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5.4.20

टार्च जलाकर कोरोना भगाने की कवायद

उत्सव धर्मिता भी मानवीय स्वभाव का अभिन्न पहलू है। लोग अपनी धार्मिक अभिव्यक्तियों के लिए भी उत्सव धर्मिता का सहारा लेते हैं जबकि धर्म मुख्य रूप से साधना और समाधि का एकान्तिक विषय है। इसे देखते हुए उत्सव प्रियता के कारण किसी व्यक्ति या समाज का मखौल उड़ाने का कोई औचित्य नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ब्राडिंग के महारथी हैं। जिसमें लगातार इवेंट का बड़ा महत्व है। उनकी यह आदत नितांत निंदा के दृष्टिकोण से नहीं देखी जानी चाहिए। दुनिया के हर बुर्जुआ लोकतंत्र में कारपोरेट शैलियां हावी हैं बल्कि भारत तो इस मामले में अभी काफी पीछे है।

1985 के लोकसभा चुनावों में जब अमेरिका से लोकतांत्रिक तौर तरीकों और गवर्नेंस के बारे में ट्रेंड हो रहे राजीव गांधी ने कांग्रेस के चुनाव अभियान के लिए एक महंगी विदेशी विज्ञापन एजेंसी से अनुबंध किया। यह वो दौर था जब भारत में समाजवाद का खुमार पूरी तरह उतरा नहीं था। इसलिए उनकी बड़ी आलोचना हुई थी। आज चुनाव अभियान में रिकार्ड तोड़ खर्चा और चुनाव से लेकर सरकार चलाने तक में ब्राडिंग के लटके झटके आम बात हो गई है। (गवर्नेंस में भी ब्राडिंग राजीव गांधी के समय से ही शुरू हो गई थी। अंबानी द्वारा प्रिन्ट कराई गई सफेद टी-शर्ट पहनाकर उन्होंने देश भर में कांग्रेसियों से रन फार इंडिया में दौड़वा दिया था। दुनिया के कई बाहरी देशों में भड़कीले भारत महोत्सव के आयोजनों को भी ब्राडिंग की निगाह से ही देखा जायेगा।)

दरअसल पहले पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को राजनीतिक पार्टियों से चंदा देने के बदले केवल इतना सरोकार रहता था कि वे सरकार बन जाने पर उन्हें अपने उत्पादों में भरपूर मुनाफा बटोरने में सहयोग करेंगे। आज स्थितियां बदल गई हैं। नेपथ्य में बैठकर कारपोरेट ही सत्ता के असली संचालक बन गये हैं। राजनीतिक नेतृत्व उनका कठपुतली मात्र रह गया है।

कारपोरेट और सामंतवाद के चरित्र में अंतर है। सामंतवाद में सामंत की तुर्रमशाही भी हर वर्ग को यानी हर आम खास को झेलनी पड़ती थी लेकिन कारपोरेट में प्रोफेशनल्स को भी भले ही वह भी कारपोरेट का ही पालतू होता हो बराबरी के सम्मान का आभास कराया जाता है। वकील नाम के वर्ग को इस देश में प्रोफेशनल्स में अग्रेजों के समय सबसे पहले बराबरी का स्थान मिला क्योंकि तब तक इंग्लैड में उस ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी कारपोरेट की बुजुर्ग पीढ़ी का उभार हो चुका था जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखी थी। उस पर कारपोरेट युग में ब्रांड अम्बेस्डर की हैसियत दबदबा कुछ ज्यादा ही होता है। अमिताभ बच्चन को जिन कंपनियों ने अपने विज्ञापन का चेहरा बनाया वे दाता होने के बावजूद अमिताभ बच्चन का अपने ऊपर अनुग्रह प्रदर्शित करती हैं पर उन्हें विज्ञापन में वैसा ही रोल करना पड़ता है जैसा दाता कारपोरेट चाहता है। मोदी और कारपोरेट का संबध भी कुछ ऐसा ही है भले ही इसके बावजूद उनके प्रशंसक मोदी की शक्तियों को कुछ ज्यादा आंकते हो।

कारपोरेट आज सरकार से केवल मुनाफे के लिए मदद तक अपने सरोकार सीमित नहीं रखते बल्कि सरकार की नीतियां असली तौर पर वे ही बनाते हैं सरकारों की नियति उनके रबड़ स्टाम्प की रह गई है। वित्तीय आर्थिक क्षेत्र में हाल के वर्षो में देश में हुए कई अजीबो गरीब फैसले इसी बिडम्वना की देन हैं। लेकिन बात इसकी नहीं मोदी के इंवेट मैनेजमेंट की हो रही है। उन्होंने कोरोना के कारण लागू किये गये लाॅकडाउन से उपजी बोरियत तोड़ने के लिए पहला इवेंट शंख और थालियां बजवाकर अंजाम दिया था। भावुक लोगों ने इसमें भी धार्मिक प्रताप ढ़ूढ़ लिया था। कैसे शंख बजाने और थालियां पीटने से आसुरी शक्तियां भाग जाती हैं जिसके कई ग्रंथो से हवाले भी छांट दिये गये। यह दूसरी बात है कि इस इवेंट के बाद कोरोना के भागने की बात तो दूर उल्टा उसने बहुत ज्यादा जोर पकड़ लिया।

अब बारी है एक और इवेंट की। आज 5 अप्रैल की रात 9 बजे सारा देश अपने घरों में अंधेरा करके दरवाजे पर गेट के भीतर या बालकनी में खड़े होकर मोबाइल की लाइट, टार्च, मोमबत्ती अथवा दिया जलायेगा ताकि कोरोना का अंधेरा सामूहिक रोशनी से छट निकले। अवश्य ही इससे कुछ और न हो दिल तो बहल ही जायेगा। 21 दिन के लाॅकडाउन में उत्सव के इस तरह के चरणों का मनोवैज्ञानिक लाभ है बशर्ते मनोरंजन के पहले चरण में लोगों के थालियां पीटने के लिए सड़कों पर निकल आने से लाॅकडाउन टूट जाने जैसा अनर्थ न होने दिया जाये। मै हर बात की तरह मोदी की इस बात में भी आलोचना तलाशने वाले नकारात्मकता के रोगी बन चुके लोगों से सहमत नहीं हूं।

लेकिन उन लोगों से बचना होगा जो इसमें भी विघ्नहरण का चमत्कारिक मुहुर्त तलाश लाये हैं और पौराणिक गल्पों की याद करके इससे देश के कोरोना मुक्त बन जाने का स्वप्न देख रहे। यह उन लिजलिजी भावुकता के शिकार लोगों के स्वप्न हैं जिनकी वजह से सोमनाथ के मंदिर पर लूटपाट के लिए किये गये हमले में महमूद गजनवी कामयाब हो गया था। अगर सोमनाथ के पंडों ने मूर्तियों से लिपटकर भगवान को बचाने के लिए बुलाने का विलाप करने की बजाय पुरूषार्थ से काम लिया होता तो शायद महमूद गजनवी को उल्टे पैरों भाग जाना पड़ता।

धर्म को कातरता की विषयवस्तु बनाकर इस देश के साथ बहुत अनर्थ किया गया है। धार्मिक लोग मानते हैं कि ईश्वर के रूप में कोई शक्ति है जो परमपिता परमात्मा की तरह उनके संरक्षण के लिए हर समय मौजूद रहते हैं। फिर अपने पिता के सामने कातरता का क्या मतलब है। पिता के सामने तो पुत्र का साहस चरम सीमा पर रहता है जिसका प्रकटन होना चाहिए न कि भीरूता का। लोग भगवान के मंदिरों में आते हैं किलोमीटरों पहले से रेंगना शुरू करके। यह परमपिता का अपमान है कोई पिता अपने सामने अपने पुत्र की दयनीय स्थिति नहीं देखना चाहता। यह तो किसी अत्याचारी राजा की करतूत होगी जिसने पुजारियों से मिलकर घोषित करा लिया होगा कि सत्ता कि सिंहासन पर बैठने वाला ईश्वर होता है उसके प्रति बगावत की भावना मंजूर नहीं की जा सकती इसलिए उसके नाम से डरकर रहो। जनमानस के सामने यह पिता को आतंकवादी के रूप में प्रस्तुत करने का पाप है। इन रीतियों ने देश में सामूहिक मनोबल को चैपट कर दिया है जो देश की लंबी गुलामी की मुख्य वजह कही जा सकती है। ईश्वर ने आपको दो हाथ, दो पैर, दो आंखे बांधकर खड़े रहने के लिए नहीं दिये। इनके जरिये हर चुनौती का मुकाबला करके ही मनुष्य अपने को परमपिता परमात्मा का चहेता पुत्र सार्थक कर सकता है। ईश्वर के लिए पूरे समय उसकी चिरौरी करने की कोई जरूरत नहीं है केवल उसके नाम पर आधा घंटे की समाधि पर्याप्त है उसमें भी ईश्वर पर कोई एहसान नहीं किया जाता बल्कि यह अपने ही लाभ का वैज्ञानिक उपाय है। आधा घंटे शून्य में रहने से चेतना का सबसे बड़ा व्यायाम होता है।

बहरहाल आज 9 बजे रात में बत्तियां बंद करके 9 मिनट तक अपनी-अपनी रोशनी जलाने का शौक पूरा करने में अगर कोई विशेष लाभ न हो तो कोई हर्जा भी नहीं है। लंबे लाॅकडाउन का अवसाद छांटने में ऐसे खिलवाड़ों से अवश्य ही कुछ न कुछ मदद मिलेगी। मोदी जी से आग्रह है कि आज के बाद भी लाकडाउन के 9 दिन शेष हैं बीच में ऐसे किसी खिलवाड़ का कम से कम एक स्टैप और हो जाये।     

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Regards,
K.P.Singh 
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