी थीं। लेकिन निठारी कांड पर धूल जमने के साथ ही गायब हुऐ बच्चों की तलाश के अभियान पर भी ग्रहण लग गया है।
मेरठ महानगर के रेड लाइट एरिया में ही दिसम्बर 08 तक लगभग 1800 सैक्स वर्कर थीं। इनमें लगभग 1160 केवल 12 से लेकर 16 वर्ष की नाबालिग बच्चियां हैं, जिन्हें अन्य प्रदेशों से लाकर जबरन इस धंधे में लगाया गया है। जब से यह कहा जाने लगा है कि कम उम्र की लड़कियों से सम्बन्ध बनाने से एड्स का खतरा नहीं होता, तब से बाल सैक्स वर्करों की संख्या में इजाफा हुआ है। देह व्यापार में उतरते ही इन लड़कियों के शोषण का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। दलालों और कोठा संचालकों का उनकी हर सांस और गतिविधि पर कड़ा शिकंजा रहता है। यदि कोई लड़की भागने की कोशिश करती है तो उस पर भयंकर अत्याचार किए जाते हैं। शारीरिक हिंसा, लगातार गर्भपात, एड्स, टीबी तथा हैपेटाइटिस बी जैसी बीमारियां इनका भाग्य बन जाती हैं।
मेरठ के रेड लाइट एरिया में ऐसी अनेकों लड़कियां हैं, जो इस धन्धे से बाहर आना चाहती हैं। लेकिन माफिया उन्हें धन्धे से बाहर नहीं आने देना चाहते। वे अगर बाहर आ भी जाती हैं तो उनके सामने सबसे सवाल यह रहता है कि क्या समाज उन्हें स्वीकार करेगा। ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी सैक्स वर्कर ने इस दलदल से मुक्ति चाही, लेकिन दलाल उसे फिर देह व्यापार के दलदल में वापस खींच लाये। पिछले दिनों मेरठ के रेड लाइट एरिया की जूही नाम की सैक्स वर्कर ने सुरेश नाम के लड़के से कोर्ट मैरिज कर ली। लेकिन कोठा संचालिका और दलालों को जूही का शादी करना अच्छा नहीं लगा। उसे जबरदस्ती फिर से कोठे पर ले जाने का प्रयास किया गया, जो असफल हो गया। लेकिन जूही एक अपवाद मात्र है। धन्धे से बाहर आने की चाहत रखने वाली हर सैक्सवर्कर की किस्मत जूही जैसी नहीं होती।
हालिया आंकड़ों के अनुसार पश्चिमी यूपी में लड़कियों की जन्म दर में सात से आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। इसके अलावा इस क्षेत्र में कुछ जातियों में विशेष कारणों से हमेशा ही अविवाहित पुरुषों की संख्या अधिक रही है। इसलिए यहां पर महिलाओं की खरीद-फरोख्त का धंधा बढ़ता जा रहा है। अपने लिए दुल्हन खरीद कर लाये एक अधेड़ अविवाहित ने बताया कि ÷दिल्ली में एक दर्जन से भी अधिक स्थानों से नेपाल, बिहार, बंगाल, झारखंड तथा अन्य प्रदेशों से लायी गयी लड़कियों को मात्र 15 से 20 हजार में खरीदा जा सकता है।' दिल्ली में यह सब कुछ ÷प्लेसमेंट एजेंसियों' के माध्यम से हो रहा है। इन्हीं प्लेसमेंट एजेंसियों के एजेन्ट आदिवासियों वाले राज्यों में नौकरी-रोजगार देने का लालच देकर लाते हैं और उन्हें ÷जरूरतमंदों' को बेच देते हैं। ये एजेंसियां इन लड़कियों के नाम-पते भी गलत दर्ज करते हैं ताकि इनके परिवार वाले इन्हें ढूंढ न सकें। अधेड़ लोग सन्तान पैदा करने के लिए तो कुूछ मात्र अपनी हवस पूरी करने के लिए इन लड़कियों को खरीदते हैं। कुछ सालों के बाद इन लड़कियों को जिस्म फरोशी के धंधे में धकेलकर दूसरी लड़की खरीद ली जाती है। कुछ पुलिस अधिकारी यह मानते हैं कि लड़कियों को बंधक बनाकर उन्हें पत्नि बनाकर रखा जाता है, लेकिन लड़की के बयान न देने के कारण पुलिस कार्यवाई नहीं कर पाती है। लड़कियों की खरीद-फरोख्त तथा देह व्यापार एक वुनौती बन चुका है। इस व्यापार में माफियाओं के दखल से हालात और भी अधिक विस्फोटक हो गये हैं। सैक्स वर्करों को जागरूक करने का कार्य करने वाले गैर सरकारी संगठनों को इन माफियाओं से अक्सर जान से मारने की धमकी मिलती रहती है। ÷संकल्प÷ की निदेशक अतुल शर्मा को कई दलाल जान से मारने की धमकी दे चुके हैं।
कुछ जातियों में देह व्यापार को मान्यता मिली हुई है। यदि ऐसी जातियों को छोड़ दिया जाये तो देह व्यापार में आने वाली अधिकतर लड़कियां मजबूर और परिस्थितियों की मारी होती हैं। प्यार के नाम ठगी गयीं, बेसहारा और विधवाएं। आजीविका का उचित साधन न होने। बड़े परिवार के गुजर-बसर के लिए अतिरिक्त आय बढ़ाने के लिए। अकाल अथवा सूखे के चलते राहत न मिलना, परिवार के मुखिया का असाध्य रोग से पीड़ित हो जाना। परिवार का कर्जदार होना, जातीय और साम्प्रदायिक दंगों में परिवार के अधिकतर सदस्यों के मारे जाने आदि देह व्यापार में आने की मुख्य वजह होती हैं। किसी देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा जाना भी देह व्यापार का मुख्य कारण बनता है। सोवियत संघ के विघटन के बाद आजाद हुऐ कुछ देशों की लड़कियों की भारत के देह बाजार में आपूर्ति हो रही है। एक दशक पहले के आंकड़ों पर नजर डालें तो दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, बंगलौर और हैदराबाद में सैक्स वर्करों की संख्या लगभग सत्तर हजार थी। एक दशक बाद यह संख्या क्या होगी इसकर केवल अंदाजा लगाया जा सकता है।
देह व्यापार में केवल गरीब, लाचार और बेबस औरतें और लड़कियां ही नहीं हैं। देह व्यापार का एक चेहरा ग्लैमर से भरपूर भी है। सम्पन्न घरों की वे औरतें और लड़कियां भी इस धन्धे में लिप्त हैं, जो अपने अनाप-शनाप खर्चे पूरे करने और सोसाइटी में अपने स्टेट्स को कायम रखने के लिए अपनी देह का सौदा करती हैं। मेरठ के ट्रिपल मर्डर की सूत्रधार शीबा सिरोही ऐसी ही औरतों के वर्ग से ताल्लुक रखती है, जो पॉश कालोनी के शानदार फ्लैट में रहती हैं और लग्जरी कारों का इस्तेमाल करती हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में नवधनाढ़यों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है, जो नारी देह को खरीदकर अपनी शारीरिक भूख को शांत करना चाहता है। इन धनाढ़यों की जरूरतों को पूरा करने का साधन ऐसी ही औरतें और लड़कियां बनती हैं।
समाज का एक बर्ग यह भी मानता है कि रेड लाइट एरिया समाज की जरूरत है। इस वर्ग के अनुसार भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा युवा है और इस युवा वर्ग के एक बड़े हिस्से को अनेक कारणों से अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करने के लिए रेड लाइट एरिया की जरूरत है। सर्वे बताते हैं कि जहां रेड लाइट एरिया नहीं हैं, वहां बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
सैक्स वर्करों की बीच काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं के सामने देह व्यापार को छोड़कर समाज की मुख्य धारा में आने वाली लड़कियों का पुनर्वास एक बड़ी चुनौती होता है। हालांकि सरकार सैक्स वर्करों के पुनर्वास के लिए कई योजाएं चलाती है। लेकिन सैक्स वर्करों के अनपढ़ होने, स्थानीय नहीं होने तथा दलालों के भय से वे योजना का लाभ नहीं उठा पाती हैं। कुछ गैर सरकारी संगठन वेश्यावृत्ति के उन्मूलन के लिए सार्थक प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें समाज, प्रशासन और पुलिस का उचित सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाता। गैर सरकारी संगठनों को व्यापक शोध करके सरकार को सुझाव दें कि जो लड़कियां देह व्यापार से बाहर आना चाहती हैं, उनका सफल पुनर्वास कैसे हो।

लो क सं घ र्ष !: अब चेतन सी लहराए...


शशि मुख लहराती लट भी,
कुछ ऐसा दृश्य दिखाए।
माद्क सुगन्धि भर रजनी,
अब चेतन सी लहराए॥

मन को उव्देलित करता,
तेरे माथे का चन्दन।
तिल-तिल जलना बतलाता
तेरे अधरों का कम्पन ॥

पूनम चंदा मुख मंडल,
अम्बर गंगा सी चुनर।
विद्रुम अधरों पर अलकें,
रजनी में चपला चादर॥

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

यस,कमेंट्स प्लीज़

आज के ही दिन १९७५ में हिंदुस्तान में आपातकाल तत्कालीन सरकार ने लगा दिया था। तब से लेकर आज तक देश की एक पीढी जवान हो गई। इनमे से करोड़ों तो जानते भी नहीं होंगें कि आपातकाल किस चिड़िया का नाम है। आपातकाल को निकट से तो हम भी नहीं जानते,हाँ ये जरुर है कि इसके बारे में पढ़ा और सुना बहुत है। तब इंदिरा गाँधी ने एक नारा भी दिया था, दूर दृष्टी,पक्का इरादा,कड़ा अनुशासन....आदि। आपातकाल के कई साल बाद यह कहा जाने लगा कि हिंदुस्तान तो आपातकाल के लायक ही है। आपातकाल में सरकारी कामकाज का ढर्रा एकदम से बदल गया था। कोई भी ट्रेन एक मिनट भी लेट नहीं हुआ करती। बतातें हैं कि ट्रेन के आने जाने के समय को देख कर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे। सरकारी कामकाज में समय की पाबन्दी इस कद्र हुई कि क्या कहने। इसमे कोई शक नहीं कि कहीं ना कहीं जयादती भी हुई,मगर ये भी सच है कि तब आम आदमी की सुनवाई तो होती थी। सरकारी मशीनरी को कुछ डर तो था। आज क्या है? आम आदमी की किसी भी प्रकार की कोई सुनवाई नहीं होती। केवल और केवल उसी की पूछ होती है जिसके पास या तो दाम हों, पैर में जूता हो या फ़िर कोई मोटी तगड़ी अप्रोच। पूरे देश में यही सिस्टम अपने आप से लागू हो गया। पता नहीं लोकतंत्र का यह कैसा रूप है? लोकतंत्र का असली मजा तो सरकार में रह कर देश-प्रदेश चलाने वाले राजनीतिक घराने ले रहें हैं। तब हर किसी को कानून का डर होता था। आज कानून से वही डरता है जिसको स्टुपिड कोमन मैन कहा जाता है। इसके अलावा तो हर कोई कानून को अपनी बांदी बना कर रखे हुए है। भाई, ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब जिससे कोई राहत आम जन को ना मिले। आज भी लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि इस से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। तब तो हम पराधीन थे।कोई ये ना समझ ले कि हम गुलामी या आपातकाल के पक्षधर हैं। किंतु यह तो सोचना ही पड़ेगा कि बीमार को कौनसी दवा की जरुरत है। कौन सोचेगा? क्या लोकतंत्र इसी प्रकार से विकृत होता रहेगा? कोमन मैन को हमेशा हमेशा के लिए स्टुपिड ही रखा जाएगा ताकि वह कोई सवाल किसी से ना कर सके। सुनते हैं,पढ़तें हैं कि एक राज धर्म होता है जिसके लिए व्यक्तिगत धर्म की बलि दे दी जाती है। यहाँ तो बस एक ही धर्म है और वह है साम, दाम,दंड,भेद से सत्ता अपने परिवार में रखना। क्या ऐसा तो नहीं कि सालों साल बाद देश में आजादी के लिए एक और आन्दोलन हो।

24.6.09

सुनो तो मेरी भी......!

हे मर्द, तुमने क्या कहा?
ज़रा दुहराना तो
तुमने कहा- हम औरतें, कोमल हैं,
कमज़ोर हैं!
लाचार हैं साथ तुम्हारे चलने को,
हमारा कोई अस्तित्व नहीं है
बगैर तुम्हारे!

तुम्हारी इन बातों पर,
बचकानी सोच पर,
जी करता है खूब हँसू…….!

सोचती हूँ, कैसे बोलते हो तुम ये सब?
कहीं तुम्हे घमण्ड तो नही
अपनी इस लम्बी कद-काठी का,
चौड़ी छाती का जहाँ कुछ बाल उग आए हैं….!

सच में, अगर घमण्ड है तुम्हें
इन बातो का तो ज़रा सुनो मेरी भी-
तुम मर्दो का आज अस्तित्व है
क्योंकि
किसी औरत ने पाला है
तुम्हे नौ महीने अपने पेट मे !

लम्बी कद-काठी है
क्योंकि
तुम्हारी कुशलता के लिए
प्रयासरत रही है
कोई औरत हमेशा !

छाती चौडी है
क्योंकि
पिलाई है किसी औरत तुम्हे छाती अपनी !

अब सोचो,
फिर बोलो,
कौन लाचार है ?
किसका अस्तित्व नहीं, किसके बगैर?


-विकास कुमार

लो क सं घ र्ष !: राष्ट्रिय हितों के सौदागर है ये निक्कर वाले....तो यह हाल तलवार भाजने वाले लौहपुरुष और योद्धाओ का है ।


क्या कांग्रेस फैसले में शामिल थी? देखो ,ख़ुद अडवानी ने 24 मार्च 2008 को शेखर गुप्ता को दिए गए इन्टरव्यू में क्या कहा था। अडवानी , "मुझे ठीक तरह से याद नही है की सर्वदलीय बैठक में कौन-कौन था। लेकिन मोटे तौर पर सरकार को सलाह दी गई थी की संकट ख़त्म करने के लिए सरकार फ़ैसला करे। यह भी कहा गया था की यात्रियों की रिहाई को सबसे ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए। " इस पर शेखर ने पुछा ,"क्या कांग्रेस ने भी ऐसा कहा था?" अडवानी का जवाब था, "मुझे वह याद नही, लेकिन आमतौर से यह बात कही गई थी।" अडवानी के इस साफ़ बयान से कांग्रेस को संदेह का लाभ मिलता है । कांग्रेस प्रवक्ताओ के इस सवाल में बड़ा दम है और आखिर अडवानी किस तरह के "लौहपुरुष " है की उन्हें बहुत ही संवेदनशील फैसलों से दूर रखा गया और क्या प्रधानमन्त्री वाज़पेई उन पर भरोषा नही करते थे ? अगर अडवानी इतना ही अप्रसन्न थे तो पद त्याग करने का सहाश क्यों नही कर पाये । लाल बहादुर शास्त्री ने एक रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा दे दिया था । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने डाकुवो के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया था । जवाहरलाल नेहरू ने पुरुषोत्तम दास टंडन और डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेताओं से नीतिगत विवादो पर इस्तीफे की पेशकश कर डाली थी। यहाँ तो अभूतपूर्व राष्ट्रिय सुरक्षा और स्वाभिमान का संकट था।

ख़ुद अडवानी की किताब "मई कंट्री मई लाइफ" से निष्कर्ष निकलता है की वह और उनके सहयोगी सकते में आ गए थे, जो कुछ हुआ वह राजनितिक फैसला था और प्रशासकीय सलाहकारों से जरूरी मशविरा नही किया गया। अडवानी लिखते है (पेज 623) : "विमान यात्रियों को छुडाने के लिए एक विकल्प सरकार के पास यह था की विमान से कमांङो और सैनिक कंधार भेज दिए जाएँ । लेकिन हमें सूचना मिली की तालिबान अधिकारियो ने इस्लामाबाद के निर्देश पर हवाई अड्डे को तनको से घेर लिया है। हमारे कमांडर विमान के अन्दर अपर्ताओ को निहता कर सकते थे। लेकिन विमान के बहार तालिबानी सैनिको से साशस्त्र संघर्ष होता और जिनकी जान बचाने के लिए यह सब किया जाता,वे खतरे में पड़ जाते ।" (अडवानी के इस कदम का पोस्त्मर्तम करें । किस सुरक्षा विशेषज्ञ ने सलाह दी थी की कंधार में कमांडो कार्यवाही सम्भव है? अगर तालिबान टंक न लगाते टू क्या कमांडो कार्यवाही हो जाती? कमांडर!(please do not change it to commando. advaani has issued the term commandor) विमान के अन्दर अपर्ताहो को निहत्था करने के लिए पहुँचते कैसे? कंधार तक जाते किस रास्ते ?पकिस्तान अपने वायु मार्ग के इस्तेमाल की इजाजत देता नही । मध्य एशिया के रास्ते आज तो कंधार पहुचना सम्भव है । तब यह सम्भव नही था। कल्पना करें की कंधार तक हमारे कमांडो सुगमतापूर्वक पहुँच भी जाते ,तब वे किसे रिहा कराते ? क्योंकि इस बीच आइ .एस.आइ यात्रियों और अपर्थाओ को कहीं और पहुंचवा देती ।
१९६२ में चीन के हाथो हार के बाद कंधार दूसरा मौका था जब भारत की नाक कटी । उस त्रासद नाटक के मुख्य पात्र अडवानी इस घटना के बारे में कितना गंभीर है है इसका अंदाजा यूँ लगाइए की घटना के कई साल बाद किताब लिखी और उसमें पूरे मामले का सरलीकरण कर दिया। पर तो परदा पड़ा ही हुआ है । नाटक के एक बड़े पात्र जसवंत सिंह ने अपनी किताब "A call to owner: in service of imergent India" में कोई खुलाशा नही किया । बल्कि बड़े गर्व से कह रहे है की भविष्य में कंधार जैसा फिर कोई हादसा हुआ तो वह वाही करेंगे, जो पिछली बार किया था । तो यह हाल तलवार भाजने वाले लौहपुरुष और योद्धाओ का है ।

सी॰टी॰बी॰टी : परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने वाली इस संधि पर बीजेपी के रुख की कहानी बहुत दिलचस्प है। कांग्रेस सरकारों ने बम बनाये। लेकिन पोखरण -२ के जरिये बीजेपी ने अपने महान राष्ट्रवाद का परिचय देने की कोशिश की। मनमोहन सिंह की सरकार जब अमेरिका से परमाणु समझौता कर रही थी,तब बीजेपी के विरोध की सबसे बड़ी वजह यह थी की भारत परमाणु विश्फोतो के अधिकार से वंचित हो जाएगा। सच यह है की भारत को निहता करने में वाजपेई सरकार ने कोई कसार नही छोडी थी और इस त्रासद की कहानी के खलनायक थे विदेशमंत्री जसवंत सिंह।
एन डी ए शाशन के दौरान अमेरिका में विदेशी उपमंत्री स्ट्राब टैलबॉट ने अपनी किताब "एनगेजिंग इंडिया :डिप्लोमेसी ,डेमोक्रेसी एंड द बोम्ब " में वाजपेयी सरकार की कायरता पूर्ण और धोखेबाज हरकतों का खुलासा किया है। टैलबॉट ने पेज १२१ पर लिखा है, "जसवंत क्लिंटन के नाम वाजपेयी का पत्र लेकर वाशिंगटन पहुंचे , जो उन्होंने मेरे कक्ष में मुझे दिखाया । इस पर नजर डालते हुए सबसे महत्वपूर्ण वाक्य पर मेरी निगाह रुकी । यह था, "भारत सितम्बर 1999 तक सी॰टी॰बी॰टी पर स्वीकृति का निर्णय लेने के लिए महत्वपूर्ण वार्ताकारों से रचनात्मक वार्ता करता रहेगा।" बाद में विदेश मंत्रालय के अधिकारी सैंङी बर्गर से बातचीत के दौरान जसवंत ने कहा की वाजपेयी सी॰टी॰बी॰टी पर हस्ताक्षर करने का अन्पलत निर्णय कर चुके है । यह बस वक्त की बात है की इस निर्णय को कब और कैसे सार्वजानिक किया जाए। "

पेज 208 पर टैलबॉट बताते है की सरकार से उनके हटने के पहले जसवंत से आखिरी मुलाकात में एन डी ए सरकार के इस वरिष्ठ मंत्री ने सी॰टी॰बी॰टीपर दस्तखत का वादा पूरा न करने पर किस तरह माफ़ी मांगी। "जसवंत ने मुझसे अकेले मुलाकात का अनुरोध किया,जिसमें सी॰टी॰बी॰टी पर संदेश देना था। जसवंत ने वादा पूरा न करने पर माफ़ी मांगी। मैंने कहा की मालूम है कि आपने कोशिश की, मगर परिस्तिथियों ने साथ नही दिया। "

तो यह है संघ परिवार के सूर्माओ का असली चरित्र । कश्मीर,कंधार और सी॰टी॰बी॰टी पर अपने काले कारनामो का उन्हें पश्चाताप नही है। यह सब सुविचारित नीतियों का स्वाभाविक परिणाम है। इन तीन घटनाओ से यह नतीजा भी निकलता है कि बीजेपी को अगर कभी पूर्ण बहुमत मिला तो हम जिसे भारत राष्ट्र के रूप में जानते है, उसे चिन्न-भिन्न कर डालेगी ।

प्रदीप कुमार
मोबाइल :09810994447

राग दरबारी के बहाने क्रिकेटचर्चा


=> कटिया मार कर केबल टी.वी. देखने में जो मजा है वह कनेक्शन लेकर देखने में कहां । बेचारा वर्मा, उसकी टी.वी. में तो अब दूरदर्शन के सिवाय कुछ न आ रहा होगा ।


रात के साढ़े नौ बज रहे थे मगर शिवपालगंज गांव के सर्वेसर्वा बैद्य महाराज की बैठक अभी भी ठसा-ठस भरी हुयी थी । उमस भरा दिन किसी तरह गुज़रा था और रात को भी कोई राहत मिलती नहीं दिखाई पड़ रही थी । चकाचक काली मिर्च, बादाम, पिस्ता वाली ठंडई शाम से दो बार बन चुकी थी । शनीचर हमेशा की तरह चड्ढी-बनियान में आज बड़े जोश में था । सिल-लोढ़े पर भंग घिसने का पारंपरिक काम आज उसने बड़े तरंग में किया । परसाल बैद्य महाराज ने अपनी बैठक में सिम्फनी का एयर कूलर लगवा लिया था, लेकिन इस सड़ी गर्मी में उसने ने भी हाथ खड़े कर दिये ।

शिवपालगंज में भले आदमी रात के नौ बजे तक खा-पी कर अपने-अपने बिस्तरों की शोभा बढ़ाने चले जाते हैं । इस्टूडेन्ट कमुनिटी को न तो ब्रह्ममुहूर्त में पढ़ाई से मतलब होता है न देर रात तक रद्दी किताबों में आंखे फोड़ने से, कुछ देर चादर के नीचे फ्रस्टेट होने के पश्चात वो भी गहरी नींद में चले जाते हैं । फिर भले ही सपने में उनको बैद्य महाराज का वीर्यमय, तेजपूर्ण तमतमाया हुआ चेहरा डराता रहे या ‘जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का संदेश’ नामक विज्ञापन गोल-गोल चक्कर काटता दिखे । विवाहित लोग बत्ती बुझाने के बाद थोड़ी देर अपनी-अपनी लुगाईयों की व्यक्तिगत शारीरिक और मानसिक समस्याओं पर श्रम पूर्वक विचार करने के पश्चात थक हार कर सो जाते हैं । लेकिन आज सवेरे से ही शिवपालगंज में बड़ी चहल-पहल थी । और हो भी क्यों न, आज 20-20 वल्र्डकप में भारत का सामना इंग्लैण्ड से था । अगर भारत आज का ये मैच हार जाता है तो उसके सेमी फाइनल में पहुंचने के सारे दरवाजे बंद हो जायेंगे । रूप्पन बाबू आज सुबह से ही टेंशन में घूम रहे थे । जब वो टेंशन में होते हैं तब ज़र्दे वाला पान छोड़ कर पनामा सिगरेट पर टूट पड़ते हैं । शाम तक उन्होंने डेढ़ डिब्बी पनामा खलास कर दी थी । इतनी टेंशन तो उन्हें बेला की शादी से भी नहीं हुई थी जितनी आज हो रही थी ।

बैद्य जी महाराज अपनी बैठक में नौ बजे ही खा-पी करके और हथेली भर हिंगवाष्टक चूर्ण गर्म पानी से फांक कर साल भर पुराने सिम्फनी कूलर के ठीक सामने बिझे तख्त पर मसनदों के सहारे पसर गये थे । शाम की ठंडई का असर तो था ही । दरबार लग गया था । दरबारी थे प्रिंसपल साहब, रूप्पन, रंगनाथ, सनीचर, जोगनाथ और छंगामल विद्यालय इंटरमीडियेट कालेज के तीन विद्यार्थी जो कि रूप्पन बाबू के क्लासफेलो और जिगरी तो थे ही साथ ही पिछली चार साल से बारहवीं में पी.एच.डी भी कर रहे थे । बद्री और छोटे पहलवान आजकल अखाड़े में नये रंगरूटों को देर रात तक कुश्ती का प्रशिक्षण देने का काम निबटा कर कोआपरेटिव यूनियन के अहाते में लगे हैण्डपम्प पर नहा धोकर ही वापस लौटते थे । उनके आने का समय अब हो चुका था, वो दोनो लंगोटधारी अब किसी भी समय प्रकट हो सकते थे ।

अचानक रूप्पन बाबू बड़े जोश मे बोले ”अरे ! इन अंग्रेजों को पिछला वल्र्ड कप तो याद ही होगा । देखियेगा प्रिंसपल साहब, आज फिर युवराज ब्रैड हाज पर छः छक्के जड़ कर फिरंगियों को उनकी औकात बता देगा ।”

प्रिंसपल साहब को शनीचर ठंडई गिलास में न देकर लोटे में पिलाता है । दो लोटा ठंडई पीकर प्रिंसपल साहब वैसे ही काबू में नहीं थे । गुस्से, जोश और भंग के नशे में वो अधिकतर अपनी मादरे ज़बान अवधी का ही प्रयोग करते थे । बोले ”काहे नहीं रूप्पन बाबू, इन अंगरेज ससुरन के बुद्धि तो गांधी महात्मा गुल्ली-डंडा खिलाये खिलाये के भ्रष्ट कइ दिये रहिन । अब इ सारे का खेलहीं किरकेट-उरकेट । बांड़ी बिस्तुइया बाघन से नजारा मारे ।”

वैद्यजी तख्त पर आंखे मूंदे लेटे थे, प्रिंसपल साहब की अवधी सुने तो मुस्कुरा कर पूछे ”क्यूं प्रिंसपल साहब, थोड़ा बहुत भारत देश का इतिहास हमने भी पढ़ा है लेकिन गांधी जी कभी गुल्ली-डंडा भी खेले थे, ये तो न पढा न किसी से सुना ।”

प्रिंसपल साहब के दिमाग पर भंग का नशा कुचीपुड़ी नृत्य कर रहा था । वो पहले तो सकपकाये फिर हंसते हुए कहे ”अरे महाराज गांधी महात्मा का गुल्ली-डंडा आपको किसी इतिहास की किताब में पढने को नहीं मिलेगा, लेकिन खेले तो वे थे ही अहिंसा के डंडे से अंगरेजों के साथ गुल्ली-डंडा ।” उसके बाद उन्होंने जो हंसना शुरू किया तो हंसते ही चले गये । भंग अपना काम कर चुकी थी । उनको हंसता देख कर सभी ने हास्यासन किया और ये माना कि खुल कर हंसने से शरीर के 265 रोगों का काम तमाम हो जाता है । जोगनाथ को ठंडई में पहले भी कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिए वो अपना इंतजाम पहले से ही करके आया था । उसने चुपके से अपने पैजामे की जेब से एक पन्नी निकाली और दीवाल की तरफ मुंह करके चूसने लगा ।

तभी बैठक के अंदर मलमल का कुर्ता और लंगोट पहने दो पहलवानों ने प्रवेश किया । लंगोट की पट्टी कमर में न खोस कर हाथी के सूंड़ की तरह लटक रही थी जो कि गंजहों के लंगोट पहनने की पुरातन स्टाईल थी । बद्री और छोटे पहलवान बैठक में पधार चुके थे । आते ही छोटे ने जोगनाथ के पिछवाड़े पर कस कर लात जमाते हुए कहा ”साले ! अगर पन्नी ही पीनी थी तो अपने दड़बे में जाकर पीता । यहां बैद महाराज की बैठक क्यों गंधवा रहा है ।“

जोगनाथ इसके पहले कि सर्फरी बोली पर उतरता शनीचर ने उसे ठेल ठाल कर बैठक के बाहर दलान में पहुंचा दिया । जोगनाथ पर कच्ची का नशा चढ़ चुका था वह वहीं एक कोने में पड़ कर खर्राटे भरने लगा । इस बीच रूप्पन बाबू ने चिल्लाकर बैठक मे बैठे सभी लोगों को चैका दिया । मैदान पर भारत और इंग्लैण्ड के कप्तान टास के लिए तैयार खड़े थे और मुस्कुराते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए एक दूसरे के हाथों की मजबूती परख रहे थे । अंपायर हाथ में सिक्का लिए खड़ा था और मन ही मन सोच रहा था कि टास कोई भी जीते लेकिन आज ये सिक्का मैं आई.सी.सी. को वापस नहीं करूंगा ।

टास भारत के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी ने जीता और पहले गेंदबाजी चुनी ।

शनीचर का मुंह उतर गया, निराश होकर बोला ”धत तेरे की, धोनिया पट्ठे को ये नहीं मालूम कि दूसरी इनिंग रात सवा बारह बजे के बाद शुरू होगी भारत में । अब चिरकुट अंगरेज पदायेगें और ये ससुरे पदेंगे ।“

इसके बाद सब चुप चाप टी.वी. में आंख गड़ाये मैच देखने लगे ।

----------------------

सुबह के नौ बज रहे थे । शिवपालगंज के गांव प्रधान शनीचर चड्ढी-बनियान में अपनी गुमटी नुमा परचून की दुकान पर बैठे थे । सामने टुटही बेंच पर लंगड़ और जोगनाथ बैठे थे । लंगड को तहसील से नकल अभी तक नहीं मिली थी । आज फिर वह नकल मिलने का आस में तहसील पर धावा बोलने जा रहा था । शनीचर का शिवपालगंजी बिग बाज़ार खुला देखकर वह बेंच पर सुस्ताने बैठ गया और शनीचर द्वारा दिया गया गुड़ का टुकड़ा खाने लगा । कबीरपंथियों वाला चेहरा बनाकर उसने पूछा ”बाबू कल रात मैच में कौन जीता ?“

शनीचर ने फुफकार कर सिर ऊपर उठाया और झल्लाकर बोला ”जीतेंगे क्या, कद्दू ! धोनी बहुत बड़े धुरंधर धोबी बने फिरते हैं, 20-20 में टेस्ट मैच खेल रहे थे । एक-एक, दो-दो रन लेकर अंगरेजों को हराने चले थे । चउआ मारे तो इनको एक जमाना हो गया । 3 रन से हरवा दिये । हम लोगों की रात खराब की सो अलग ।“

तब तक छोटे पहलवान नंगे बदन कमर पर लुंगी लपेटे उधर से गुजरे । क्रिकेट चर्चा कान में पड़ी तो रूक गये । ”हारेंगे नही तो क्या जीतेंगे । 40 दिन आई.पी.एल. में खूब पसीना बहाये, झमाझम नोट कूटे और जब देश के लिए खेलने का समय आया तब शिकार के वक्त कुतिया हगासी । अबे जब कंधे उखड़े हुए थे, टांग टूटी हुयी थी तब काहे चले गये इंग्लैण्ड भारत की लुटिया डुबाने ।“ छोटे पहलवान के नथुने फड़कने लगे बात खत्म करते करते ।

”पहलवान चोटों के बारे में बी.सी.सी.आई. को तो पहले ही पता रहा होगा । कुसूर तो बी.सी.सी.आई. का है। टुटहे खिलाड़ियों से वल्र्डकप नहीं जीते जाते । अब जब पानी का हगा उतरा आया है तब सब मुंह पीट कर लाल कर रहे हैं ।“ जोगनाथ का नशा उतर चुका था सो उसने भी राय देकर बहती गंगा में हाथ धो लिया ।

तभी उधर से प्रिंसिपल साहब बगल में कालेज की फाइलें दबाये हुए बैद्य जी के घर की तरफ लपके जा रहे थे । शनीचर सहित सभी गंजहों ने कोरस में प्रिंसपल साहब को नमस्कारी की । प्रिंसपल साहब ने बिना रूके हाथ उठा कर सभी को अभयदान दिया, मुंह में भरी पान की पीक बांयी तरफ थूकते हुए कहा कि अभी जल्दी में हैं, कालेज के लिए देरी हो रही है और दुलकी चाल में निकल गये ।

वैद्य जी बैठक में तख्त पर मसनदों के सहारे टिके बैठे थे । घुटनों में गठिया का प्रकोप बढ जाने के कारण अब वे पालथी मार कर नहीं बैठ पाते थे । देर रात तक मैच देखने के कारण रंगनाथ, रूप्पन, बद्री पहलवान सवेरे आठ बाजे सो कर उठे । अब सब बैठक में बैठे ”भारत क्यों हारा“ इस राष्ट्रीय शर्म के विषय पर विचार विमर्श कर रहे थे । प्रिंसपालसाहब के वहां पहुंचते ही कोरम पूरा हो गया और फिर विशेषज्ञों ने अपनी-अपनी टिप्पणियां प्रसारित करनी शुरू कर दीं ।

रूप्पन बाबू के चेहरा इस वक्त मरियल घोड़े के माहिक लटका हुआ था लेकिन आंखों मे क्रोधाग्नि धधक रही थी । मानो कुछ देर पहले ही उन्हें बेला और खन्ना मास्टर के भागने की खबर मिली हो । चीखते हुए बोले ”क्या जरूरत थी इशांत शर्मा को इतने जरूरी मैच में खिलाने की । आई. पी. एल. में तो लम्बू कुछ उखाड़ नहीं पाये सिवाय शाहरूख खान की नाईट राइडर्स का तंबू उखाड़ने के, इधर वल्र्ड कप में धोनी को पटरा कर दिये । रही सही कसर रोहित शर्मा से ओपनिंग करवा कर पूरी दी धोनी ने ।“ कहते-कहते उनके मंह से फिचकुर बहने लगा ।

रंगनाथ अब तक चुप बैठे हुए थे, जब हार का विश्लेषण हो ही रहा था तब उनका चुप रह जाना क्रिकेट के साथ गद्दारी होता । ”मैं तो कहता हूं कि रवीन्द्र जडेजा को युवराज के पहले भेजना ही नहीं चाहिए था । लौंडे ने 75 के स्ट्राइक रेट से रन बनाये और रिक्वायर्ड रन रेट को सूली पर चढा दिया । क्या कहें धोनी को, विनाश काले विपरीत बुद्धि ।“ रंगनाथ धोनी की बुद्धि का रोना रोकर चुप हो गये ।

रंगनाथ के बाद अब बद्री पहलवान की बारी थी । पहलवान जोश में खड़े हुए तो उनकी लुंगी कमर से फिसल कर शेयर मार्केट की तरह जमीन पर पहुंच गई । उन्होंने पहले लुंगी का स्तर ऊपर उठा कर उसे कमर पर कस कर लपेटा उसके बाद अपनी बात शुरू की । ”आखिर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सब अंग्रेज एक हो गये कि नहीं । 2007 के वल्र्ड कप में चैपल ने इनको चूतिया बनाया था । अब की कर्सटन ने बना दिया । जहां बड़े टूर्नामेण्ट का सवाल होगा वहां विदेशी कोच अपने देश की फिक्र करेगा न कि हमारी । दो साल से कोच हैं लेकिन अभी तक शार्टपिच गेंद खेलना नहीं सिखा पाये। इनसे अच्छी कोचिंग तो हम्मे दे देते धोनी की टीम को । अखाड़े में खड़े हो कर 100 बार मुद्गर घुमाने की प्रेक्टिस करवा देते फिर देखते कि कौन ससुरा शार्टपिच गेंद फैंकता है । बैट्समैन ऐसा पीटते कि न रहती गेंद और न रहता कौनेव बालर, सब ससुर हवा हवाई हो जाते ।“ उसके बाद बद्री पहलवान ने जोश और गुस्से में वहीं देखते-देखते 50 दंड बैठक लगा डाली । गुस्सा आने पर दंड बैठक करने का फार्मूला उन्होंने मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस. फिल्म के डा0 अस्थाना से प्रेरणा लेकर डिस्कवर किया था । डा0 अस्थाना गुस्सा आने पर lafter थैरेपी का प्रयोग करते थे, बद्री पहलवान व्यायाम थैरेपी पर भरोसा करते थे ।

प्रिंसिपल साहब ने एक फाइल बैद्य महाराज के सामने रखते हुए कहा ”महाराज दिल के अरमां आंसुओं में बह गये। ऐसी उम्मीद नहीं थी कि भारत सेमी फाईनल में भी न पहुंचेगा । बड़ा बुरा हुआ । रात भर टी.वी. के सामने आंखे फोड़ी । सवेरे उठने में जरा सी देर क्या हुयी कलमुंही भैंस ने सारा का सारा दूध पड़वे को पिला दिया । बाल्टी लेकर जब नीचे बैठे तो पता चला झूरा पड़ा था ।“

सभी दरबारीगण वैद्य महाराज का मुंह ताक रहे थे और वे निर्विकार चेहरा लिए फाइल में मुंह खोंसे बैठे थे । फाईल में आंखे गड़ाये-गड़ाये ही उन्होंने कहा ”हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, सब विधि हाथ ।“ इतना कह कर उन्होंने कान पर जनेऊ लपेटा और घर के अंदर चले गये ।



चमचा में गुन बहुत हैं सदा राखिये संग, कांग्रेस रोती फिरे सामन्ती के संग

-नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''-

अभी हाल ही में एक खबर पढ़ने में आयी कि कांग्रेस ने राजे रजवाड़े या सामन्ती प्रतीक नाम उल्लेखों के उपयोग पर रोक लगा दी है ! खबर ठीक है, और लगता है कि कांग्रेस देश में आधे अधूरे लोकतंत्र को या राजतंत्र के बदनुमा दागों को साफ कर साफ सुथरा परिपक्व लोकतंत्र लाना चाह रही है ! साधारण बुध्दि के हर व्यक्ति को यही आभास होगा ! मैंने इस पर चिन्तन किया ! मुझे इसलिये भी विचार करना पड़ा कि मेरा खुद का सम्बन्ध भी रजवाड़े से है और यह अलग बात है कि जो असल रजवाड़े या राजपूत हैं वे आमतौर पर किसी भी सामन्ती नामोल्लेख को नहीं करते ! असल राजा और राजवंश अधिकतर न तो आमतौर पर कुंवर, राजा या महाराजा या अन्य ऐसा कुछ लिखते हैं बल्कि सीधे सपाट अपना नाम लिखते हैं ! भारत में राजपूतों व रजवाड़ों में अपने उपनाम को साथ लिखने का सामान्य तौर पर रिवाज है जैसे मैं तोमर हूँ और तोमर राजवंश का प्रतीक उपनाम तोमर जो कि मुझे जन्म से ही मिला हुआ है अब भई इसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ !

अब तोमर राजवंश ने दिल्ली बसाई, महाभारत जैसा महान युध्द लड़ा, इन्द्रप्रस्थ निर्मित किया, महाराजा अनंगपाल सिंह ने दिल्ली में लालकोट बनवाया, लोहे की कील गड़वाई (लौह स्तम्भ) या सूरजकुण्ड हरियाणा में ठुकवा दिया या ऐसाह में गढ़ी बसाई या महाराज देववरम या वीरमदेव ने ग्वालियर पर तोमर राज्य स्थापना की तो इसमें मेरा क्या कसूर है ! अगर पुरखों को पता होता कि सन 2009 में जाकर उनके वंशजों को उनके कुकर्मों का दण्ड भोगना पड़ेगा और अपने होने की पहचान खत्म करना पड़ेगी और तोमर होना या कहलाना एक राजनीतिक दल विशेष के लिये अयोग्यता हो जायेगी या भारतीय जीवनतंत्र में उन्हें बहिष्कृत होना पड़ेगा तो वे काहे को ससुरी दिल्ली बसाते काहे को राज्य संचालन करते काहे को महाभारत लड़ते और काहे को इस भारत की सीमाये समूची एशिया तक फैलाते ! काहे को भगवान श्रीकृष्ण के वसुदैव कुटुम्बकम सिध्दान्त पर अमल कर अमनो चैन का शासन करते !

अब कुछ लग रहा है कि पुरखों ने दिल्ली बसा कर ही गलत कर दिया न दिल्ली होती न देश में टेंशन होता ! दिल्ली की वजह से पूरे देश में टेंशन है ! खैर चलो अच्छा हुआ कि हम किसी सामन्ती लफ्ज का इस्तेमाल नहीं करते, चलो अच्छा है कि हम कांग्रेस में नहीं है, अब तो भविष्य में भी नहीं जाना है, नही ंतो पता चलेगा कि चौबे जी छब्बे बनने गये थे और दुबे बन कर लौट आये यानि रही बची नाक और दुम कटा कर नकटा और दुमकटा भई हमें तो नहीं बनना ! ना बाबा ना ! कतई ना !

खैर यह कोई नई बात नहीं कांग्रेस ऐसे औंधे सीधे काम पहले से ही करती आयी है उसके लिये भगवान श्री राम एक काल्पनिक व्यक्ति थे, महाभारत एक काल्पनिक युध्द था ! होगा भई होगा कांग्रेस के लिये होगा, हमारे तो पुरखों ने लड़ा है सो भईया हम तो मानेंगे, मानेंगे मानेंगे !

चलो हमारी बात हम तक ठीक है वह तो खैर है कि भारत के कुछ राजपूत अपना उपनाम नहीं लिखते जैसे उ.प्र. के कुछ हिस्सों में कई राजपूत महज सिंह लिखते हैं यही हाल कुछ और प्रदेशों में भी है !

मेरे ख्याल से टाइटलिंग अक्सर वे करते हैं जो जनाना चाहते हैं और जताना चाहते हैं कि वे किसी राजघराने से हैं या राजपूत हैं या दो नंबर के राजपूत हैं (दो नंबर के राजपूत- यह राजपूतों का कोडवर्ड है भई इसका अर्थ है गुलाम राजपूत या मीठा पानी या जिनके खानदान में गड़बड़ आ गयी है) या नकली या फर्जी राजपूत जिन्हें बताना पड़ता है कि वे राजपूत हैं या वे कहीं के राजा रहे हैं ! कांग्रेस में कुछ ज्‍यादा ही नकली और फर्जी राजे रजवाड़े हैं जिनका काम स्‍वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों का साथ देना और उनकी चमचागिरी व जी हुजूरी करना ही था (हम नहीं कहते भारत का इतिहास कहता है) इन लोगों ने भारतीय स्‍वतंत्रता सेनानीयों और क्रान्तिकारीयों की अंग्रेजों के साथ मिलकर या उनका साथ देकर हत्‍यायें कीं और देश को आजाद होने में तकरीबन 100 साल (1657 से 1947 तक) लगवा दिये 1 देश के ये गद्दार आज कांग्रेस की ही शान नहीं बल्कि भारत के महान व माननीय हैं , इसीलिये कांग्रेस कहती है कि आजादी की लड़ाई से उसका रिश्‍ता रहा है, हॉं सत्‍य है आजादी की लड़ाई के गद्दारों की फौज उसके पास है । अभी हाल ही में महारानी लक्ष्‍मीबाई का बलिदान दिवस 18 जून को गुजरा, आजादी की लड़ाई से रिश्‍ता बताने वाली कांग्रेस के किसी भी सिपाही को शहादत साम्राज्ञी का नाम तक स्‍मरण करने की सुध नहीं आयी , आखिर आती भी क्‍यों महारानी लक्ष्‍मीबाई का कोई वंशज कांग्रेस में नहीं है , हॉं महारानी लक्ष्‍मीबाई की शहादत जिसके कारण हुयी वह गद्दार जरूर कांग्रेस में है और माननीय एवं कांग्रेस के कर्णधार हैं । आप नहीं जानते तो बता देते हैं कि एक फर्जी रजवाड़ा ऐसा भी है जिसे महारानी लक्ष्‍मीबाई के शहादत स्‍थल पर जाने की इजाजत नहीं है । और कांग्रेस यानि आजादी की लड़ाई वाली कांग्रेस का सच्‍चा सिपाही है । मालुम है क्‍यों .......नहीं तो पता लगा लीजिये । शायद इसीलिये कांग्रेस को भारत के असल इतिहास से चिढ़ है और उसे बार बार बदलने और तोड़ने मोड़ने मरोड़ने की नौटंकी रचती रहती है । उसका वश चले तो भारत का इतिहास पूरी तरह खत्‍म ही कर डाले, यहॉं की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक परम्‍परायें पूरी तरह नेस्‍तनाबूद कर डाले । भगवान राम, भगवान श्री कृष्‍ण, राजा हरिश्‍चन्‍द्र, महाराणा प्रताप सब के सब काल्‍पनिक मिथक हैं 1

हालांकि आज न राजा रहे न रजवाड़े मगर राजा रजवाड़े और राजपूत के नाम पर कई लोग ऐश फरमा रहे हैं, आज तक राज कर रहे हैं ! मौज मार रहे हैं ! अधिकांशत: इनमें फर्जी या नकली राजा हैं ! जिनका राजवंश या कुल गोत्र खानदान या रजवाई से कोई ताल्लुक नहीं रहा ! मगर आज तो जलजला ऐसे नकली राजाओं का ही है !

कुछ उपाधियां या नाम प्रतीक सामन्ती नहीं होते

अब जब बात छिड़ी है तो लगे हाथ बता दें कि कुंवर, राज, श्रीमंत आदि जैसे पूर्व नाम सम्बोधन सामन्ती नहीं हैं ! भारत के हिन्दू समाज में चाहे वह जाति से बनिया हो या चमार हो या भंगी हो या गूजर हो या ब्राह्मण हो या राजपूत हो अपने दामाद या बिटिया के पति को हमेशा ही कुंवर साहब ही कह कर संबोधित करते हैं यहॉ तक कि पूरा गॉंव ही किसी भी जाति के दामाद को कुंवर साहब ही कह कर बुलाता है या गाँव मजरे में बाहर के मेहमान को कुंवर साहब ही कहा जाता है यह एक सम्मान का श्रेष्ठ आदर देने का एक प्रतीक उल्लेख है न कि सामन्ती प्रतीक ! पता नहीं किस बेवकूफ ने कुंवर जैसे नित्य प्रयोगी शब्द को सामन्ती बता दिया ! पहले तो उस बेवकूफ को ढंग से हिन्दी सीखनी चाहिये फिर भारतीय हिन्दू समाज, संस्कार व सभ्यता को जानना चाहिये !

मेरे गाँव में एक युवक है जिसका नाम है कुमरराज या अधिक शुध्द हिन्दी में कहें तो कुंवर राज ! बेचारा गरीब किसान है सबेरे खा ले तो शाम का हिल्ला नहीं ! उसकी तो ऐसी तैसी हो गयी ! इसे तो गारण्टी से जिन्दगी में कांग्रेस में एण्ट्री नहीं मिलेगी ! भारत के गाँवों में हजारों लाखों कुअर सिंह, कुंवर सिंह, कुवरराज भरे पड़े हैं कांग्रेस के लिये ये अछूत हो गये !

श्रीमंत शब्द भी सामन्ती नहीं है भाई ! या तो आप सही हिन्दी नहीं जानते या फिर हिन्दू समाज के बारे में अ आ इ ई नहीं जानते ! हिन्दूओं में किसी को भी श्री लगा कर सम्बोधित करना बहुत पुराना रिवाज है और श्री का अर्थ होता है लक्ष्मी ! श्री और मन्त को मिलाने पर बनता है श्रीमन्त अर्थात लक्ष्मीमन्त या लक्ष्मीवन्त या लक्ष्मीवान यानि अति धनाढय व्यक्ति यानि श्रीमंत बोले तो नगरसेठ !

श्रीमंत शब्द राजा या रजवाड़े का प्रतीक नहीं है बल्कि अधिक पैसे वाले का द्योतक है ! श्रीमंत शब्द ग्वालियर के सिंधिया परिवार के लिये प्रयोग किया जाता रहा है ! और जिसका साफ अर्थ है कि अति धनाढय होने के कारण इस परिवार को श्रीमंत कह कर पुकारा गया न कि राजा या सामन्ती कारणों से !

एक कहानी - नाम में क्या धरा है

एक बहुत पुरानी कहानी है, हिन्दी में है और लम्बे समय तक स्कूलों में पढ़ाई जाती रही है जिसका शीर्षक है - नाम में क्या धरा है ! कांग्रेस को इसे पढ़ना चाहिये !

साथ ही यह भी पढ़ना चाहिये -

जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान !

मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान !!

वैसे मेरे विचार में कांग्रेस शायद कुछ और करना चाहती होगी लेकिन भटक गयी और कर कुछ और बैठी ! कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या सामन्ती प्रतीक या सामन्तीक नामोल्लेख नहीं बल्कि उसके नेताओं का सामन्ती रवैया एवं आचरण है ! उसके पास नेता कम और चमचे ज्यादा हैं ! उसके जो चन्द नेता हैं उन्हें रूआब जमाने और चमचे पालने का खासा शौक है ! कांग्रेस में टिकिट तक किसी न किसी की चमचागिरी से ही मिलता है ! और उसका नेता जो कि अपने खास व अंधे चमचे को टिकिट दिलाता है ! पॉच साल तक उसके चुन लिये जाने के बाद भी उसे नेता नहीं बनने देता बल्कि चमचा बनाये रखता है और अपने दरवाजे पर ढोक बजवाता है !

ग्वालियर चम्बल में आप जैसे ही कांग्रेस टिकिटों की बात करते हैं तो हर चुनाव में पत्रकार पहले ही अखबारों में संभावित नाम उछाल देते हैं और कांग्रेस के उम्मीदवार बता देते हैं ! क्या आप बता सकते हैं कि ऐसा कैसे होता है ! ग्वालियर चम्बल के पत्रकार इसका अधिक सटीक उत्तर दे सकते हैं, पत्रकार अपनी पैमायश का फीता योग्यता या निष्ठा या पात्रता के आधार पर नहीं बल्कि चमचागिरी के आधार पर तय करते हैं और यह जान लेना बड़ा आसान है कि कौन कितना बड़ा चमचा है ! जो जितना बड़ा चमचा उसकी दावेदारी उतनी ही अधिक मजबूत !

जो चमचा है वह नेता कैसे हो सकता है , चमचा तो सदा चमचा ही रहेगा वह नेता कभी नहीं बन सकता, इसलिये अभी तक ग्वालियर चम्बल में कांग्रेस नेता पैदा नहीं कर सकी ! चमचों को नेता बनाना एक असंभव काम है ! जो कांग्रेस से बाहर रहे वे नेता बन गये ! हाल के विधानसभा और लोकसभा चुनाव परिणाम इसका स्पष्ट जीवन्त उदाहरण हैं !

कांग्रेस को सही मायने में लोकतंत्र लाना है तो सामन्ती प्रतीक या नामोल्लेखों के पचड़े से दूर अपने नेताओं के सामन्ती आचरण व व्यवहार से छुटकारा पाना होगा, चमचे पालने वाले नेताओं को हतोत्साहित करना होगा ! चमचे हटेंगे तो नेता अपने आप आ जायेंगे ! नेता किसी का चमचा नहीं हो सकता, नेता चाहिये तो चमचे खदेड़िये ! नेताओं के सामन्ती आचरण व व्यवहार को सुधारिये ! फिर आपको जरूरत ही नहीं पड़ेगी तथाकथित नाम प्रतीक उल्लेखों को रोकने की ! चमचे ढोक बजाना बन्द कर देंगें तो कांग्रेस का खोया रूतबा लौट आयेगा ! वरना गालिब दिल बहलाने को खयाल अच्छा है !

चमचा में गुन बहुत हैं सदा राखिये संग , सदा राखिये संग, काम बहुत ही आवें!

गधा होंय बलवान प्रभु भगवान बचावे, डाके डाले पापी जम के कतल करावे !!

चरणन चाटे धूल, चमचा महान बतावे, खुद ही जावे भूल मगर सबन को गैल बतावे !!