आज समाज धर्म या जाति के भंवर में ऐसा फंसा हुआ है कि उचित-अनुचित की सुध-बुध ही खो सी गयी है! धर्मान्तरण पर तो चर्चा खूब जोर-शोर से होती है लेकिन इस पर गौर नहीं किया जाता के ये हो ही क्यों रहा है!
यदि हम देखे तो जो हिन्दू बहुत गरीब या अनपढ़ है वो ही धर्म परिवर्तन जैसी गलतिया कर रहे है! उनमे भी अधिकतर वो हिन्दू है जिनको कुछ "विशेष हिन्दू" बड़ी घृणा की दृष्टी से देखते है! जो जैसा भी है उसको वैसा ही सम्मान तो मिलना ही चाहिए! ये तो ठीक है पर दण्ड तो अपराधी को ही देना चाहिए!
तो उस गरीब, अनपढ़ हिन्दू का यही अपराध है के वो एक हिन्दू है! वो बेचारा क्या करेगा? जिन आँखों में उसे अपने लिए सम्मान दिखाई देगा वो तो उन्हें ही अपना हमदर्द समझेगा, यही होना भी चाहिए! उन भोलो-भालो को नहीं पता के ये सम्मान नकली है, या ये कोई षड़यंत्र है!
मेरे एक मित्र की भावनाए जो मैंने महसूस की, उनको अपने शब्द देने की कोशिश की है! यदि शब्द भी उसी के प्रस्तुत कर दू तो "विशेष हिन्दुओ" को शर्म में डूब मरने के सिवाए कुछ रास्ता भी दिखाई ना दे!
तो
हमें जागना होगा, छोड़ना होगा ये झूठा दंभ! हर किसी में परमात्मा बताता है अपना धर्म, उनमे भी जिनको हम अपने घर में घुसने नहीं देते, अपने आसनों पर बैठने नहीं देते और तो और जो सबसे हास्यास्पद है, अपने भगवान् को भी पूजने नहीं देते! इस से पहले की कोई और क्षुब्ध, आक्रामक, असंतुष्ट धर्म जन्म ले हमे सब में परमात्मा देखना ही होगा!
इस पर चर्चा होनी चाहिए कि क्या कोई जाति धर्म से श्रेष्ठ हो सकती है! कोई कैसा क्यूँ है इसके कोई भी कितने भी कारण दे सकते है! लेकिन हम किसी के साथ कैसा भी व्यहार करते उसके कारण केवल हम दे सकते है जो कि हमारे चरित्र को, हमारे वयक्तित्व को दर्शाने वाले होते है!
कुंवर जी,
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