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12.9.09

यह वि‍‍कल्‍पों का युग है

मंगलेश डबराल सहृदय कवि‍ हैं। प्रमुख हिंदी कवि‍यों में उनकी गणना होती है। हाल ही उनका लेख 'चरनदास चोर नहीं'( 'एक जि‍द्दी धुन' ब्‍लाग पर देखें,वैसे यह लेख जनसत्‍ता में प्रकाशि‍त हो चुका है ) नजरों के सामने से गुजरा। यह लेखक शानदार गद्य और बहस का बेहतर उदाहरण है। इस लेख में मंगलेश डबराल ने कुछ ऐसी बातें कहीं हैं। कुछ ऐसे सवाल उठाए हैं जि‍न पर गंभीरता के साथ गौर करने की जरूरत है। मंगलेश डबराल के इस लेख की सबसे बडी कमजोरी है मौजूदा समय की गलत समझ। उन्‍होंने लि‍खा है, ''हमारे समाज में अगर यह बाजार का युग है तो साहित्य में इसे अंधकार का ही युग कहा जाना चाहिए। खासकर हिंदी समाज में अब न कोई बड़ा विचार रह गया है न कोई बड़ा स्वप्न और न कोई बड़ी रचना जो इन दोनों के मेल से उपजती है। इस अंधेरे में कभी कोई महाश्वेता देवी, कोई अरुंधति रॉय, कोई वरवर राव दिख जाते हैं जो प्रतिरोध के विचार को अपनी नैतिकता की तरह मानते हैं और हमें चेतावनियां देते रहते हैं जिन्हें हम उतनी ही तत्परता से अनसुना कर देते हैं। ''
'बाजारयुग' यानी 'अंधकारयुग',इस जमीन से खड़े होकर यदि‍ दुनि‍या को देखा जाएगा,परवर्ती पूंजीवाद के समस्‍त क्रि‍याकांड़ों को देखा जाएगा तो हम गलत नि‍ष्‍कर्षों पर पहुंचेंगे। इससे गलत समझ बनेगी। ‍ मौजूदा युग 'अंधकार युग' नहीं है। अपार संभावनाओं से भरा युग है। असंख्‍य वि‍कल्‍पों का युग है। परवर्ती पूंजीवाद के पहले हमारे समाज में सीमि‍त वि‍कल्‍प थे आज असीमि‍त वि‍कल्‍प हैं। प्रत्‍येक क्षेत्र में अनंत वि‍कल्‍प हैं। अभि‍व्‍यक्‍ति‍ से लेकर समाज व्‍यवस्‍था तक सभी क्षेत्रों में वि‍कल्‍पों की बाढ आयी हुई है। पहले दो ही वि‍कल्‍प थे। क्रांति‍ और बुर्जुआ व्‍यवस्‍था ।या सामंती व्‍यवस्‍था। आज अनेक कि‍स्‍म के प्रयोग क्रांति‍कारी और पूंजीवादी कतारों में चल रहे हैं। आप लैटि‍न अमेरि‍का में चल रहे परि‍वर्तनों को देखें, इन परि‍वर्तनों की कभी संभावना कि‍सी क्रांति‍कारी ने नहीं की थी।जो लोग हथि‍यारबंद जंग में मशगूल थे वे अब वोट के जरि‍ए सत्‍ता पर काबि‍ज हैं। चि‍ली में सन् 1973-74 में एलेंदे इस सपने को साकार करने के चक्‍कर में अपनी जान से हाथ धो बैठे। आज लैटि‍न अमेरि‍का में ऐसा नहीं है। लोकतंत्र के प्रति‍ क्रांति‍कारी कतारों में पैदा हुआ नया जोश और नयी समझ हमारे देश के उन लेखकों के लि‍ए भी मार्गदर्शन कर सकती है जो इस देश के लोकतंत्र को हि‍कारत ,अवि‍श्‍वास,बुर्जुआ व्‍यवस्‍था,जनवि‍रोधी व्‍यवस्‍था आदि‍ पदबंधों के जरि‍ए इकहरे ढ़ंग से देखते रहे हैं। संयोग से मंगलेश डबराल भी उनमें आते हैं। मंगलेश डबराल यह भूल ही गए हैं कि‍ सारी दुनि‍या में लोकतंत्र के प्रति‍ आस्‍थाएं पुख्‍ता हुई हैं। भारत में भी लोकतंत्र के प्रति‍ आस्‍थाएं पुख्‍ता हुई हैं। समाजवादी मुल्‍कों को भी लंगडाते हुए लोकतंत्र के रास्‍ते पर लौटना पडा है,लोकतंत्र के खि‍लाफ साम्‍यवादी और क्रांति‍कारी वि‍चारकों का तर्कशास्‍त्र अर्थहीन और अप्रासंगि‍क हो चुका है। परवर्ती पूंजीवाद ने समाज को देखने का स्‍टीरि‍योटाईप नजरि‍या,वि‍चारशास्‍त्र अप्रासंगि‍क बना दि‍या है। देंग जि‍याओं पिंग से लेकर राहुल कास्‍त्रो,पुति‍न से लेकर कि‍म इल सुंग सबके वि‍चारशास्‍त्र बदल रहे हैं। हिंदी लेखकों का भी स्‍टीरि‍योटाईप टूटेगा लेकि‍न सबसे अंत में। मंगलेश डबराल को तकलीफ है '' हिंदी समाज में अब न कोई बड़ा विचार रह गया है न कोई बड़ा स्वप्न और न कोई बड़ी रचना।'' बडे वि‍चार,स्‍वप्‍न आदि‍ के लि‍ए बडे सत्‍य को पकडने की जरूरत होती है ,हिंदी का लेख पुराने सत्‍य,लघु सत्‍य में उलझा हुआ है। वह बोलने वालों की आवाज हो गया है। कायदे से उसे गूंगे लोगों की आवाज बनना चाहि‍ए। साहि‍त्‍य जब तक गूंगे लोगों की आवाज नहीं बनेगा,अदृश्‍य यथार्थ का उद्घाटन नहीं करेगा,तब तक बड़ा वि‍चार पैदा नहीं होगा।यह स्‍थि‍ति ज्‍यादा दि‍न चलने वाली नहीं है।‍
हिंदी में देर से परि‍वर्तन होता है। सारी दुनि‍या में वि‍कल्‍पों की आंधी चल रही है। हिंदी में इसकी आहटें सुनी जा सकती हैं। तमाम कि‍स्‍म के स्‍वयंसेवी संगठनों के द्वारा परंपरागत राजनीति‍क सांगठनि‍क संरचनाओं के परे जाकर जनता के हि‍तों के सवालों पर लडते देख सकते हैं। ये वे लोग हैं जो कारपोरेट घरानों से धन लेते हैं और जनहि‍तों के सवालों पर आमलोगों को गोलबंद करते हैं। ये ऐसे संगठन हैं जि‍नकी आय के स्रोत के बारे में केन्‍द्र सरकार जानती है। अभी भी परंपरागत राजनीति‍क दलों की आय के स्रोत के बारे में केन्‍द्र सरकार बहुत कम जानती है। कहने का अर्थ है कि‍ लोकतांत्रि‍क पारदर्शिता को स्‍वयंसेवी संगठनों ने अपनी कार्यप्रणाली का आधार बनाया है और यह राजनीति‍क तौर पर लोकतंत्र के लि‍ए शुभ संकेत है। आज से चालीस साल पहले हम सोच ही नहीं सकते थे कि‍ भारत में इतने स्‍वयंसेवी संगठन होंगे। इस परि‍प्रेक्ष्‍य में देखें तो समझ पाएंगे कि‍ यह वि‍कल्‍पों का युग है अंधकार का नहीं।
दूसरी बात यह कि‍ प्रति‍रोध का वि‍चार हमेशा नैति‍कता के आधार से ही चुनौती देता है,वह सामाजि‍क आधार से चुनौती नहीं देता,खासकर अरून्‍धती राय वगैरह के वि‍चारों का कोई तयशुदा सामाजि‍क‍ स्रोत नहीं है। ये घुमंतू वि‍चारक हैं। वे वि‍चारों में जि‍तने तेज हैं वैचारि‍क परि‍वर्तन के मामले में भी उतने ही तेज हैं। इस तरह के 'तेज वि‍चारकों' ने ही परवर्ती पूंजीवाद का शास्‍त्र रचा है। साथ ही पूंजीवाद में नैति‍कता के जो कि‍ले वि‍चारशास्‍त्र तोड नहीं पाया उन सभी कि‍लों को परवर्ती पूंजीवाद की नयी तकनीक ,नए वि‍चारकों और नयी वि‍चारप्रणाली ने ध्‍वस्‍त कि‍या है। यह प्रक्रि‍या जारी है। जो पहले नहीं टूटा वह अब टूट रहा है। जो पहले नहीं बदला वो अब बदल रहा है। जो पहले नहीं मानता था अब मान रहा है। परवर्ती पूंजीवाद का एक ही मंत्र है 'वि‍कल्‍पों को मानो और टि‍के रहो।' जो पुराने लोग वैकल्‍पि‍क समाज व्‍यवस्‍था बनाने की जंग में लगे हैं ,उन्‍हें भी अपना पुराना जड़ वि‍कल्‍पराग त्‍यागकर नया वि‍कल्‍पराग अपनाना होगा। वरना आउट। मंगलेश डबराल भोले हैं।मंगलेश डबराल ने लि‍खा है, ''''उदय प्रकाश जिन सरलीकरणों की आलोचना करते दिखते हैं, खुद भी उनके शिकार लगते हैं। वे उत्तर-आधुनिक फैशन में महावृत्तांतों और मोनोलिथ वैचारिकताओं को सरलीकृत और उनके टूटने से पैदा हुई अस्मिताओं को जटिल संरचना मानते हैं। महावृत्तांतों को वे एक गहरे संशय से देखते हैं, लेकिन लघुविविमर्शों के लिए कोई आलोचनात्मक कसौटी नहीं अपनाते। ''
अब 'कसौटी' नाम की अब कोई चीज नहीं हो सकती। 'कसौटी' पर कसने के चक्‍कर में यह भूल ही गए हैं कि‍ 'कसौटी' कोई टि‍काऊ या जड़ चीज नहीं है। यथार्थ बदला है तो कसौटी भी बदलेगी। अनेक चीजों का लोप हुआ है तो 'कसौटी' का भी लोप होगा। यह कैसे हो सकता है यथार्थ नया हो और कसौटी पुरानी रहे। पुरानी कसौटी पर नए यथार्थ को परखने से सही रूप में चीजें दि‍खाई नहीं देतीं और ठीक से समझ में भी नहीं आतीं। नए युग की वि‍शेषता है 'कसौटी' का अंत। अब यथार्थ है अथवा 'फेक यथार्थ' है। अथवा नि‍र्मित यथार्थ है।
‍ नि‍र्मि‍त यथार्थ की वर्चुअल तकनीक के कारण संभावनाएं बढ गयी हैं और अभी वर्चुअल यथार्थ आक्रामक है लेकि‍न यथार्थ भी आक्रामक शक्‍ल ले सकता है,अनेक देशों में आर्थि‍क मंदी ने यथार्थ को आक्रामक बना दि‍या है, उसके कारण परवर्तीं पूंजीवाद के द्वारा पैदा की गयी वर्चुअल चमक अब प्रभावि‍त नहीं करती। इस प्रक्रि‍या में महावृत्‍तान्‍त का अंत नहीं हुआ है नए कि‍स्‍म के महावृत्‍तान्‍त रचे जा रहे हैं,अंतर यह है कि‍ पहले सि‍र्फ महावृत्‍तान्‍त पर ही बहस होती थी अब लघुवृत्‍तान्‍तों पर ज्‍यादा बहस होती है। फलत: महावृत्‍तान्‍त और लघुवृत्‍तान्‍त के बीच का असंतुलन कम हुआ है।
मंगलेश डबराल ने लि‍खा है, ''उदय प्रकाश ने पूछा है कि ‘विरोध और भर्त्सना के अलावा हम और क्या कर सकते हैं।’ इसका जवाब यही हो सकता है कि हम विरोध और भर्त्सना का मूल कर्तव्य न छोड़ें। खासकर तीसरी दुनिया के लिए एडवर्ड सईद की यह सलाह शायद हमेशा याद रखने लायक है कि बुद्धिजीवियों को प्रतिपक्ष की ही भूमिका निभानी होगी।''
एडवर्ड सईद ने यह नहीं कहा था कि‍ बुद्धि‍जीवी को प्रति‍पक्ष की भू‍मि‍का अदा करनी होगी। बल्‍कि‍ यह कहा था बुद्धि‍जीवी को सत्‍य का हि‍मायती होना चाहि‍ए। सत्‍य के पक्ष में हर कीमत पर खडा रहना चाहि‍ए।
सत्‍य की पक्षधरता के अभाव में फूट का जितना व्यापक कैनवास भारत के बुध्दिजीवियों के बीच में दिखता है उतना व्यापक कैनवास अन्यत्र दिखाई नहीं देता। भारत के अधिकांश बुध्दिजीवियों में मानवाधिकार चेतना का पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। मानवाधिकारों के साथ वे अपनी कलम और जिन्दगी का मिश्रण तैयार नहीं कर पाए हैं।
बुध्दिजीवियों में सत्य पाने का आग्रह कम हुआ है। भारत का बुध्दिजीवी सत्य को पाने और खोजने में अपनी शक्ति व्यय नहीं करता बल्कि राजनीतिक विचार विशेष की अभिव्यक्ति में उसकी दिलचस्पी ज्यादा रहती है। तदर्थ सत्य में दिलचस्पी ज्यादा होती है। बुध्दिजीवी में सत्य को पाने का आग्रह जितना प्रबल होगा उतना ही प्रबल आग्रह सत्य की अभिव्यक्ति का भी होगा। सत्य को पाए बिना सत्य के साथ खड़े होना मुश्किल है। सत्य को पाने का अर्थ है मानवता और न्याय के पक्ष में अविचलभाव से खड़ा होना।
भारत का बुध्दिजीवी जाने-अनजाने सत्य को अकादमिक आंखों से देखता है, अकादमिक आंखों से देखने से सत्य हमेशा अस्पष्ट,विभाजित,भ्रमित करने वाला नजर आता है। इसके कारण ही बुध्दिजीवी कतारों में मानवीय सवालों पर भेद और फूट नजर आती है। हमारे बुध्दिजीवी के लिए सत्य किताबी चीज है। वह सत्य को देखकर उद्वेलित नहीं होता,यही स्थिति वाम बुध्दिजीवियों की भी है।
सत्य को पाने के लिए, सत्य को खोजने का आग्रह होना चाहिए, सत्य के आग्रह के लिए सत्य के प्रति वचनवध्दता होनी चाहिए। सत्य को राजनीति नहीं समझना चाहिए। राजनीतिक नजरिए से जब भी सत्य को देखेंगे सत्य पर भेद का पर्दा गिर जाएगा। बुध्दिजीवी को सत्य को बगैर किसी पर्दे के देखना चाहिए। बगैर किसी सहारे के देखना चाहिए। पर्दे या सहारे के जरिए देखा गया सच भ्रम पैदा करता है,भेदबुध्दि पैदा करता है। बुध्दिजीवी का मूल कार्य भेदबुध्दि को नष्ट करना ,भ्रमों को नष्ट करना है।
बुध्दिजीवी वह है जो सभी किस्म के पर्दों को उद्धाटित करते हुए सत्य तक पहुँचता है। सत्य को पाने के लिए जुनून का होना बेहद जरूरी है। हमारे समाज में सत्य के जुनूनी बुध्दिजीवी कम और राजनीतिक जुनूनी बुध्दिजीवी ज्यादा हैं।

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