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4.6.10

माओवाद समर्थक बुद्धिजीवियों से चंद सवाल -ब्रज की दुनिया

कल मशहूर लेखिका अरुंधती राय ने माओवादियों का समर्थन करते हुए बयान दिया है कि उन्हें सरकार चाहे जेल में ही क्यों न डाल दे वे माओवादी हिंसा का समर्थन नहीं छोड़ेंगी.अरुंधती भारत में पैदा होनेवाली अकेली माओ नहीं हैं गांधी के इस देश में और भी कई माओ हैं.माओवादी हिंसा में चाहे उग्रवादी मारे जाएँ या फ़िर सुरक्षा बल का कोई जवान या फ़िर कोई आम आदमी मरेगा तो कोई भारतीय ही.हिंसा स्वयं एक समस्या है इसलिए यह कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती.हिंसक घटनाओं में सिर्फ एक आदमी नहीं मरता वास्तव में उसके साथ में मरते हैं उसके परिवार के सभी सदस्य भी, मरते हैं बच्चों के सपने और बूढों का बुढ़ापा भी.लेकिन इन छद्म साम्यवादियों को इससे क्या लेना-देना?इनका कोई अपना थोड़े ही झारखण्ड या छत्तीसगढ़ के जंगलों में विचारधारा की बन्दूक लिए भटक रहा है.एक मैनेजर पाण्डे को छोड़कर इन्होंने इस हिंसा-प्रतिहिंसा में कुछ भी नहीं खोया है.इनमें से कई बुद्धिजीवियों के बच्चे तो कथित पूंजीवादी देशों में पढ़ या नौकरी भी कर रहे हैं.पूंजीवादी डॉलर या पौंड तो इन्हें तहेदिल से कबूल है लेकिन पूंजीवाद इन्हें मौखिक रूप से ही सही पसंद नहीं है.स्वयं अरुधती को पूंजीवाद के जनक ब्रिटेन द्वारा दिया गया बुकर पुरस्कार बेहद भाया और यही वह पुरस्कार था जिसने उनकी पहचान भी बनाई वरना उन्हें कौन जानता था?क्या अरुंधती कभी गईं हैं जंगलों में माओवादियों की तरफ से बदूक चलाने या अपने परिवार के किसी सदस्य को भेजा है इस कथित वर्ग-संघर्ष में भाग लेने के लिए?शायद नहीं.मरेंगे तो गरीब आदिवासी.जिनके कन्धों पर किताबों का बस्ता होना चाहिए वे कंधे कच्ची उम्र में ही बन्दूक ढो रहे हैं और हत्या करना सीख रहे हैं.उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि सेना और अर्धसैनिक बल के जवान भी गरीब परिवारों से आते हैं.भला अमीर घरों के बच्चे क्यों ५-१० हजार की मामूली रकम के लिए अपने प्राण संकट में डालेंगे.कल अगर जिसकी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है माओवादी युद्ध जीत भी जाते हैं तो उनकी स्थिति वही होगी जो युधिष्ठिर की महाभारत के युद्ध के बाद थी.चारों तरफ जो लाशें बिखरी पड़ी होंगी वे किसी गैर की नहीं होगी बल्कि अपनों की होगी.विचारधारा के नाम पर करोड़ों का क़त्ल करवाकर लेलिन-स्टालिन या फ़िर माओ ने क्या पा लिया?क्या उनके मन को शांति मिल गई?पूरी दुनिया को वे तलवार के बल पर साम्यवादी बना सके?कदापि नहीं.क्योंकि हिंसा से कुछ प्राप्त नहीं होनेवाला सिवाय दुःख के.सम्राट अशोक ने महसूस किया था इस दुःख को और बन गया था बौद्ध.क्यों सोविएत संघ ढह गया और रूस को पूंजीवाद की ओर मुड़ना पड़ा.माओ के चीन में क्या हो रहा है?मजदूरों को कम वेतन पर काम करने के लिए जबरन बाध्य किया जा रहा है जिससे वहां निर्मित होनेवाली वस्तुएं वैश्विक बाजार में सस्ती और स्पर्धी बनी रहे.हिम्मत है तो अरुंधती जी माओ के देश जाकर मजदूरों के सरकारी शोषण का विरोध करें.नहीं जा सकतीं क्योंकि वहां लोकतंत्र नहीं है बल्कि तानाशाही है.जिस तरह की बचकानी बातें वे भारत में कर रही हैं अगर माओ के देश में करतीं तो कब की फांसी पर चढ़ा दी गई होतीं या फ़िर गोली से उड़ा दी गई होतीं.अरुन्धतिजी लोकतंत्र आज ही नहीं बल्कि सभी कालों में सबसे बेहतर शासन प्रणाली थी और है.यह घोषणा मैं किसी साधारण स्थान से नहीं अपितु वैशाली की उस पवित्र धरती से कर रहा हूँ जहाँ के बारे में हर कालखंड में कवि कहते रहे है-वैशाली जन का प्रतिपादक गण का आदि विधाता;जिसे पूजता विश्व आज है उस प्रजातंत्र की माता.फ़िर भी मैं अरुंधती जी के साहस की प्रशंसा करता हूँ.वे साहसी तो हैं हीं लेकिन उनका साहस विध्वंसात्मक है दुर्योधन,माओ,लेलिन,स्टालिन और हिटलर की तरह का न कि गांधी की तरह निर्माणात्मक.मैं सभी माओ या माओवादसमर्थक बुद्धिजीवियों से विनम्र निवेदन करता हूँ कि अगर वे किसी भी तरह से भारत सरकार या भारतीय गणतंत्र की किसी भी राज्य सरकार से अगर वेतन-पेंशन सहित किसी भी तरह का लाभ ले रहे हैं तो इसका तुरंत परित्याग कर दे क्योंकि जब वे भारतीय लोकतंत्र और संविधान में ही विश्वास नहीं रखते या विश्वास नहीं रखनेवालों का समर्थन करते हैं तो उनका सरकार से लाभ प्राप्त करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं बनता.साथ ही मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने कितनी बार किसी मुद्दे पर गांधी की तरह सत्याग्रह किया है या फ़िर अनशन पर बैठे हैं.अगर उन्होंने ऐसा प्रयोग करके देखा ही नहीं है तब फ़िर उन्हें यह कहने का अधिकार किसने दे दिया कि आज की परिस्थितियों में गांधीवाद सफल विकल्प नहीं है?हिंसा न तो श्रीलंका में सफल हुई है और न ही अफगानिस्तान में और न ही दुनिया के किसी अन्य हिस्से में.भारत में भी हिंसक तत्वों को शर्तिया मुंह की खानी पड़ेगी.यह सार्वकालिक और शाश्वत सत्य है कि साध्य या परिणाम तभी पवित्र और अच्छा फल देनेवाला होता है जब साधन पवित्र हो.अंत में अरुन्धतिजी सहित सभी अतिवादी बुद्धिजीवियों को मेरा सुझाव है कि वे अहिंसक आन्दोलन छेड़ें और व्यापक पैमाने पर छेड़ें जिसमें गुमराह और हिंसा में विश्वास रखनेवाले तत्व भी शामिल हों क्योंकि मैं भी मानता हूँ कि हमारे लोकतंत्र में कई कमियां हैं जिन्हें दूर करने की जरूरत है.

2 comments:

sanu shukla said...

ye log desh ke liye maovadiyo se jyada khatarnak hai...inse sawal na poonchhkar seedhe desh se bahar ka rasta dikhana chahiye..

http://iisanuii.blogspot.com/

अरुणेश मिश्र said...

अरुन्धती राय ने नक्सली हिंसा के मूल समस्या की ओर संकेत किया है । क्या उसे भ्रष्ट शासक प्रशासक हल करेँगे ?