यह आलेख नैनीताल से निकलने वाले पाक्षिक अखबार नैनीताल समाचार के सम्पादक श्री राजीव लोचन साह द्वारा लिखा गया है।
18-19 जुलाई को हम कुछ फितरती आन्दोलनकारी, यानी शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कमला पंत, कमल जोशी, त्रेपन सिंह चौहान, गिरिजा पाठक, वीरेन्द्र पैन्यूली, कमल नेगी आदि देहरादून में `शिक्षा का अधिकार´ बिल पर एक दो दिवसीय कार्यशाला के लिये एकत्र हुए तो स्वाभाविक था कि हाल में ही में विधानसभा के पटल पर रखी गई न्यायमूर्ति वीरेन्द्र दीक्षित की अध्यक्षता में गठित `राजधानी चयन आयोग´ की रिपोर्ट पर चर्चा होती। हम लोगों ने तो इस आयोग को कभी मान्यता दी ही नहीं थी। राज्य आन्दोलन के दौर से ही जनता ने गैरसैंण को अपनी राजधानी मान लिया था, तो इसमें कोई आयोग-वायोग कहाँ आता था ? क्या किसी आयोग ने यह राज्य बनाया था, या कि जनता के संघर्ष और बलिदान से यह राज्य बना था ? यह तो भाजपा और कांग्रेस की सरकारें थीं कि इस आयोग के बहाने राजधानी के मामले को लटकाने की कोशिश कर रही थीं। मगर अब इस आयोग की तथाकथित रिपोर्ट सार्वजनिक हो गई थी तो सरकार के सामने कोई चारा ही नहीं था। वह या तो इस रिपोर्ट को स्वीकार करे या अस्वीकार। अत`: हम सभी महसूस कर रहे थे कि तत्काल कोई आन्दोलनात्मक कार्रवाही करनी चाहिये। उत्तराखंड क्रांति दल से तो कोई अपेक्षा करना फिजूल था। कभी राज्य आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभा चुका यह दल भाजपा की गोद में बैठकर अपनी ढेर सारी थू-थू करवा चुका है और वापस अपनी भूमिका में आने के पर्याप्त मौके मिलने के बावजूद टुच्चे स्वार्थों के लिये अपने को नेस्तनाबूद करने पर तुला है।
अत: यह जिम्मेदारी हमारी थी कि कुछ ऐसा करें कि राजधानी के मसले पर पसरा हुआ सन्नाटा टूटे। समय की किल्लत को देखते हुए तय किया गया कि 20 तारीख को ही, भले ही जल्दबाजी में ज्यादा लोग न जुट सकें, कचहरी स्थित शहीद स्थल से विधानसभा तक कूच किया जायेगा और मुख्यमंत्री को ज्ञापन देकर माँग की जायेगी कि अब तत्काल गैरसैंण को उत्तराखंड की स्थायी राजधानी घोषित करें और विधानसभा के मौजूदा सत्र में ही इस आशय का विधेयक लायें।
कूच हुआ। विधानसभा से आधा किमी. पहले ही हमें रोक लिया गया। अब ऐसी ही व्यवस्था है। उस स्थान पर लोहे के मजबूत गेट लगा दिये गये हैं, जिन्हें जरूरत पड़ने पर बन्द कर दिया जाता है, ताकि कोई अवांछित समूह विधान सभा तक न पहुँच सके। वहीं पर हमें धरना देना पड़ा और वहीं तैनात एक मजिस्ट्रेट को अपना ज्ञापन सौंपना पड़ा।
यह सब ठीक। लेकिन जब कमला पंत की बाईट ले रहे एक टी.वी. पत्रकार ने पूछा कि अब आपके साथ इतने कम लोग क्यों रह गये हैं, एक जमाने में तो आपके साथ हजारों लोगों की भीड़ रहती थी ? तब मैं चौंका। कमला ने उस सवाल का क्या जवाब दिया, मैंने नहीं सुना। लेकिन मैं स्वयं चिन्ता में डूब गया।
हमें यह बात निस्संकोच माननी चाहिये कि अब उत्तराखंड आन्दोलन (इस आन्दोलन को हम लोग अभी भी उत्तराखंड आन्दोलन इसलिये कहते हैं, क्योंकि राज्य बनने के बाद भी जनता की न्यूनतम अपेक्षायें भी अभी कहाँ पूरी हुई हैं) में उतने सारे लोग शामिल नहीं होते, जितने सन् 1994 के उन तूफानी दिनों में होते थे। इसका कारण मैंने तलाशने की कोशिश की तो इसी नतीजे पर पहुँचा कि आन्दोलनकारी नेताओं का एक बड़ा तबका `बागी´ होकर पदलोलुप हो गया है और बहुसंख्य आन्दोलनकारी इस दगाबाजी से निराश होकर उदासीन होकर घर बैठ गये हैं। उ.प्र. के दिनों में पहाड़ के गाँवों को ही नहीं, कस्बों और शहरों को भी लगता था कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। अत: जब राज्य आन्दोलन अपनी पूरी ऊर्जा के साथ प्रकट हुआ तो पूरे उत्तराखंड में समान रूप से फैला। मगर जब राज्य बना तो इन नौ सालों में ढेर सारे आन्दोलनकारियों ने अपने लिये उपजाऊ जमीनें तलाश ली हैं। वे इस या उस राजनैतिक दल के साथ चिपक कर मजे लूट रहे हैं। या फिर आन्दोलन से प्राप्त अपनी शोहरत की कीमत वसूल कर चुके हैं। इनमें वे पत्रकार बंधु भी शामिल हैं, जो एक जमाने में उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के प्रबल समर्थक होते थे और जिनके कारण यह आन्दोलन उत्तराखंड में ही नहीं सिमटा रहा, इसकी गूँज देश-विदेश तक गई। अब ये पत्रकार गैरसैंण जैसे मुद्दों को कतई तरजीह नहीं देते। खुदा न ख्वास्ता गैरसैंण राजधानी बन गई तो उन्होंने देहरादून में अपने जो मकान बना लिये हैं, उनका क्या होगा ? उनके बच्चे जो इतने अच्छे-अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं, उनका क्या होगा क्या उत्तराखंड आन्दोलन ठंडा पड़ गया है ? इसलिये वे गैरसैंण-वैरसैंण से कन्नी काटे रहते हैं।
देहरादून का जो मीडिया है, बड़ा मजेदार है। ऐसे पत्रकार दिल्ली में भी नहीं दिखाई देते। नौजवानों की एक ऐसी पीढ़ी आ गई है, जिन्होंने ढंडकों का, तिलाड़ी के गोलीकांड का या बागेश्वर के कुली बेगार आन्दोलन का तो छोड़िये( पिछले बीस-पच्चीस सालों में ही हुए वन आन्दोलन या नशा नहीं रोजगार दो जैसे आन्दोलनों का नाम भी नहीं सुना है। उत्तराखंड आन्दोलन की भी उन्हें बड़ी सतही जानकारी है। कुकुरमुत्तों की तरह देहरादून में अखबार फैल रहे हैं। शराब के बड़े ठेकेदार और भूमाफिया रंगीन पत्रिकायें निकाल रहे हैं और उनके संवाददाता किसी भी आन्दोलनात्मक गतिविधि को उपहास की नजर से देखते हैं। जब उनके मालिक पत्रिका के बहाने अपने धंधे निपटा रहे हैं तो वे भी क्यों न मंत्रियों-विधायकों के साथ गलबहियाँ डाले अपने लिये विलास के साधन बटोरने में जुटें ? इन अभागे पत्रकारों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है ? उनके लिये तो सिर्फ भगवान से प्रार्थना की जा सकती है कि उन्हें सद्बुद्धि मिले।
लेकिन उन पुराने पत्रकारों, जो कभी राज्य आन्दोलन की रीढ़ हुआ करते थे, के पतन पर वास्तव में दु:ख होता है। क्या उनका जमीर इतना सस्ता था ? क्या उनके लालच इतने छोटे थे कि नौ साल में प्राप्त छोटे-मोटे प्रलोभनों में ही वे फिसल गये ? क्या उनके पास उत्तराखंड क्रांति दल की ही तरह इस नवोदित प्रदेश के लिये कोई सपना नहीं था ? वे इतना भी नहीं जानते कि राजधानी शासन-प्रशासन का एक केन्द्र होता है, बाजार का या स्वास्थ्य-शिक्षा की सुविधाओं का नहीं। राजधानी एक विचार होता है। और गैरसैंण तो हमारी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के लिये असीमित संभावनायें भी छोड़ता है। जिस तरह कुम्हार मिट्टी के एक लोंदे को आकार देता है, हम दसियों मील तक फैले इस खूबसूरत पर्वतीय प्रान्तर को गढ़ सकते हैं। मुगलों और अंग्रेजों ने इतने खूबसूरत शहर बसाये, हम क्यों नहीं बसा सकते ? क्या हम जमीन के अपने छोटे से प्लॉट में अपना मन-पसन्द आशियाना नहीं बनाते ? लेकिन नहीं, भ्रष्ट हो चुके दिमागों में सकारात्मक सोच आ ही नहीं सकता।
यह इस `बागी´ हो चुके मीडिया और अपनी-अपनी जगहों पर फिट हो चुके आन्दोलनकारियों के ही कुकर्म हैं कि उत्तराखंड आन्दोलन के मुद्दे अब शहरों, खास कर देहरादून में उतनी भीड़ नहीं जुटा पाते।
लेकिन आन्दोलन के मुद्दे तो अभी जीवित हैं। पहाड़ के दूरस्थ इलाके तो अभी भी उतने ही उपेक्षित, उतने ही पिछड़े हैं, जितने उत्तराखंड राज्य बनने से पहले थे। वहाँ से कुछ चुनिन्दा लोग, जिनके पास कुछ था, बेच-बाच कर देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, हल्द्वानी, टनकपुर या रामनगर में अवश्य आ बसे हैं। लेकिन वहाँ की बहुसंख्य जनता तो अभी भी बदहाली में जी रही है। तो क्या वह अपने हालातों को अनन्त काल तक यों ही स्वीकार किये रहेगी र्षोर्षो कभी न कभी तो वह उठ खड़ी होगी और जब वह खड़ी होगी तो भ्रष्ट हुए आन्दोलनकारियों की भी पिटाई लगायेगी और मीडिया की भी। गैरसैंण तो एक टिमटिमाते हुए दिये की तरह उसकी स्मृति में है और बना रहेगा......तब तक, जब तक उत्तराखंड राज्य बलिदानी शहीदों की आकांक्षाओं के अनुरूप एक खुशहाल राज्य नहीं बन जाता।
6.8.09
क्या उत्तराखंड आन्दोलन ठंडा पड़ गया है ?
Labels: उत्तराखंड आन्दोलन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
is lekh me sab kuchh sahi likha hai main sahmat hun ,bas ek baat ya bhul gaye ya jaanbujh kar najarandaaj kar diya hai ,vo uttrakhand ki janta ki gaddari, jisne uttrakhand aandolan me lagi ko shaktiyon ko sattar me se saat siten tak nahin di ,ulta aise logon ko gaddi sonp di jinki mul bhavna uttrakhand ke viprit thi.
is gaddari ko kyon bhul gaye ?
Post a Comment