जांजगीर ( छत्तीसगढ़ ) में वैसे तो जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक मेले की शुरूआत किसानों को लाभ देने और आम लोगों को जोड़ने के लिए हुई थी, लेकिन आज के हालात में इस आयोजन से आम लोग ही दूर होते जा रहे हैं। निष्चित ही, इसके लिए आयोजन समिति की नीतियां भी जिम्मेदार हैं और चंद अफसर व जनप्रतिनिधि इस आयोजन के खैर-ख्वाह बन बैठे हैं। स्थिति यह है कि कइयों की दुकानदारी, महोत्सव के नाम पर चल रही है। इस तरह से खर्च वहां किया जाता है, जहां कमीषनखोरी की गुंजाइष बनी रहती है। यही वजह है कि महोत्सव और कृषि मेला, प्रचार-प्रसार से दूर होते जा रहा है। समिति के फंड में लाखों रूपये होने के बाद प्रचार-प्रसार नहीं किया जा रहा है, वहीं उन्हीं लोगों को राषि का आवंटन किया जाता है, जो समिति से जुड़े लोगों के चहेते हैं। इसके कई उदारहण हैं, जो चर्चा के विषय बने हुए हैं। यह विसंगति पिछले कई साल से कायम है, फिर भी इसे दूर करने ध्यान नहीं दिया जाता। बताया जाता है कि समिति से जुड़े कुछ ऐसे लोग हैं, जो बड़े अधिकारियों को दिग्भ्रमित कर अपनी मनमर्जी करते हैं, जिसके कारण असंतोष बढ़ते जा रहा है।
गौरतलब है कि मेले के शुरूआती दिनों में सभी वर्ग के लोगों ने महोत्सव व कृषि मेले के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। इस दौरान आयोजन समिति का फंड भी कम हुआ करता था, तब मीडिया ने भी आगे आकर आयोजन के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। आज की स्थिति काफी बदल गई है, आयोजन समिति को व्यापक स्तर पर फंड मिलता है। कई पॉवर कंपनियों से लाखांे लिए जाते हैं। इसके अलावा अन्य आय का जरिया है, जिसके माध्यम से समिति को हर साल लाखों रूपये मिलते हैं, फिर भी समिति के चंद अधिकारी और जनप्रतिनिधियों द्वारा प्रचार-प्रसार की दिषा में ध्यान नहीं दिया जाता। कुछ ऐसी नीति बना दी जाती है, जिससे महोत्सव व कृषि मेले के प्रचार-प्रसार पर ब्रेक लग जाता है। हर साल जब भी आयोजन की तैयारी शुरू होती है, उस दौरान बैठक में प्रचार-प्रसार का राग अलापा जाता है, लेकिन महोत्सव व मेले के शुरू होते ही प्रचार-प्रसार की सोच धरी की धरी रह जाती है।इसका नतीजा भी इस साल के शुभारंभ अवसर पर नजर आया। प्रचार-प्रसार का अभाव और लोगों के आयोजन से दूरी का ही परिणाम था कि मंच पर जितने लोग थे, उतने तो दर्षक दीर्घा में नहीं थे। लिहाजा, मंच से अतिथि, महोत्सव का बखान करते रहे और उन बातों को खाली कुर्सियां सुनती रहीं। प्रचार-प्रसार करने में अफसर, जरा भी गंभीर नजर आते तो, इसके लिए शुरू से ही भरसक कोषिष की जाती। इस साल तो जैसे-तैसे शुभारंभ हो गया, इसके बाद भी महोत्सव से लोगों का रूझान नजर नहीं आया। इतना जरूर है कि मेले के नाम पर देर शाम भीड़ जुट रही है, लेकिन यह भीड़ केवल मेले में मनोरंजन के लिए पहुंच रही है, न कि, उन्हें महोत्सव व मेले की पृष्ठभूमि से मतलब है। यही कमी आयोजन समिति की ओर से रह गई है कि लोगों को महोत्सव व मेले से नहीं जोड़ पायी है। दूसरी ओर महोत्सव व मेले की पहचान ‘विष्णु मंदिर’ की भी उपेक्षा होती रही है। इसके लिए भी बैठक में हर बार ध्यानकार्षण किया जाता है कि मंदिर का रंगरोगन के अलावा, वहां लाइटिंग की व्यवस्था की जाए, किन्तु विडंबना है कि जिस आयोजन समिति के फंड में लाखों रूपये हैं और जिस मंदिर की पहचान के साथ महोत्सव व मेले की पहचान कायम है, उसी की घोर उपेक्षा की जाती है। उसी मंदिर में लाइटिंग के लिए आयोजन समिति के पास फंड की कमी है ? यह बड़ी दुर्भाग्यजनक बात है।
महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार ही एक समस्या नहीं है, इसके अलावा और भी समस्याएं हैं। आयोजन समिति हर साल मीडिया से प्रचार-प्रसार की अपेक्षा रखती है, किन्तु प्रचार-प्रसार के लिए जारी होने वाली राषि में व्यापक स्तर पर भेदभाव किया जाता है। नतीजा यह है कि महोत्सव व मेले को जिस ढंग से प्रचार मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता। हर बार यही राग अलापा जाता है कि मेले की पहचान को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाएंगे, किन्तु प्रचार-प्रसार के लिए जिस तरह की नीति अपनाई जाती है और समिति के कर्णधारों द्वारा मनमानी की जाती है, उससे इस दावे पर संषय जरूर नजर आता है ? सवाल यही है कि क्या ऐसी नीति से ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच पाएगी ?
देखा जाए तो पिछले 15 बरसों से जिला बनने के बाद निरंतर यह आयोजन होता आ रहा है, इस लिहाज से हर साल महोत्सव व मेले की प्रसिद्धि में वृद्धि होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा लगता है कि दूसरे प्रदेषों में महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार करने, जिम्मेदारों की मंषा नहीं है। आज की स्थिति में जांजगीर के इस मेले की पहचान छग के कई जिलों में नहीं है। इसे सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि मेले में दूसरे जिलों के आम लोगों व किसानों का सीधा जुड़ाव नहीं है ? ऐसे हालात में क्या, जांजगीर के महोत्सव व कृषि मेले को राष्ट्रीय पहचान कैसे मिल पाएगी, एक यक्षप्रष्न है ? सरकार अपने स्तर पर प्रयास कर रही है और महोत्सव व मेले की परिपाटी को अग्रसर करने में लगी है, लेकिन कथित अफसर और जनप्रतिनिधि अपनी मनमानी की दीमक से आयोजन को चट करने में लगे हैं। जो स्थिति अभी है, उससे आयोजन को राष्ट्रीय पहचान मिलना, दूर की कौड़ी नजर आती है ? इसकी एक ही वजह समझ मंे आती है कि आयोजन समिति का महोत्सव व मेले के प्रचार-प्रसार मंे ध्यान और रूचि बिल्कुल नहीं है। ऐसा होता तो मीडिया को इससे दूर नहीं रखा जाता। आयोजन के नाम पर तमाम तरह के खर्चे किए जा रहे हैं, वहीं मीडिया में प्रचार-प्रसार के लिए फंड कम पड़ जा रहे हैं। इससे मीडिया के एक वर्ग में बड़ी निराषा है। दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि मीडिया को प्रचार-प्रसार के लिए फंड की कमी होने की बात कही गई हो, ऐसे में सीधे समझ में आता है कि आयोजन समिति से जुड़े चंद अफसरों व जनप्रतिनिधियों को प्रचार-प्रसार की चिंता ही नहीं है ? उन्हें लगता है कि उनकी दुकानदारी चलती रहे, भले ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान आगे बढ़े, चाहे न बढ़े ? जो स्थिति लगातार बनती जा रही है, उससे महोत्सव व कृषि मेले की छवि बनाने के दावे पर पलीता लगता नजर आ रहा है। आयोजन में तमाम तरह की विसंगति को लेकर आम लोगों में भी चर्चा है और सभी यही कहते हैं कि महोत्सव व कृषि मेला, एक तरह से चंद लोगों का प्राइवेट लिमिटेड बनकर रह गया है, जिसका असर भी अब दिखने लगा है। पहली बार ऐसा हुआ है, जब सभी वर्ग के लोगों ने महोत्सव की अव्यवस्था को लेकर जिले के मुखिया कलेक्टर को अवगत कराया है।
‘जाज्वल्या’ में लाखों खर्च, नहीं बनी साख
जांजगीर के जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेले की पहचान, छग ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों तक पहुंचाने के लिए ‘जाज्वल्या’ पत्रिका का प्रकाषन किया जाता है। जाज्वल्या के प्रकाषन में हर साल लाखों खर्च किया जाता है, किन्तु न तो महोत्सव की पहचान में बढ़ोतरी हुई और न ही ‘जाज्वल्या’ की पहचान मंे। इस तरह लाखों खर्च करने के बाद भी जाज्वल्या की वह साख नहीं बन सकी, जिसकी अपेक्षा जिलेवासियों ने पाल रखी थी। ‘जाज्वल्या’ के माध्यम से जिले की जानकारी राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने की मंषा पर आज बट्टा लगता नजर आता है, क्योंकि जाज्वल्या की सामग्री से लेकर उसके प्रकाषन पर तमाम तरह की खामियां गिनाई जाती रही हैं। ऐसा नहीं है, यह बात अफसरों को पता नहीं है, लेकिन पहले से चल रही व्यवस्था पर वे भी कोई लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। जिसकी वजह से हालात, महोत्सव को पहचान दिलाने के विपरित होता जा रहा है और लोगों का रूझान भी उसी तरह घटता जा रहा है। प्रचार-प्रसार के नाम पर जिस तरह का बंदरबाट हो रहा है, उससे तो अब सबक सीखने के साथ सुधार की जरूरत है, नहीं तो, ऐसे ही लाखों रूपये पानी में जाता रहेगा ?
जवाबदेही थोपने की ये फितरत...
प्रचार-प्रसार के वैसे तो कई तरीके हैं, हालांकि, मीडिया एक बड़ा माध्यम है, किन्तु जिले के अधिकारियों ने अनेक मीडिया को इससे दूर रखा है। अधिकारियों ने जिस तरह की व्यवस्था इस बार की, उससे व्यवस्था पर सवाल तो उठे ही, साथ ही अधिकारियों की मनमानी भी नजर आई। प्रचार-प्रसार का फंड तो आयोजन समिति के पास लाखों रूपये है, लेकिन उसके उपयोग करने में अधिकारी पीछे रहे। जिम्मेदार अधिकारी को लगा कि यह राषि, उनके घर का है, जिसका प्रचार-प्रसार में उपयोग किया जाए तो उन्हंे नुकसान होगा ? प्रचार-प्रसार के लिए आयोजन समिति पर्याप्त फंड नहीं होने का रोना रो रही है, जबकि समिति के फंड में लाखों रूपये की बचत हर साल होती है। सवाल यही है कि लाखांे रूपये फंड में रखने के बाद, क्या ऐसे ही प्रचार-प्रसार हो पाएगा ? और क्या ऐसे ही महोत्सव व कृषि मेले की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन पाएगी ? जिम्मेदारी की बात आती है तो यही अधिकारी, एक-दूसरे पर जवाबदेही थोप देते हैं, अंत में जवाब देने वाला कोई नहीं होता ? समझा जा सकता है कि आयोजन से जुड़े अफसर की सोच क्या है और उन्हंे जिले की पहचान व साख से कितना मतलब है ?
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