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12.10.22

सामाजिक लोकतंत्र को पूर्व शर्त मानने वाले बाबा साहब और डा लोहिया के इरादे क्यों नहीं हुए कामयाब

केपी सिंह-

भारतीय लोकतंत्र की गुत्थियों में बहुत उलझाव है जिन्हें सुलझाना आसान नहीं है। पश्चिम की लोकतांत्रिक महाशक्तियों में इसकी प्रेक्टिस को लगभग पांच दशक का समय व्यतीत हो चुका है तब वहां परिपक्व लोकतंत्र बन सका, जबकि भारत में अभी सत्तर वर्ष से कुछ ही ज्यादा समय गुजरा है लेकिन तब दुनिया एक गांव में नहीं बदली थी। आज संचार की रफ्तार  वैश्विक विमर्श की सघनता कहां से कहां पहुंच चुकी है ऐसे में बदलाव के लिए सत्तर वर्ष का समय भी बहुत होता है। हालांकि भारतीय लोकतंत्र ने कई उत्कृष्ट सोपान भी चढ़े हैं लेकिन कई पहलुओं में यह इतनी विडम्बना का शिकार है कि स्थिति शोचनीय नजर आने लगती है।

संविधान के लागू होते समय बाबा साहब डा अम्बेडकर ने कहा था कि इसके लक्ष्य तब तक हासिल नहीं हो सकते जब तक कि सामाजिक स्तर पर लोकतंत्र कायम नहीं हो पाता। इसके लिए राजनीतिक लोकतंत्र को लागू करने के पहले जो होमवर्क होना चाहिए था वह नहीं हुआ। इसलिए संविधान की घोषित व्यवस्थायें कितनी फलित हो पायेंगी इसकी पड़ताल आवश्यक है।

आजादी के संघर्ष के समय तो सामाजिक लोकतंत्र के मुद्दे पर और ज्यादा जटिल स्थितियां थी। स्वनामधन्य लोकमान्य तिलक तक अंग्रेजों से आजादी के लिए बलिदानी संघर्ष छेड़े हुए थे लेकिन उन्हें दलितों को बराबरी का दर्जा देना गंवारा नहीं था। कांग्रेस के अधिवेशन के समय इस मुद्दे पर विचार के लिए अलग पंडाल लगवाया जाता था जिसे उन्होंने नाराज होकर जलवा दिया था। सवर्ण जातियों की विभूतियों तक के इस रूख के कारण ही डा अम्बेडकर इस बात की वकालत करने लगे थे कि अंग्रेज भारत छोड़ने के पहले अछूतों के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी करके जायें और जब तक यह नहीं होता तब तक अछूत चाहते हैं कि अंग्रेजी सत्ता ही देश में बनी रहे। उन्होंने इसीलिए दलितों के लिए भी कम्युनल अवार्ड मांग डाला था जिसके विरोध में गांधी जी ने ऐतिहासिक आमरण अनशन किया था। जिसके बाद पूना पैक्ट अस्तित्व में आया।

गांधी जी ने कट्टर वैष्णव होते हुए भी सामाजिक लोकतंत्र की प्रस्तावना लिखने की भूमिका रची। गांधी युग में तिलक युगीन कट्टरता का परित्याग कर सवर्णों को उदार रूख के लिए तैयार किया गया। आजादी के बाद डा राम मनोहर लोहिया ने सामाजिक लोकतंत्र की पृष्ठभूमि को मजबूत किया। वे बाबा साहब अम्बेडकर के साथ मोर्चा बनाना चाहते थे और बाबा साहब ने भी इसके लिए सहमति दे दी थी लेकिन उनका जल्द अवसान हो गया। डा लोहिया बाद में पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पांवे साठ का नारा देकर इस सिलसिले को आगे बढ़ाये रखा। यह संयोग नहीं है कि सामाजिक लोकतंत्र के लिए सच्ची तड़प रखने वाले महापुरूष सामाजिक समानता के साथ-साथ लैंगिक समानता को राजनीति में संभव बनाने का अभियान चला रहे थे। इस मामले में भी बाबा साहब और डा लोहिया एक राय के थे। बाबा साहब ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा ही शारदा मैरिज एक्ट के मुद्दे पर दिया था जिसमें उनका आग्रह हिन्दू विधवाओ को पुनर्विवाह की अनुमति दिलाना था। नेहरू तो उनके साथ थे पर राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद व अन्य प्रभावशाली कांग्रेसियों के रूढ़िगत विचारों के कारण नेहरू कमजोर पड़ गये थे और डा अम्बेडकर विरोध में नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर आ गये थे। डा लोहिया ने पिछड़ों ने बांधी गांठ का जो नारा दिया था उसे भ्रमवश आज पिछड़ी जातियों के लिए साठ फीसदी आरक्षण की मांग के रूप में दिखाया जाता है जबकि ऐसा नहीं है। उनकी पिछड़ों की समूह वाचक संज्ञा में मध्य जातियों के साथ -साथ दलित और किसी भी वर्ग की महिलायें भी कवर थी। सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण को संपूर्णता में देखने वाले ईमानदार विद्वानों और सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए यह स्वाभाविक ही था।

डा लोहिया कहते थे कि सामाजिक लोकतंत्र की शुरूआत तब होगी जब सदियों तक अग्रणी रहे सवर्ण कुछ दशकों के लिए वंचितों के पीछे काम करना गंवारा करें। वह कहते थे कि सबसे आगे उन्हें रखा जाना चाहिए जिन्हें परंपरागत व्यवस्था में सबसे पीछे रखा गया था। इसके बाद मध्य जातियों की लीडरशिप को स्पेस दिया जाये और सवर्ण कुछ दशकों के लिए अपनी लीडरशिप पर अड़ने की बजाय अनुयायी के रूप में काम करने की मानसिकता दिखायें। उन्होंने जनेश्वर मिश्र, मधुलिमये और राजनारायण आदि अपने दिग्गज अनुयायियों का नाम लेकर कहा था कि सवर्ण होते हुए भी ये लोग इस मुहिम में उनके साथ है यानी स्पष्ट वैचारिकता को सामने रखने पर इस बदलाव में सवर्ण पूरी तरह हाथ बटायेंगे।

बुर्जुआ लोकतंत्र के आदर्श उनके मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ थे। वे सोचते थे कि सामाजिक सामंतशाही यानी वर्ण व्यवस्था में लोकतंत्र विरोधी बीज निहित हैं इसलिए अगर इसे बदल दिया जाये तो कांग्रेस के कारण राजनीतिक के अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, वंशवाद, सार्वजनिक संसाधनों की लूट और सत्ता की निरंकुशता जैसी जो कुरीतियों पनप रहीं हैं उन्हें लोकतंत्र की राह से हटाकर उसे वास्तविक रूप से सफल बनाने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। लेकिन क्या ऐसा हो सका।

पहली बार जब केन्द्र में सत्ता परिवर्तन 1977 में हुआ तब तक लोहिया जी इस दुनिया में नहीं रह गये थे। जनता पार्टी में वैसे तो जनसंघ घटक भी समाहित था लेकिन दबदबा सोशलिस्टों का था यानी लोकदल का था जो पिछड़ों को सत्ता में आगे लाने की भूख जगाने वाले लोहिया की मानस संतान का प्रतिरूप था। दुर्भाग्य से सरकार में लोहिया के चेलों ने सत्ता के दुरूपयोग के मामले में कांग्रेसियों के कान काट डाले। वह तो जनता पार्टी की सरकार ढ़ाई वर्ष ही चली वरना सोशलिस्टों की विकृति का बहुत ही नग्न रूप तब सामने आ जाता।

इसके लगभग दस वर्ष बाद जनता दल की सरकार बनी। इसका नेतृत्व भले ही विश्वनाथ प्रताप सिंह के ही हाथ में था लेकिन इसकी वर्ग सत्ता सोशलिस्टों की थी। इसलिए राज्यों में मध्य जातियों की सरकारें बनी जिनके नेताओं ने लोहियावाद को शर्मनाक स्थिति में पहुंचा दिया। लोहिया जी की धारणा के अनुसार इस सत्ता में जब दलितों को आगे करने का मौका आया तो उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री बनने के बावजूद शरद यादव और मुलायम सिंह ने बिहार में अनुसूचित जाति के प्रखर नेता रामसुन्दर दास को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया क्योंकि उन्हें यादव ही मुख्यमंत्री चाहिए था इसलिए नये नवेले लालू यादव की ताजपोशी करा दी गई। इसके बाद मुलायम सिंह और लालू यादव ने जब राजनीति का अपराधीकरण शुरू किया और वंशवाद व परिवारवाद की पराकाष्ठा दिखानी शुरू की तो हस्तिनापुर से बंधे होने की गिरोहबंद मानसिकता दिखाते हुए सोशलिस्टों के थिंक टैंकों मधुलिमये व जनेश्वर मिश्र जैसे मठाधीशों ने विरोध का साहस दिखाने की बजाय उनके गलत कदमों को पृष्ठांकित ही किया। जबकि डा लोहिया ने ऐसा अवसर आने पर केरल में अपनी ही सरकार के खिलाफ फतवा जारी कर दिया था।

यह दूसरी बात है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जनता दल में जो अंर्तद्वंद मचा उसके कारण लालू व मुलायम के खेंमे अलग-अलग हो गये। इसमें भी द्रोणाचार्यो ने पक्षद्रोह करने में संकोच नहीं बरता। डा लोहिया के आरक्षण सिद्धंात के अनुरूप मधुलिमये और जनेश्वर मिश्र को रहना तो जनता दल में चाहिए था पर वे दूसरे पाले में चले गये जिसको सवर्णशाही मंडल क्रांति को निष्फल करने के लिए शिखंडी की तरह इस्तेमाल कर रही थी। बाद में इसी खेमे ने विधायी संस्थाओं में महिला आरक्षण के कदम को निष्फल करके लोहियावाद की आत्मा को पूरी तरह कुचल डाला। उधर बाबा साहब डा अम्बेडकर के विचारों की पालकी उठाने का दिखावा करके बसपा ने भी उनके सिद्धांतों के साथ कम खिलवाड़ नहीं दिखाया।

सार्वजनिक जीवन की पवित्रता और शुचिता का निर्वाह करते हुए बाबा साहब तो अपने बेटे के लिए भी निर्मम हो गये थे उनका आचरण में अनुशीलन मान्यवर कांशीराम ने तो किया जिन्होंने अपने लिए या अपने परिवार की सुख सुविधा के लिए मिशन का एक पैसा नहीं लगाया। पर उनकी शिष्या मायावती ने इस आन की कोई परवाह नहीं की। उन्होंने राजनीति को वसूली का एक धंधा बना लिया। खुद के ऐश्वर्य को बढ़ाने के लिए भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्ण व्यवस्था कुछ वर्गों के वर्चस्व के पोषण और आम लोगों के शोषण के लिए समर्पित थी। अगर बाबा साहब और डा लोहिया ने यह सोचा था कि इसकी इमारत ढ़हने से लोकतंत्र को जनवादी चरित्र में ढ़ाला जा सकेगा तो उनकी मशाल थामने वालों ने तो उल्टी ही गंगा बहायी। उन्होंने तो सामाजिक लोकतंत्र के लिए अग्रसरता की परवाह तक नहीं दिखायी। मुलायम सिंह और लालू यादव का व्यवहार तो दलितों को द्वोयम दर्जे पर रखने का रहा तो मायावती ने सवर्णों का विश्वास जीतने के लिए पिछड़ों के साथ उपेक्षा की हद तक का बर्ताव किया। दोनों के एजेंडे में राजनीतिक सुधारों का अता पता नहीं रहा जबकि बाबा साहब और डा लोहिया के लिए यह एजेंडा सर्वोच्च प्राथमिकता में प्रदर्शित होता था।

तात्पर्य यह है कि सामाजिक लोकतंत्र से राजनीतिक लोकतंत्र में गति आने के बाबा साहब और लोहिया के सपने वक्त आने पर चूर-चूर नजर आये। आज भाजपा इसका लाभ उठा रही है। सामाजिक व्यवस्था के मामले में उसने वर्ण व्यवस्था का चरित्र बदले बिना सुधारवादी रवैया अपना रखा है जो फलित हो रहा है। साथ ही हर स्याह सफेद में व्यवस्था कायम रखने का उसका दाव भी तथाकथित सामाजिक न्यायवादियों पर भारी पड़ रहा है। 

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