देहरादून, (राजेन्द्र जोशी)। देश की तरह भारतीय जनता पार्टी पर भी नक्सलवाद की छाया साफ दिखायी दे रही है। जिस तरह से देश के भीतर देश के लोग देशवासियों के खिलाफ नक्सलवाद फैलाकर अपने ही देशवासियों का खून करने पर आमादा है ठीक उसी तरह भाजपा में भी भाजपा के लोग ही भाजपाईयों को नेस्तानाबूद करने की ब्यूह रचना करने पर जुटे हैं। आज यदि देखा जाये तो इनका भाजपा से कोई लेना देना नहीं रह गया है। ये स्वयं को पार्टी समझने की भूल करने लगे हैं। जहां तक देश की सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात की जाये तो कभी कभी उसमें एक जुटता तो जरूर दिखायी देती है लेकिन यहां तो अपने ही अपनों का सिर कलम करने को तैयार हैं। उत्तराखण्ड की राजनीति में ऐसा ही कुछ चल रहा है। भाजपा शासनकाल में जितने भी घोटाले सामने आये हैं उनमें भाजपा के आला नेताओं के ही नाम सामने आ रहे हैं। इनमें वे कई नेता भी शामिल हैं जिनको यहां लोग बहुत ही सम्मान की नजरों से देखते थे। इनमें वे लोग भी शामिल बताये जा रहे हैं जो स्वयं को परमपूज्य गुरूजी गोलवरकर जी के मार्ग के अनुयायी कहते नहीं थकते । सबसे विचारणीय प्रश्न तो यह है कि क्या गोलवरकर जी ने यही शिक्षा इन्हे दी? उत्तराखण्ड में चर्चित इन प्रकरणों पर यदि नजर दौड़ायी जाय और इनके पीछे के षड्यंत्रकारियों के बारे में जो जानकारी छन-छन कर सामने आ रही है इसमें भाजपा के वे पिटे हुए मोहरे बताये जा रहे हैं जिन्होने ढाई साल इस प्रदेश पर राज किया और पांचों लोकसभा सीटों को हरवाने के बाद जिन्हे कुर्सी छोडऩी पड़ी थी। अब एक बार वे फिर विरोधी राजनीतिक दलों को आगे कर अपना उल्लू सीधा करने पर जुटे हैं। जहां तक विपक्षी दलों द्वारा इन मामलों पर हो-हल्ला मचाये जाने की बात है तो वह उनकी राजनीतिक मजबूरी भी है। लेकिन भाजपा के ही लोगों द्वारा इस तरह की कोशिशों को तो अपनी ही पार्टी से साथ बगावत ही कहा जाएगा। इन्हे शायद इस बात का ध्यान नहीं है कि जब पार्टी ही नहीं होगी तो ये आखिर किस प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे अथवा अपनी राजनीति कहां चलायेंगे। लेकिन लगता है कि विरोध के लिए विरोध करना इनक ा शगल बन गया है। जहां तक मुख्यमंत्री निशंक की बात है आज तक उनके राजनीतिक जीवन में उन पर एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा। तो आखिर निशंक मुख्यमंत्री बनते ही बेईमान और घोटालेबाज कैसे बन गये। यह विचारणीय है। मुख्यमंत्री निशंक की राजीतिक मजबूरियों तथा उन पर भाजपा के तथाकथित प्रदेश प्रभारियों के दबाव को किसी ने अभी तक नहीं देखा। जहां तक जानकारियां सामने आयी है इन समूचे प्रकरणों में भाजपा के कई आला नेताओं सहित प्रदेश प्रभारियों का दबाव उन पर था क्योंकि जिन नेताओं ने मुख्यमंत्री पर दबाव बनाया उनक ी पत्नी सहित उनके कई परिजन इन कम्पनियों में निदेशक हैं। इस मामले में सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि अभी तक भाजपा के किसी भी बड़े नेता ने इस प्रकरण पर अपना बयान नहीं दिया है, इनमें चाहे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री खंण्डूरी अथवा कोश्यारी ही क्यों न हों।
उत्तराखण्ड के जल,जमीन और जंगलों पर भाजपा के ऐसे नेताओं की कुदृष्टि कहीं राज्य में नक्सलवाद को तो जन्म नहीं दे रही है। क्योंकि नक्सवाद पनपने के पीछे यही प्रमुख कारण रहा है कि जब-जब बाहरी लोगों ने प्रदेश के मूलनिवासियों के हक हकूकों पर जबरन कब्जा करने की कोशिश की तो उसकी परिणिति ही नक्सलवाद के रूप में सामने आया है।
27.6.10
''विभीषणों'' के निशाने पर निशंक सरकार
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3 comments:
ये बड़े दुःख की बात है की उत्तराखंड के पत्रकार खोजी पत्रकारिता नहीं करते और सिर्फ़ सुनी सुनी बाते ही लिख देते हैं. उत्तराखंड की राजनीति से माओवाद को जोड़ना सिर्फ़ पोपुलिस्ट एवं स्पेकुलातिव ही लगता है. यार कुछ प्रमाणों के साथ लिखने की कोशिश क्यों नहीं करते? यूरोपे में इस तरह के अंदाजों पर तो पत्रकारों को दंड देना पड़ता है. अभी कुछ दिनों पहले मैं पौड़ी में आया और अगले दिन जब अख़बारों में रिपोर्टिंग देखी तो पोपुलिस्ट ख़बर के आलावा पढ़ने के लायक़ कुछ भी नहीं पाया.
ये बड़े दुःख की बात है की उत्तराखंड के पत्रकार खोजी पत्रकारिता नहीं करते और सिर्फ़ सुनी सुनी बाते ही लिख देते हैं. उत्तराखंड की राजनीति से माओवाद को जोड़ना सिर्फ़ पोपुलिस्ट एवं स्पेकुलातिव ही लगता है. यार कुछ प्रमाणों के साथ लिखने की कोशिश क्यों नहीं करते? यूरोपे में इस तरह के अंदाजों पर तो पत्रकारों को दंड देना पड़ता है. अभी कुछ दिनों पहले मैं पौड़ी में आया और अगले दिन जब अख़बारों में रिपोर्टिंग देखी तो पोपुलिस्ट ख़बर के आलावा पढ़ने के लायक़ कुछ भी नहीं पाया.
पत्रकार मुख्य मंत्री को घेर रहे पत्रकार
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ये कैसी पत्राकिरता है ख़ास कर उत्तराखंड की पत्रकारिता जो अपने ही पत्रकार मुख्यमंत्री को अपने फ्यादे के लिए घेर रही है। जब तक पिछले माननीयों ने इन पत्राकर बंधुओं को रेवडियां बांटी तब तक ये खूब उन माननीयों का गुण-गाना करते रहे...आज जब पत्रकार मुख्यमंत्री निशंक उत्तराखंड की विकास यात्रा को आगे बढ़ाने के मिसाल अपने हाथो में ली है तो ये कुछ माननीयों को हाथों में बिके पत्रकार इस जलती मिशाल को निशंक के हाथ से छिन कर ऐसे लोगों के हाथों में देने की बात कर रहे है। जिन्होंने सिर्फ खुद के विकास के अलावा पहाड़ा के बारे में कभी सोचा ही नहीं।
तभी तो इन जैसे बिक चुके कुछ पत्रकार कभी पंत को मुख्यमंत्री बना देते है...तो कभी कोशियारी जी को...कभी ये रात-रात भर इन माननीयों के साथ पार्टिंयों में शामिल रहते है। और सुबह ख़बर छपती है..निशंक की तो चला चली की सरकार है...। इन्हें दिखायी और सुनायी नहीं देता है..क्योंकि यह सब कानों से बहरे और आँखों से अंधे जो हो चुके है। इसलिए जो इस पत्राकारों को धरातल पर किया जा रहा वह सब काम नहीं दिखायी देता है। जो वास्तव में हो रहा है....जिसकी विकास यात्रा का सबसे बड़ा पक्ष निशंक सरकार को ही जाता है। हम यह सब क्यों भूल जाते है...की कांग्रेस सरकार ने हमें महगांई के शिवाया दिया ही क्या है। पहाड़ तो आज भी वही है,जहां पहले थे।
आज जब इसके विकास की बागडोर एक युवा मुख्यमंत्री के हाथों में दी गयी है तो,उसे वही घेर रहे है। जिनकी राह पर कभी मुख्यमंत्री खुद चला करते थे।
दरअसल आज पत्राकारिता सुनी सनायी बातों के साथ-साथ राजनिति के एक बड़े फलक के हाथों में कुद रही। वह भी ऐसी राजनिति जिसमें निशंक जैसे युवा मुख्यमंत्री को उनके अपने ही आदरणीय घेर रहे है। या यूं कहना चाहिए की मुख्यमंत्री की सफलाता की राज इन्हें पच नहीं रहा। या यूं कहें की क्षेत्र वाद की बूं भी इन आदणीयों से आ रही है...तभी तो यह मिलकर कुछ पत्राकारों को पार्टी देकर कल के अख़बार के लिए खबरे लिखवा रहे हैं कि अगले मुख्यमंत्री की घोषणा भी करा रहे है।
हैरानी होती है...इन पत्रकार बंधुओं को देखकर इनकी कलम की धार देखर की किस कदर एक शराब और कबाब में इनकी कलम बिक जाती है। वारे पत्रकारिता...वारे पत्रकारिता....।
- जगमोहन 'आज़ाद'
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