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13.11.10

कब तक?


भारत देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर दिल में एक टीस उठी,जाग उठी एक कसक और उसी कसक को कलम से कागज़ पर उतार दिया .आशा है जरूर पसंद आएगी! एक रात को माँ का फोन आया कि बेटा में तुझसे मिलने कल आ रही हु !माँ को लेने स्टेशन सुबह तडके ही पहुच गया,गाड़ी लेट थी सो गाड़ी के इंतजार में चाय पिने लगा !तभी भयावह सूरत,डरावनी शक्ल वाली एक औरत दिखाई दी,जिसके बाल बिखरे हुए थे, माथे से लेकर पैर तक खून से सनी हुई थी, बदहवास सी वह औरत छट पटा रही थी!उसके पैरों में पायलों कि जगह मोटी-२ बेडियाँ थी, हाथ जल रहे थे, कपडे ऐसे कि शर्म भी शर्मा जाये,लेकिन चेहरे पर अलौकिक तेज था,माथे की बिंदी उसके गाल पर चिपक गयी थी,वह रोना चाहती थी लेकिन आँखों से आंसू नहीं निकल रहे थे!वह अपने प्राण बचाने को चिल्ला रही थी, विलख रही थी,अपनी लाज बचाने को वह दौड़ती हुई चली आ रही थी! पत्रकार होने के नाते मैंने पूछ लिया आपकी दशा किसने की? मैंने भी बड़ा बेकार प्रश्न पूछा था जिसको अपनी जान के लाले पड़े हो और उससे उसकी कहानी पूछो, उसको सांत्वना देना और रक्षा करना तो दूर,उससे सवालो की झडी लगा दी!इसमें मेरा कसूर नहीं था ,यह कसूर था नयी पत्रकारिता का जिसने TRP के फेर में उसकी पीडा, दर्द को भुला दिया जाता है और प्रश्नों की क़तर लगा दी जाती है! उसने बताया कि जमीन के विवाद में पड़ोसियों से झगडा हो गया है,रिश्ते नातेदार तो दूर मेरे बेटों ने भी मेरा साथ छोड़ दिया है,बड़ा बेटा तो पड़ोसियों से मिल गया है और उसीने मेरी ऐसी हालत कराई हहै! दो छोटे बेटे बैठकर मजा ले रहे है,गाड़ियों से घूम रहे है,और अपनी शान-ओ शौकत में जी रहे है! मै भी नयी पीढी का पत्रकार था इसलिए पूछ बैठा कि आप कैसा महसूस कर रहीं हैं? उसने कहा कि जिसके बेटों ने उसके हाँथ जलाये हो,वह माँ कैसा महसूस कर सकती है? जिन बेटों को नौ माह गर्भ में रखा, कष्ट झेला, गोदी में खिलाया, अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, पढाया लिखाया और उसी ने मेरे हाथ जला दिये अब मै कैसा महसूस कर सकती हूँ! मैंने उससे फिर सवाल दगा आप अपने बेटों के लिए क्या कहना चाहती है?माँ का दिल तो विशाल होता है!बेटा कैसा भी हो, माँ-माँ ही होती है,कहा मेरे बेटे हमेशा खुश रहे और में अपने बेटों को कामयाबी कि बुलंदियां छूटे देखना चाहती हूँ!मै चाहती हूँ कि मेरी जमीन में हरी भरी फसल लहलहाए,चिडियां चाह्चाये, कोयल गीत गए और लोग ऐसा नजारा देखकर झूम उठे और खुश रहे! उसकी बात ख़त्म ही हुयी थी,मै फिर पूछना चाहता था कि आपके छोटे कपडे जो तन को नहीं ढक पा रहे है फैशन है या मज़बूरी!उतने में ही पीछे से हमलावरों का जत्था आता दिखाई दिया,और वह औरत बचाओ-२ चिल्लाती हुई ,आगे चली गयी,शायद इस आस में कि कोई देवदूत आ जाये और इन कातिलों से उसकी रक्षा करे !मै दुखी मन से देखता रहा उस औरत कि ओर,जब तक वह नजर से ओझिल नहीं हो गयी! तभी आवाज आई किशन-किशन,मेरी माँ आ चुकी थी! मैंने उनको प्रणाम किया और उनका बैग हाथ में लेकर घर वापिस चला आया ! उस आवाज में इतना दर्द,करुना थी कि पत्थर भी पिघल जाये,लेकिन नहीं पिघले तो वो थे उन दरिंदों के दिल,जो महज कुछ जमीन और अपने अस्तित्व के लिए माँ पर हमला करते रहे! वो माँ "कृष्णा कब आओगे" कि गुहार लगाती रही लेकिन कृष्णा उसकी कुछ मदद ना कर सका! क्यों कि कृष्णा को मिल गयी थी एक मसालेदार कहानी कल के लिए,जो करा सकती थी उसका प्रमोशन,उसकी पदोन्नति! आखिर कब तक माँ की अस्मिता को गिरवी रख कर चलता रहेगा पदोन्नति का खेल?कब तक...?
-कृष्ण कुमार द्विवेदी
छात्र,मा.रा.प.विवि,भोपाल

1 comment:

vandana gupta said...

जब तक अपने स्वार्थो से इंसान ऊपर नही उठेगा तब तक्।