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18.3.11

विकास के जलजले में बहते प्याऊ, पेड़ और पथिक

रविकुमार बाबुल

ग्वालियर प्रशासन जिस तरह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में, अपने अडिय़ल रवैये से शहर सुन्दर बनाने के काम को अंजाम दे रहा है, उसे देख-समझ हमें चाहे शर्मिन्दगी नहीं होती हो, लेकिन सच तो यह है कि शहीदों ने भले ही अपनी जिद् और साहस से हमारी अंजुरी में 15 अगस्त 1947 का भारत को सौंपा हो, लेकिन स्थानीय प्रशासन को 1947 के बाद का दौर नहीं बल्कि 1940 का दौर ही मुनासिब लग रहा है, और वह गुलामी की उसी लीक पर चलकर शहर को सुन्दर बनाना या बसाना भी चाहता है, तथा उसी दौर के रियासत के राजशाही मंसूबों को बचाने की जुर्रत भी करते रहना चाहता है?
जी... दौर 1940 का, रियासत का दौर..., सब कुछ वह ही होगा जो शाही मिजाज मांगेगा या चाहेगा, ठीक गुलामी के दौर की तरह जो स्थानीय प्रशासन आज चाह चला है? मिजाज... किस सलीके से लोकतंत्र में हकों की मातमपूर्सी करता है, इसकी बानगी देखनी हो, तो एक वाक्या हाथी का याद दिला दें। राह में रोड़े की जिद् का हवाला देकर, कचरे गाड़ी में भरकर हाथी ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र से बाल भवन के मैदान में रखवा दिया गया? लेकिन पूर्व रियासत की चौखट पर घुटने टेकने से गौरान्वित महसूसता स्थानीय प्रशासन शाही मिजाज के हाथी को छू भी नहीं सका और खुद रास्ता ही बदल लिया। जी... क्या आप भी मेरी तरह यह नहीं कहेंगें कि इसे ही कहते है शाही मिजाज का शाही अंदाज?
शहर को सुन्दर बनाने के बहाने स्थानीय प्रशासन कभी सिंधिया महाराजाओं की रियासत रहे ग्वालियर की जमीन पर 1940 का नक्शा ही क्यूं बिछाना चाहता है, 1947 के बाद का क्यों नहीं? कई सवाल जेहन में उठ बैठते है। मसलन 1947 के पूर्व जमीन ही नहीं, नक्शे भी रियासत की मिल्कियत थे, तब ऐसे में 1940 के नक्शे पर जिस विकास को बोने की जिद् स्थानीय प्रशासन किये बैठा है, यह तय है कि वोटों के इस दौर में उसका लगान भी पूर्व रियासत ही वसूलना चाहेगा? मध्यभारत प्रदेश के गजट में भले ही सिंधिया राजघराने की तमाम मिल्कियतों में से कुछ उस वक्त केन्द्रीय सरकार कि मिल्कियतें हो चली थी, पर आज गोरखी सरीखे की सम्पत्ति पर मालिकाना हक कैसे और क्यों बदल गया, इसे जानने के लिये 1940 का नहीं, 1947 के बाद का नक्शा और मध्यभारत प्रदेश के गजट को टटोलना होगा, जो स्थानीय प्रशासन नहीं टटोलना चाहता है? जी... आसानी से समझा जा सकता है, इस प्रशासनिक समझ को और किये जानेवाले विकास को?1940 के नक्शे को बिछा कर स्थानीय प्रशासन जिन इमारतों को जमींदोज कर नई इबारत गढऩे का दुस्साहस जुटाये बैठा है, वह भी अब सवालों के घेरे में आ चला है? मसलन हर वर्ष लाखों रुपये पौध रोपण के नाम पर बंदरबांट कर कागजों में ग्रीन-जोन गढ़ लेने वालों पर आंखें तरेरने के बजाय शहर मे हरे-भरे पेड़ों का सार्वजनिक कत्ल कर दिया गया, ऐसे में सूखी लकडिय़ां चुनकर घर का चूल्हा जलाने वालों के उपर कानूनी कार्यवाही करना और वही कानून, पेड़ काटने पर प्रशासन पर कार्यवाही करने से कैसे रोकता है, समझ से परे है?
जी... निष्पक्ष और सटीक फैसले सुनाती अदालतें कार्यवाही के पूर्व भले ही गीता पर हाथ रख गवाहों से कसमें लेती हों, लेकिन शहर की यह बदनसीबी है कि यहां मंदिर-मजार को जिस तरह जमींदोज किया गया कि अब इससे कहीं अधिक शराबखाने और अय्याशगाह शहर में दिखने लगे है, जी... इन्हीं अय्याशी के दम पर लगता है शहर को विकास के बहाने एक नई पहचान देना जरूरी हो चला है, विकास की लकीरें अय्याशी की कुछ ऐसी पहचान भी यकीनन साथ लिये जो चलती है?
विकास के जुनून में जल ही जीवन है का फलसफा भी प्रशासन भूल चुका है, शहर में गर्मी की दस्तक शुरू हो गयी है, कीमतों में दूध के मुकाबिल आ खड़ा हुआ पानी, अब बाजार से ही लेना होगा, क्यंू की कई सार्वजनिक प्याऊ प्रशासनिक जिद् की भेंट चढ़ चुके है, ऐसे में पाथिकों की प्यास कैसे बुझेगी और शहर में पानी बेचने वाली तमाम इकाइयां अपने व्यवसाय को किसकी शह पर गढ़ती / बढ़ती नजर आयेंगी समझा जा सकता है।
जी... शहर सुन्दर बनाने की प्यास में, अब शहर में सार्वजनिक प्याऊ से अपनी प्यास बुझाता कोई पथिक नहीं दिखेगा, न ही पेड़ की छांव के नीचे बैठ पल दो पल सुस्ताते हुये, स्थानीय प्रशासन ने सार्वजनिक प्याऊ ही नहीं तोड़े हैं, पेड़ भी काट दिये हैं। लगता है शहर ने अभी मेघापाटकर, बाबा आमटे और विनय कटियार को नहीं जन्मा है। जी... सच तो यह है कि विकास किसी को रूकने की इजाजत नहीं देता है हां... मरने की सहमति जरूर जताता है। सो मुट्ठी भर लोगों को उनके मुताबिक जिंदा रखने के लिए अनगिनत लोगों को मरते रहने की सहमति भी स्थानीय प्रशासन की मदद से यह शहर जुटाये रखेगा।

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