गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के ब्राँड एम्बेसडर के रुप में अमिताभ बच्चन की स्वीकृति हासिल करके कमाल किया है, यह हाइपररीयल मोदी का हाइपररीयल अमिताभ से मिलन है। यह मोदी और आरएसएस की इमेज प्रबंधन रणनीति,जन-संपर्क कला और मीडिया कौशल की सबसे बड़ी सफलता है। हमें हाइपररीयल मोदी फिनोमिना को गंभीरता के साथ समझने की जरुरत है।
हाइपररीयल राजनीति की केन्द्रीय विशेषता है कि वह आयामकेन्द्रित होती है। कृत्रिम होती है। कृत्रिम स्मृति निर्मित करती है। अन्तर्निहित नियंत्रण को उभारती है। पहले वाली इमेजों को तरल, सरल और नरम बनाती है। तरल,नरम और सरल इमेजों का ताना-बाना नेता की इमेज को भी परिवर्तित करता है और आम लोगों के जेहन से नेता की पुरानी इमेज को धो देता है। तरल,नरम और सरल का चरमोत्कर्ष था नरेन्द्र मोदी का विधायकदल की बैठक में रो पड़ना। भाजपा के साथ अपने रिश्ते को माँ-बेटे के रिश्ते के रूप में परिभाषित करना। माँ-बेटे का रिश्ता तरल,नरम और सरलता की आदर्श मिसाल माना जाता है।
गुजरात के गौरव और अस्मिता की थीम के बहाने मोदी ने गुजरात के जनमानस का पुनर्निर्माण किया है। उसकी मनो-चित्तवृत्तियों को पुनर्निर्मित किया है। गुजरात अस्मिता और गौरव के हाइपररीयल आख्यान को अनुकरणात्मक रणनीति के तहत पेश किया है।
यह एक तरह का 'माइक्रोवेब डिसकम्युनिकेशन' है। इलैक्ट्रिक संवेदना और भावों का निर्माण है। इसमें आंकड़े चकाचौंध करने वाले होते हैं। भाषण भ्रमित करने वाले होते हैं। प्रौपेगैण्डा के जरिए 'सिंथेटिक कल्ट' पैदा किया जाता है। बौने लोग बड़े नजर आने लगते हैं। महानायक नजर आने लगते हैं।
मोदी मूलत: वर्चुअल नायक है। इसके चारों ओर वर्चुअल चौकसी जारी है। अदृश्य बौद्धिकता का वातावरण है। प्रचार के लिए,खासकर मीडिया प्रचार के लिए पेशेवर लोगों का इस्तेमाल किया जा रहा है।
हाइपररीयल प्रचार रणनीति मूलत: मेगनेटिक निद्राचारी की रणनीति है।हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा वातावरण बनाता है। यह निर्मित वातावरण है,स्वाभाविक वातावरण नहीं है। इसमें दाखिल होते ही इसकी भाषा बोलने के लिए मजबूर होते हैं। इसके स्पर्श में बंधे रहने के लिए अभिशप्त होते हैं। एक बार इस वातावरण में दाखिल हो जाने के बाद वही करते हैं जो वातावरण निर्देश देता है। आप बातें नहीं करते, बहस नहीं करते सिर्फ निर्मित वातावरण के निर्देशों के अनुसार काम करते हैं। इस क्रम में धीरे-धीरे आपकी चेतना भी बदलनी शुरू हो जाती है। इसी को चुम्बकीय प्रचार अभियान का जादुई असर कहते हैं। इसी को मीडिया ने ’मोदित्व’ और ’मोदीमीनिया’ कहा गया।
चुम्बकीय प्रचार अभियान समयकेन्द्रित संपर्क पर आधारित होता है। नियमन करता है और अनुकरण के लिए उदबुद्ध करता है। चुम्बकीय घेरे में एकबार आ जाने के बाद नियंता के जरिए जो भी संदेश,आदेश मिलते हैं व्यक्ति उनका पालन करता है। व्यक्ति में यह क्षमता नहीं होती कि उसके बाहर चला जाए। व्यक्ति बहुत ही सीमित दायरे में रखकर चीजें देखने लगता है,जिन चीजों से डर लगता है उनसे ध्यान हटा लेता है। वैविध्यपूर्ण संवेदनाओं से ध्यान हटा लेता है। वह एकदम आराम की अवस्था में होता है अथवा भय की।
हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा की भाषिक रणनीति वह नहीं है जो प्रिंटयुग की भाषिक रणनीति है। प्रिंटयुग की सटीक भाषा ठोस यथार्थ पर आधारित होती है। उसके अनुरूप भाषा चुनी जाती है। भाषा और यथार्थ में अंतर नहीं होता। इसके विपरीत हाइपरीयल भाषा ठोस यथार्थ को व्यक्त नहीं करती। बल्कि निर्मित या कृत्रिम यथार्थ को व्यक्त करती है।
यह इमेजों की भाषा है। अयथार्थ भाषा है। यह ऐसी भाषा है जिसे आप पकड़ नहीं सकते। ठोस यथार्थ से जोड़ नहीं सकते । यह मूलत: पेशेवर लोगों की भाषा है जिसे धीरे-धीरे साधारणजन भी अपनाने लगते हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में इसका व्यापक प्रयोग हुआ था।
इस भाषा का वास्तव संदर्भ से कोई संबंध नहीं होता। यह संदर्भरहितभाषा है। अथवा संदर्भ प्रच्छन्न रहता है अदृश्य रहता है। प्रिंटयुग की भाषा में संदर्भ खुला होता था। संदर्भरहित होने के कारण ही इसकी अनेकार्थी व्याख्याएं होती हैं। ''पांच करोड़ गुजरातियों की अस्मिता'' के नारे के तहत जिस भाषा का इस्तेमाल किया गया उसने 2002 के हिंसाचार को अप्रासंगिक बना दिया। अस्मिता में निहित बर्बरता पर पर्दा डाल दिया। हाइपररीयल भाषा ने साम्प्रदायिकता को नंगा करने वाली भाषा को अप्रासंगिक बना दिया । असंप्रेषणीय बना दिया ।
साम्प्रदायिकता को नंगा करने वाली भाषा अब मर्मस्पर्शी भाषा नहीं गयी है। वह जड़पूजावाद की शिकार हो गयी है। वह देवत्वभाव की शिकार हो गयी है। प्रयोगकर्ता यह मानकर चलता है कि साम्प्रदायिकता के बारे में ज्योंही कुछ बोलना शुरू करेंगे लोग आशा ,उम्मीद और भरोसे के साथ जुड़ना पसंद करेंगे।
किंतु साइबरयुग में ऐसा नहीं होता, साम्प्रदायिकता विरोध जड़पूजावाद का शिकार हो चुका है और जब कोई विषय और उसकी भाषा अहर्निश पुनरावृत्ति करने लगे तो समझो वह अप्रासंगिक हो गयी है अथवा अप्रासंगिकता की दिशा में जा रही है।
इस प्रसंग में साम्प्रदायिक-तत्ववादियों और आतंकवादियों की भाषा के प्रयोगों को गौर से देखें। वे कभी रूढ़िगत भाषा का प्रयोग नहीं करते और अप्रासंगिक सवाल नहीं उठाते। वे भाषा की पुनरावृत्ति नहीं करते। वे लगातार मुद्दे बदलते हैं। हमेशा सामयिक मुद्दे के साथ हमला करते हैं। सामयिक व्यक्ति पर हमला करते हैं। उन्हें प्रासंगिक अथवा सामयिक पसंद है। प्रच्छन्नभाषा अथवा कृत्रिम भाषा पसंद है।
हाइपररीयल प्रौपेगैण्डा में व्यक्ति के अवचेतन को निशाना बनाया जाता है। यथार्थ की घेराबंदी की जाती है। ऊपर से आपको यही लगता है कि आप इससे परे हैं। चुम्बकीय प्रचार अभियान सहजजात संवेदनाओं को सम्बोधित करता है। उसके जरिए ही व्यक्ति के व्यवहार और आदतों को नियंत्रित किया जाता है। धीरे-धीरे उसे इस सबका अभ्यस्त बना दिया जाता है। इस कार्य में भाषा बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है।
भाषा के स्तर पर साम्प्रदायिक और फासीवादी ताकतें 'और', 'किंतु','परंतु','मसलन्', 'क्योंकि','इसलिए', 'कब' का वैचारिक सेतु के रूप में इस्तेमाल करती हैं। जब 'और' आदि का इस्तेमाल अमूमन यथार्थ से ध्यान हटाने के लिए किया जाता है। ध्यान हटाने के लिए ऐसे सत्य का इस्तेमाल किया जाता है जिसका संदर्भ ही अलग होता है। प्रौपेगैण्डा की भाषा में सत्य का इस्तेमाल अप्रत्यक्ष सुझाव देता है।
प्रौपेगैण्डा में 'सत्य' के प्रयोग समूचे विमर्श और सामाजिक- राजनीतिक ध्रुवीकरण की दिशा बदल देते हैं। समूचे वातावरण को बदल देते हैं। मसलन् सोनिया गांधी का विगत विधानसभा चुनाव में 'मौत के सौदागर' पदबंध का प्रयोग 'सत्यतापूर्ण' प्रयोग था। किंतु इसका मोदी के द्वारा दिया गया प्रत्युत्तर भी 'सत्य' था। किंतु संदर्भ भिन्न था। मोदी का अप्रत्यक्ष सुझाव था मेरे बारे में मत सोचो, चुपचाप मेरे पीछे चलो । मैं भी सत्य बोल रहा हूँ।
नरेन्द्र मोदी के द्वारा सोनिया पर 'सत्य' के आधार पर किया गया प्रहार किसी भी रूप में गुजरात के यथार्थ से मेल नहीं खाता था, जबकि सोनिया ने 'मौत के सौदागर'पदबंध का इस्तेमाल गुजरात के संदर्भ में किया था, किंतु मोदी ने जबावी हमले में सत्य की दिशा ही बदल दी। सत्य का अपने विलोम के साथ संबंध बनाना हाइपररीयल की विशेषता है। इस संदर्भ में सोनिया रीयल थी और मोदी हाइपररीयल। हाइपररीयल ने रीयल को पछाड़ दिया।
गुजरात का चुनाव राजनीति के आधार पर नहीं मीडिया राजनीति के आधार पर लड़ा गया। मुखौटों के जरिए लड़ा गया। हाइपररीयल राजनीति पूर्णत: भाषा के द्वारा नियंत्रित राजनीति है। राजनेता की जरा सी भाषायी त्रुटि उसका भविष्य खराब कर सकती है। भाषा के जरिए ही विचारों पर नियंत्रण रखा जाता है। भाषा ही है जो ध्यान आकर्षित करती है। बाहरी चीजों के जरिए संवेदनात्मक आकर्षण के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता। भाषा के बाहर की वास्तविक दुनिया संवेदनाओं को आकर्षित नहीं करती। भाषा जो छवि बनाती है वही छवि जेहन में तैयार होती है।
भाषा ही हाइपररीयल प्रचार की नियंता है। सवाल उठता है प्रचार अभियान के लिए वक्ता किस तरह का फ्रेम चुनता है। फ्रेम से ही अर्थ तय होगा। संदर्भ बनेगा। यदि आप ऐसा फ्रेम चुनते हैं जो अन्तर्निहित तौर पर खंडित अथवा त्रुटिपूर्ण हो तो विभिन्न किस्म की छवियों के जरिए आप इसकी क्षति पूर्ति नहीं कर सकते। बल्कि यह भी संभव है जिन विजुअल्स का इस्तेमाल किया जा रहा हो वे विभ्रम पैदा करें और चेतना बनाएं।
मौजूदा दौर तकनीकी कनवर्जंस का दौर है। तकनीकी कनवर्जंस का राजनीति पर भी गहरा असर हो रहा है। राजनीति में भी कनवर्जंस चल रहा है। 'हम' और 'तुम' को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। नए किस्म के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के युग का सूत्रपात हो चुका है। नए युग की मूल विशेषता है मुद्दा केन्द्रित साझा समझ का विकास। पहले अन्तर्विरोधी समझ हुआ करती थी, समग्रता में देखते थे,इन दिनों खंड रूप में देखते हैं। फलत: खंड यथार्थ की साझा समझ पर जोर देने लगे हैं। बृहत्तर परिप्रेक्ष्य पर साझा मोर्चे के युग का अंत हो गया है। बड़े लक्ष्यों के लिए संघर्ष का युग चला गया है। अब छोटे सवालों पर साझा समझ होती है।
सच यह है एकीकृत यथार्थ जैसी कोई चीज नहीं होती यथार्थ अपने तरीके से भिन्न दिशा में सक्रिय रहता है। यथार्थ के भिन्न धरातल होते हैं। मसलन्! भौतिकवादियों और भाववादियों , धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता, हम और तुम का धरातल और यथार्थ एक नहीं हो सकता। हाइपररीयल इन सब पर पर्दा डालता है,अन्तर्विरोधों को छिपाता है।
सन् 1980 के बाद से कांग्रेस ने जब से नव्य आर्थिक उदारतावाद का मार्ग चुना है उसके कारण उपभोक्तावाद की नयी आंधी आयी है। इसके राजनीतिक अंग के रूप में तेजी से संघ परिवार ताकत में आया है खासकर संसदीय जनतंत्र में उसका दखल और वर्चस्व बढ़ा है।
हाइपर उपभोक्तावाद और हाइपर तकनीकीवाद से भाजपा और संघपरिवार ज्यादा ताकतवर बना है। सभी राजनीतिक दल कमोबेश नव्य आर्थिक उदारतावादी नीतियों के तहत कार्य कर रहे हैं और किसी न किसी रूप में उसे मान चुके हैं। नव्य आर्थिक उदारतावादी नीतियों के प्रभावस्वरूप राष्ट्र-राज्य कमजोर हुआ है। समानान्तर सत्ताकेन्द्र,अवैध सत्ता केन्द्र,असंवैधानिक सत्ताकेन्द्रों की सत्ता के गलियारों में पकड़ मजबूत हुई है। सत्ता की तुलना में वे ताकतवर बने हैं। राज्य की मशीनरी कमजोर और राज्येतर मशीनरी अथवा तंत्र ज्यादा शक्तिशाली हो गया है। यह स्थिति विभिन्न राज्यों में देखी जा सकती है। यह लोकतंत्र के क्षय का लक्षण है। लोकतंत्र के खुलेपन की विदाई का संकेत है।
No comments:
Post a Comment