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3.6.19

दलित राजनीति की त्रासदी

-एस. आर. दारापुरी
राष्ट्रीय प्रवक्ता
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट

हाल के लोकसभा चुनाव के परिणामों ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वर्तमान दलित राजनीति विफल हो गयी है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) है जिसकी मुखिया मायावती चुनाव परिणाम आने से एक दिन पहले तक प्रधान मंत्री बनने की इच्छा ज़ाहिर कर रही थी. परिणाम आने पर बसपा केवल दस सीटें ही जीत सकी जबकि चुनाव में महागठबंधन मोदी को हराने का दावा कर रहा था. यद्यपि बसपा की दस सीटों की जीत पिछले चुनाव की अपेक्षा एक अच्छी उपलब्धि  मानी जा सकती है परन्तु महागठबंधन के चुनावी परिणामों ने इसकी विफलता भी दिखा दी है.
इस चुनाव में एक बात पुनः उभर कर आई है कि उत्तर भारत में ख़ास करके उत्तर प्रदेश में मायावती का वोट बैंक बहुत सिमट गया है. उत्तर प्रदेश में वह केवल एक ही आरक्षित सीट जीत पायी है जबकि बाकी सारी आरक्षित सीटें भाजपा को चली गयी हैं. इसका मुख्य  कारण यह है कि पूर्व में दलितों की जो उपजातियां बसपा के साथ थीं वे  पिछले कई चुनावों में बसपा को छोड़ कर भाजपा के साथ चली गयी हैं. यह इसी लिए संभव हो पाया है कि बसपा की जाति की राजनीति के माध्यम से जिस तरह वे बसपा से जुडी थीं उसी सोशल इंजीनियिरिंग का इस्तेमाल करके भाजपा ने उन को तोड़ लिया है. एक तरफ जहाँ बसपा केवल एक जाति चमार/जाटव की पार्टी के रूप में मज़बूत हुयी वहीँ दूसरी तरफ दूसरी उपजातियां पासी, बाल्मीकि, धोबी और खटीक प्रतिक्रिया में लामबंद हो कर भाजपा के साथ चली गयीं. ऐसा इसी लिए भी संभव हुआ क्योंकि मायावती ने इन उपजातियों को बसपा में उचित स्थान नहीं दिया. मायावती की अपने उतराधिकारी के एक चमार के ही होने वाली घोषणा ने भी इन जातियों को अपने अपने बारे में सोचने के लिए विवश किया. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जाति तोड़ने की व्यवस्था है जोड़ने की नहीं.

कांशी राम ने शुरू में बहुजन की जिस अवधारणा को प्रचारित किया था उसमे सभी दलित जातियों को राजनीतिक स्तर पर एक समूह बनाने की बात थी. उसमें दलित मुद्दों को राजनीतिक सत्ता के माध्यम से हल करने का नारा दिया गया था. परन्तु जैसे ही कांशी राम ने जाति की राजनीति को आगे बढाने के लिए उपजातियों को अलग अलग उभारने और इस्तेमाल करने की कोशिश की तो बहुजन का विघटन शुरू हो गया. इन उपजातियों और उनके नेताओं की महत्वाकांक्षाएं बलवती होने लगीं और वे अपनी अपनी अस्मिता का इस्तेमाल सत्ता में हिस्सेदारी के लिए करने लगे. यहीं पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने  उन्हें राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी मिलने का अवसर दे कर अपने साथ कर लिया और अब वे उससे बड़ी मजबूती के साथ जुडी हुयी हैं.  परिणाम यह हुआ है कि अब बसपा केवल चमारों/ जाटवों तक ही सीमित हो कर रह गयी है. इतना ही नहीं चमारों/जाटवों का भी एक हिस्सा हिस्सा मायावती की अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और सिद्धान्थिनता  एवं दलित मुद्दों की घोर उपेक्षा से नाराज़ हो कर भाजपा के साथ चला गया है.

दलित राजनीति के विघटन के लिए वर्तमान राजनीतिक आरक्षण भी जिम्मेदार है. यह सर्विदित है कि आरक्षित सीट पर सभी उमीदवार आरक्षित वर्ग के ही होते हैं जिस कारण दलित वोट बंट जाता है और सवर्ण वोट निर्णायक हो जाता है. ऐसे में जिस पार्टी के पास सवर्ण वोट होता है वह उस सीट को जीत जाती है. क्योंकि वर्तमान में सवर्ण वोट भाजपा के पास है अतः वह ही आरक्षित सीटें जीत जाती है. ऐसे में भाजपा के लिए दलित उपजातियों को टिकट देकर जिताना और अपने साथ जोड़ लेना संभव हो सका है. इसी फार्मूले से भाजपा ने अति पिछड़ी जातियां जो पहले बसपा/सपा  से जुड़ी थीं भी, बसपा/सपा  से अलग हो कर भाजपा के साथ चली गयी हैं.

भाजपा के लिए दलित उपजातियों को बसपा से अलग करना इसी लिए भी संभव हो सका है क्योंकि ये जातियां अधिकतर कट्टर हिन्दू हैं और उन्हें भाजपा के बृहद हिंदुत्व से जुड़ने में कोई परेशानी नहीं है. इसी प्रकार अति पिछड़ी जातियां जो पहले से ही हिंदुत्व की झंडा बरदार रही हैं,  को भी बसपा/सपा से अलग हो कर भाजपा के साथ जाने में कोई कठिनाई नहीं हुयी है. इसी कारन भाजपा ने दलितों की छोटी उपजातियों और अति पिछड़ी जातियों को बृहद हिंदुत्व के छाते तले लामबंद करके अपने को बहुत मज़बूत कर लिया है. परिणाम स्वरूप बसपा जो कि उत्तर भारत में दलितों की एक सशक्त राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरी थी अब केवल चमारों/जाटवों की पार्टी बन कर रह गयी है और अपने पतन की ओर अग्रसर है. इसी प्रकार सामाजिक न्याय के नाम पर उभरी मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी भी केवल कुछ यादवों की पार्टी बन कर सिमट गयी है.

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