असली या कागजी! प्रभाकर मणि तिवारी जनसत्ता 27 फरवरी, 2014 : कुछ समय पहले ‘जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं’ के संदेश के साथ फोन करने वाले मित्र ने आखिर वह सवाल पूछ ही लिया, जिसे हर साल झेलना पड़ता है। उन्होंने पूछा कि आपका यह जन्मदिन असली है या कागजी! अब उसे क्या और कितनी बार समझाता! मैंने कहा कि यही मेरी असली जन्मतिथि है। यों, मित्र का सवाल मुझे बुरा भले लगा, लेकिन यह जायज ही था। अपने समकालीन जितने भी मित्रों, सहकर्मियों को जन्मदिन की बधाई देता हूं, अक्सर सुनने को मिलता है कि यार, मेरी असली जन्मतिथि तो फलां तारीख को है। यह तो मां-बाबूजी ने हाईस्कूल का आवेदन भरते समय लिखवा दिया था। चारों ओर देखने के बाद लगता है कि किसी की उम्र से दो साल गायब हैं तो किसी से चार साल। एक परिचित की तो असली और कागजी जन्मतिथि में पूरे आठ साल का हेरफेर था। अट्ठावन की जगह छियासठ की उम्र में वे इसी साल जनवरी में सेवानिवृत्त हुए। दो साल पहले से इतने बीमार चल रहे थे कि दफ्तर तक नहीं जा पाते थे। बीच में तो दुनिया से ही निकल जाने का अंदेशा हो गया था! एकाध बार दफ्तर गए भी तो पत्नी को साथ लेकर। मेरी भी असली और कागजी जन्मतिथि अलग-अलग हैं। लेकिन दूसरे लोगों की तरह इसमें दो या चार साल नहीं, बल्कि महज एक दिन का अंतर है। और उस अंतर से मेरा फायदा नहीं, नुकसान है। एक दिन पहले ही नौकरी से सेवानिवृत्त हो जाऊंगा। दरअसल, मैं दो दिसंबर की आधी रात के बाद पैदा हुआ था। यानी जन्मतिथि तीन दिसंबर हुई। लेकिन कागज में दर्ज है दो दिसंबर। हालांकि अलग-अलग जन्मतिथि के अपने फायदे भी हैं। मसलन मित्र, सहपाठी और सहकर्मी प्रमाणपत्र वाली तारीख, यानी दो दिसंबर को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हैं और तमाम परिजन अगले दिन। यानी लगातार दो दिनों तक शुभकामना संदेश मिलते रहते हैं। कुछ वर्षों से सबको बताने भी लगा हूं कि मेरी असली जन्मतिथि दो नहीं, तीन तारीख है। कुछ मित्रों ने इसे सुनते ही सवाल दाग दिया कि अच्छा, और साल कौन-सा है! उन्हें लगता था कि तीन दिसंबर मेरी जन्म की तारीख भले हो, लेकिन साल जरूर कोई और होगा! किस-किस को सफाई देता रहूं! अब तो कुछ वर्षों से पत्नी भी उलाहने की तर्ज पर कह देती हैं कि ‘फलां को देखिए, आपसे चार साल बड़ा है और आपके बाद रिटायर होगा!’ आसपास देखता हूं तो कागजी जन्मतिथि वाले लोग ही ज्यादा नजर आते हैं। कई करीबी रिश्तेदारों ने जब नौकरी शुरू की थी तो मैं स्कूल जाता था। लेकिन अब पता चला है कि वे तमाम लोग मुझसे साल-दो साल बाद तक नौकरी में जमे रहेंगे। लेकिन ‘अब पछताए होत क्या’ की तर्ज पर मन मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। सहकर्मी सोचते हैं कि इसने भी हमारी तरह साल-दो साल तो जरूर चुराए होंगे! लाख सफाई दूं, चेहरे पर उभरने वाले अविश्वास के भाव उनके सोच की चुगली कर देते हैं। बीते जन्मदिन पर पचास पूरे करने के बाद इस साल भी लोगों ने बधाई देने के साथ सवालिया अंदाज में पूछ ही लिया कि कम से कम बावन के तो हो गए होंगे! कई लोग सीधे पूछने के बजाय घुमा कर यही सवाल करते हैं कि अभी कितने दिन नौकरी बची है। पिछले साल तो मुहल्ले के एक सज्जन कहने लगे कि अपनी तरफ गांव में तो लोग चालीस की उम्र पार करते ही बूढ़े लगने लगते हैं। लेकिन आपको देखिए! इस उम्र में भी जवान लग रहे हैं! लोग समझते हैं कि रंग-रोगन के जरिए उम्र छिपा रहा है। एक सहकर्मी तो कहने लगे कि अब यार आपस में क्या छिपाना! मेरी असली उम्र कागजी उम्र से तीन साल ज्यादा है। तुम भी तो मेरी ही उम्र के हो गए होगे। मैं क्या कहता! एक मित्र ने फोन किया और औपचारिकता निभाने के बाद कहने लगे कि फेसबुक पर आपकी फोटो देख कर नहीं लगता कि इतनी उम्र हो गई है। मैंने कहा कि भाई, अभी तो पचास पूरे किए हैं। इस पर कहने लगे कि कागज में तो मैं भी अड़तालीस का ही हूं! मन में कोफ्त होने के बावजूद हंस कर बात बदलने की कोशिश की। लेकिन वे भला कहां मानने वाले थे! सवाल दाग दिया कि यार, अब तो बता दो कि तुम्हारी असली जन्मतिथि क्या है! लगता है कि असली और कागजी के इस चक्कर से इस जन्म में पीछा शायद ही छूटेगा। जनसत्ता से साभार
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