नव्य-उदारतावाद के मौजूदा दौर में समाचार की बजाय जंक समाचार ज्यादा आ रहे हैं। ये वे समाचार हैं जो देखने में चटपटे किंतु सारहीन होते हैं। इनका सामाजिक मूल्य नहीं होता । इस तरह के समाचारों का टीवी कवरेज से लेकर प्रिंट मीडिया तक फैल जाना इस बात का संकेत है कि मौजूदा दौर समाचार का नहीं जंक समाचार का युग है। इसके अलावा जो सारवान समाचार दिखाए जा रहे हैं उनमें खास किस्म का मनमानापन झलकता है। मसलन् हमेशा आधी-अधूरी कहानी बतायी जाती है। भ्रमित करने वाली शीर्ष पंक्तियां बनायी जाती हैं। तथ्यों में सुधार चुनिंदा ढ़ंग से किया जाता है। जिस कहानी में किसी तरह का तथ्य अपुष्ट प्रमाणों को समाचार कहानी बनाकर पेश किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खबरों में ऐसी स्टोरियों और तथ्यों से बचा जाता है जो अमेरिकी नीति के लिए ठीक न हों। अथवा उनके बारे में नकारात्मक प्रभाव पैदा करने वाली हों।
आज समाचार के नाम पर सिर्फ मनोरंजन की खबर होती है,आकर्षक चेहरे की खबर होती हैं। 'चेहरा' आज टीवी खबरों में बड़ा कारक तत्व बनकर सामने आया है खासकर महिला समाचारवाचिका अथवा एंकर के रुप में सुंदर चेहरे की लड़की ज्यादा पसंद की जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि एंकर के रुप में अमिताभ बच्चन से लेकर जॉनी लीवर तक को सहज ही देखा जा सकता है। यह आकर्षक चेहरे,सैलीब्रेटी चेहरे और सुंदरता की परेड है। इससे टीकी एंकर की परंपरा ही बदल गयी है। यही स्थिति खेलों की है। अब खेल के कार्यक्रमों में खेल संवाददाता नहीं बल्कि स्वयं खिलाडी ही अपना मूल्यांकन करते रहते हैं,खिलाड़ी खिलाडी के बारे में बताता रहता है,इससे खेल पत्रकारिता का भी चरित्र बदला है। जब खिलाडी ही व्याख्याकार हो जाएगा,जब फिल्म के बारे में निर्देशक और अभिनेता ही मूल्यांकन करने लगेंगे तो ऐसा मूल्यांकन विश्लेषण और वस्तुगतता से रहित होगा। इस तरह की प्रस्तुतियों में आत्मगत तत्व हावी रहेगा। बल्कि यह भी कह सकते हैं कि समाचारों में सुंदरता और आत्मगत भाव की परेड हो रही है।
टीवी वाचक के चेहरे हाव-भाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठे हैं। साथ ही समाचार का गप्प, सनसनी और निर्मित विवादों में रुपान्तरण कर दिया गया है। इस तरह की खबरें जनता की बुध्दि पर हमला है, उसका अपमान है,ये यथार्थ जीवन के संदर्भ की उपेक्षा करती हैं, बर्नस्टीन के शब्दों में '' अच्छी पत्रकारिता जनता को चुनौती देती है,वह उसका विवेकहीन ढ़ंग से शोषण नहीं करती।'' आज स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि सरकारी सूत्रों से हासिल सूचनाओं और ब्यौरों को बगैर किसी तहकीकात के सीधे पेश कर दिया जाता है। इस संदर्भ में विश्व विख्यात पत्रकार वॉब बुडवर्ड के शब्दों को स्मरण करना प्रासंगिक होगा। बुडवर्ड ने लिखा है कायदे से सरकारी स्रोत से निकली खबर की संवाददाता को अपनी खोज के जरिए पुष्टि करनी चाहिए। इससे जनतंत्र का विकास होता है किंतु जब संवाददाता सिर्फ सरकारी स्रोत के आधार पर ही खबर देने लगे तो इससे सर्वसत्तावादी समाज का निर्माण होता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो सामयिक खबरें जनतंत्र का नहीं सर्वसत्तावादी समाज का निर्माण कर रही हैं। उल्लेखनीय है वाटरगेट कांड से लेकर इराक युध्द तक वुडवर्ड ने बड़े पैमाने पर रहस्योद्धाटन किए हैं। वुडवर्ड कहता है हमें उस केन्द्रीय कारक की तलाश करनी चाहिए जिसके कारण सरकार उस तरह की सूचनाएं दे रही है। जनतंत्र में प्रेस दूसरा स्रोत मुहैयया कराता है। उसके आधार पर नागरिक तय कर सकते हैं कि क्या सही है। कौन सी स्टोरी सही है।
1 comment:
किसानों मजदूरों और गरीबों की ख़बरों पर नज़र तो बराबर रहती है लेकिन
क्या करें उनको लो प्रोफाइल कहकर कवर करने को ही मना कर दिया जाता है. आपकी भावनावों की कद्र करता हूँ.
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