कृष्णमोहन झा-
मध्यप्रदेश
की शिवराज सरकार को राज्य विधानसभा के अंदर इतना बहुमत हासिल है कि एक
विधान सभा सीट के उपचुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रत्याशी की हार से
उसकी प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आना चाहिए थी परंतु विगत दिनों संपन्न दमोह
विधानसभा सीट के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी की करारी
हार ने सत्तारूढ़ पार्टी ही नहीं बल्कि शिवराज सरकार को भी स्तब्ध कर दिया
है। आश्चर्य जनक बात तो यह है कि मात्र एक सीट के उपचुनाव परिणाम ने सरकार
और पार्टी को इस स्थिति में ला दिया है मानों उसके पैरों के नीचे की जमीन
ही खिसक गई हो। दमोह के उपचुनाव में कांग्रेस की शानदार विजय से एक ओर जहां
उसके नेता और कार्यकर्ता फुले नहीं समा रहे हैं वहीं दूसरी ओर भाजपा
सरकार और संगठन को मानों सांप सूंघ गया है।
यह भी कम आश्चर्यजनक बात नहीं
है कि जिस कांग्रेस प्रत्याशी ने 2018 में संपन्न विधानसभा चुनावों में
यहां भाजपा उम्मीदवार को 790 मतों से हरा दिया था उसे ही भाजपा प्रत्याशी
के रूप में दमोह के मतदाताओं ने 17 हजार मतों के भारी अंतर से हरा दिया।
भाजपा प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी की करारी हार का सबसे पहला संदेश तो यही
है कि दमोह के मतदाताओं को राहुल सिंह लोधी का कांग्रेस छोड़कर भाजपा का
दामन थाम लेने का फैसला पसंद नहीं आया। दमोह के मतदाताओं की मंशा भी अगर
यही थी कि राहुल सिंह लोधी कांग्रेस छोडकर भाजपा में शामिल हो जाएं तो
विगत दिनों संपन्न उपचुनाव में वही मतदाता उन्हें भाजपा प्रत्याशी के रूप
में जिताकर ईवीएम के मााध्य से अपनी मंशा उजागर कर सकते थे परंतु उन
मतदाताओं ने राहुल सिंह लोधी को 17 हजार मतों के बड़े अंतर से हरा कर
मानों उन्हें जनादेश का अपमान करने की सजा दे दी है।
दमोह के उपचुनाव में
भाजपा की इस करारी हार में दरअसल पार्टी के लिए यह चेतावनी भी छिपी हुई है
कि उसे राज्य में अपनी सत्ता को और मजबूत करने के लिए दल-बदल को
प्रोत्साहित करने के सुनियोजित अभियान को अब विराम दे देना चाहिए। आखिर
क्या कारण है कि जो कांग्रेस विधायक को भाजपा में शामिल हुए हैं उन्हें
मंत्रिमंडल अथवा निगम और मंडल में किसी पद के सम्मान से नवाजा जा रहा
है।सवाल यह भी उठता है कि अगर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले
विधायकों को उपचुनाव में विजयी होने के बाद मंत्रिपद से नहीं नवाजा जाएगा
तो क्या उनकी निष्ठा संदिग्ध हो सकती है। अगर ऐसा नहीं है तो उपचुनाव में
सत्ताधारी दल के अधिकांश उम्मीदवारों को मंत्रिपद से नवाजने के पीछे आखिर
कौन सी मजबूरी होती है।इस सवाल का उत्तर तो सत्ता धारी दल को देना ही
होगा।मध्यप्रदेश विधानसभा के 2018 में संपन्न चुनावों में तत्कालीन शिवराज
सरकार के अनेक वरिष्ठ मंत्री अपनी सीट बचाने में सफल नहीं हो पाए थे। उन
मंत्रियों में तत्कालीन वित्त मंत्री जयंत मलैया भी शामिल थे जो कांग्रेस
उम्मीदवार राहुल सिंह लोधी से मात्र 790 मतों के मामूली अंतर से हार गए थे।
जयंत मलैया की हार का एक कारण यह भी माना गया था कि शिवराज सरकार के ही
एक अन्य मंत्री डा रामकृष्ण कुसमरिया ने भाजपा की टिकट न मिलने से नाराज
होकर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप के रूप मे दमोह सीट से पर्चा भर दिया था।उस
चुनाव में डा कुसमरिया को तो हार का सामना करना ही पड़ा परंतु उन्हें
जितने मत मिले उससे भी कम मतों से जयंत मलैया चुनाव हार गए। राहुल सिंह
लोधी ने मप्र विधानसभा में लगभग दो वर्ष तक कांग्रेस के विधायक के रूप में
प्रतिनिधित्व करने के बाद सत्ताधारी दल का दामन थाम लिया था जिसके कारण
संवैधानिक प्रावधानों के तहत दमोह विधानसभा सीट में उप चुनाव कराया गया।
उपचुनाव में पूर्व वित्तमंत्री जयंत मलैया भाजपा की टिकट के प्रमुख
दावेदार थे परंतु पार्टी ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए राहुल
सिंह लोधी को उम्मीद वार बना दिया। संभवतः पार्टी यह मान चुकी थी कि
उपचुनाव में राहुल सिंह लोधी की जीत की संभावनाएं जयंत मलैया से कहीं अधिक
हैं। राहुल सिंह लोधी को भाजपा में शामिल होने के लिए उपकृत करना भी पार्टी
की विवशता थी। गौरतलब है कि गत वर्ष के प्रारंभ में जब सिंधिया गुट के 22
कांग्रेस विधायकों ने भाजपा में शामिल होकर तत्कालीन कमलनाथ सरकार के पतन
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी तब भी भाजपा ने उन सभी को उनकी विधानसभा
सीटों पर हुए उपचुनाव में पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनाया था। ऐसा पहली
बार नहीं हुआ था। शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में जब बहोरीबंद के
तत्कालीन कांग्रेस विधायक संजय पाठक भाजपा में शामिल हुए थे उसके बाद हुए
बहोरीबंद विधानसभा सीट के उपचुनाव में संजय पाठक को ही भाजपा ने न केवल
अपना उम्मीदवार बनाया बल्कि उनके विजयी होने पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह
चौहान ने उन्हें मंत्री पद से नवाज दिया था। इसी तरह सिंधिया गुट के जिन
विधायकों ने गत वर्ष भाजपा में शामिल होकर राज्य में भाजपा सरकार के गठन
का मार्ग प्रशस्त किया उनमें से भी लगभग सभी विधायकों को मंत्री पद से
नवाजना मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की विवशता थी।ऐसा मानने के भी
पर्याप्त कारण हैं कि अगर राहुल सिंह लोधी दमोह विधानसभा सीट के उपचुनाव
में कामयाबी हासिल कर लेते तो वे भी शिवराज सरकार ने मंत्री पद के दावेदार
हो सकते थे परंतु उनकी पराजय ने उन्हें विधायक पद से भी वंचित कर दिया।
आज उन्हें यह मलाल तो अवश्य होगा कि अगर वे कांग्रेस छोडकर भाजपा में
शामिल नहीं हुए होते तो वर्तमान विधानसभा में वे दमोह की जनता के हक में
आवाज उठाने के हकदार बने रहते। आज स्थिति यह है कि उन्होंने न केवल अपनी
विधायकी खो दी है बल्कि दमोह की जनता का भरोसा भी खो दिया है।दमोह के
उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी की करारी हार के बाद पार्टी
में हाय-तौबा की स्थिति दिखाई दे रही है । खुद राहुल सिंह लोधी यह आरोप लगा
रहे हैं कि उनकी हार सुनिश्चित करने में शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल
में वित्तमंत्री रहे दमोह के आठ बार के विधायक जयंत मलैया का बहुत बड़ा
हाथ है । जयंत मलैया ने इस आरोप से स्पष्ट इंकार करते हुए कहा है । शिवराज
सरकार के वरिष्ठ मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दमोह में भाजपा प्रत्याशी राहुल
सिंह लोधी की करारी हार के लिए पार्टी के अंदर मौजूद जयचंदों को
जिम्मेदार ठहराया है। नरोत्तम मिश्रा ने उन जयचंदों का नाम उजागर करने से
भले ही परहेज़ किया हो परंतु उनके बयान से प्रकारांतर में राहुल सिंह लोधी
के आरोप की ही पुष्टि होती है। केंद्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल का कहना है
कि दमोह में हम हारे जरूर हैं परंतु हमने सीखा बहुत है। पार्टी को
प्रहलाद पटेल की इस प्रतिक्रिया में गहरे निहितार्थ खोजने की आवश्यकता है ।
अब देखना यह है कि पार्टी दमोह के उपचुनाव परिणाम से क्या सबक लेती है।
दमोह के मतदाताओं पर जयंत मलैया का अच्छा खासा प्रभाव है और मंत्री न होने
के बावजूद दमोह के किसी भी चुनाव में उनकी उपेक्षा पार्टी को आगे भी महंगी
पड़ सकती है लेकिन भाजपा इतनी बड़ी हार के लिए केवल जयचंदों को जिम्मेदार
नहीं ठहरा सकतीं ।उसे सत्ता और संगठन की कमियों पर भी गंभीरता से विचार
करना होगा।सत्ता और संगठन की पूरी ताकत लगा देने के बावजूद पार्टी को करारी
हार का सामना आखिर क्यों करना पड़ा। शिवराज सरकार के लगभग 20 मंत्री दमोह
में पार्टी के चुनाव अभियान को मजबूत बनाने में जुटे हुए थे। पार्टी के
प्रदेश अध्यक्ष वी डी शर्मा और शिवराज सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री गोपाल
भार्गव और भूपेंद्र सिंह चुनाव अभियान में अहम जिम्मेदारी निभा रहे थे
लेकिन इसके बावजूद अगर भाजपा के दिग्गज रणनीतिकारों को अगर पार्टी में
भीतरघात की थोड़ी सी भी भनक नहीं लगी तो इस पर आश्चर्य ही व्यक्त किया जा
सकता है। इसका एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि भाजपा के जिन दिग्गज
नेताओं के ऊपर पार्टी प्रत्याशी राहुल सिंह लोधी को जिताने की जिम्मेदारी
थी उनकी इस उपचुनाव में ज्यादा दिलचस्पी ही नहीं थी।कोरोना काल में हुए
इस उपचुनाव में प्रदेश को कोरोना संक्रमण की भयावहता से बचाने में राज्य
सरकार की कथित असफलता के आरोपों ने भी भाजपा प्रत्याशी की पराजय में बड़ी
भूमिका निभाई।
गौरतलब है कि दमोह उपचुनाव के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी अजय
टंडन खुद भी संक्रमित हो गए थे। दमोह उपचुनाव के परिणाम से विधान सभा में
भाजपा और कांग्रेस के संख्या बल में कोई फर्क नहीं पडा है परंतु 2018
में मात्र आठ सौ मतों से जीतने वाली कांग्रेस पार्टी ने यह उपचुनाव 17
हजार मतों से जीत कर प्रदेश की शिवराज सरकार के विरुद्ध अपनी लड़ाई को और
तेज करने का मनोबल अर्जित कर लिया है। दमोह में पूर्व मुख्यमंत्री द्वय
दिग्विजयसिंह और कमलनाथ तथा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव
सहित सभी वरिष्ठ नेताओं की एकजुटता के कारण दमोह में पार्टी प्रत्याशी की
शानदार जीत का मार्ग प्रशस्त हुआ । कांग्रेस कार्यकर्ताओं का यह उत्साह और
नेतृत्व की यह एकजुटता अगर प्रदेश में अगले कुछ महीनों के दौरान होने
वाले नगर निगम,नगर पालिकाओं,जिला पंचायतों और जनपद पंचायतों के चुनावों में
बरकरार रहती है तो कांग्रेस पार्टी प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार और
संगठन दोनों के लिए कठिन चुनौती पेश करने में सफल होगी। कोरोना संकट काल
में आक्सीजन, रेमडेसिविर इंजेक्शन तथा टीकाकरण के प्रबंधन को लेकर नित नए
आरोपों से घिरी सरकार के लिए दमोह के उपचुनाव परिणाम नई चुनौती बनकर सामने
आए हैं।
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