कुछ कामों से इस बार फगवारा, पंजाब (लुधिअना और जालंधर के बीच बसा एक छोटा सा शहर) जाने का मौका मिला. पंजाब जाने के नाम से ही मन में एक अजीब सा अनुभव था... एक अच्छा अनूभव. क्या क्या नहीं सुन रखा था इस प्रदेश के बारे में, खेतो-खलिहानों से भरा, भांगरे की मस्ती में डूबा प्रदेश, फौजियों का प्रदेश... जैसे ही मेरी ट्रेन ने पंजाब में प्रवेश किया खेतो को देखकर मेरा भी दिल हराभरा हो गया (भंगरा या फौजी नहीं दिखे). पर मेरा सारा उल्लास फगवारा पहुँचते ही ख़त्म हो गया.
फगवारा पंजाब का एक जाना माना शहर है. फगवारा प्रचलित है "जे सी टी फब्रिक्स मिल्स", "स्टार्च मिल्स" और "ऑटो पार्ट्स मिल्स" के लिए. आजकल एक और नाम हर टीवी चैनल पर दिखाई दे रहा है... "लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी" का नाम. अगर कहा जाये तो एक आम शहर से बहुत कुछ ज्यादा है इस शहर में. पर अगर नहीं है इस शहर में तो तहजीब. जोकि हम हिन्दुस्तानियों का गहना होता है.
अपनी जिंदगी के २५वे स्वतंत्र दिवस पर मैं अपने देश की शान अपने तिरंगे को देखने के लिए तरस गया. सुबह लगभग ९ बजे मैं अपने होटल के कमरे से इस उम्मीद से निकला था कि आज के दिन मैं कम से कम अपना लहराता तिरंगा तो देख लूँगा. पर समय बीतता गया और मेरी हसरत मेरे दिल में ही रह गयी. तिरंगे देखने की चाह में मैं लगभग पूरा फगवारा घूम गया. कई सारे स्कूल और कोलेजों के पास गया, रेलवे स्टेशन, बैंक्स और न जाने कितनी ही जगह पर हर जगह अपने देश के झंडे की जगह मायूसी हाथ लगी. विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं अपने ही देश के किसी कोने में हूँ. मुझे याद है जब मैं छोटा हुआ करता था, मेरे चाचा हम सब भाई बहनों के लिए छोटे छोटे तिरंगे लाते थे और हम सब को बाजार ले जाते थे राष्टीय मिठाई 'जलेबी' खिलाने. पर अब मैं छोटा नहीं हूँ न ही मैं अपने शहर में हूँ जहाँ आज भी लोग इस दिन को किसी पर्व सा ही मनाते है.
मैं तो फगवारा में था, एक ऐसे शहर में जहाँ आपको दवाई से ज्यादा सहज शराब की दुकाने मिल जाएँगी. जहां drugs ऐसे मिल जाते है जैसे हमारे शहरों में परचून की दूकान पर चीनी मिलती है (फगवारा के ही एक स्थानीय निवासी के अनुसार). १५ अगस्त... जिस दिन पुरे देश में ड्राई डे होता है वहीँ फगवारा में लगभग शराब की हर दुकाने खुली हुई थी और लोग जमकर बिना किसी डर के खुलेआम आम दिनों की ही तरह शराब का लुत्फ़ उठा रहे थे (आखिर उन्हें डर हो भी क्यों? उनके पास ही तो कई पंजाब पुलिस के जवान मौजूद थे).
सुबह से रात हो गयी पर मुझे तिरंगा तो दूर तिरंगे का एक भी रंग न दिखा. मायूस सा वापस अपने होटल लौट आना मेरी मजबूरी थी (जबकि दिली इक्छा थी कि मैं तुंरत पंजाब छोड़ कर बिहार पहुँच जाऊँ). पहली बार देश की आजादी के दिन गर्व नहीं शर्म महसूस हो रहा था. और भी आज भी शर्म महसूस कर रहा हूँ कहते हुए कि मेरे देश में ऐसे भी जमीन के टुकड़े है.
वहां के स्थानीय निवासी बड़े गर्व के साथ कहते है कि फगवारा के हर परिवार का कोई न कोई सदस्य विदेशों में बसा है. पर मुझे ये समझ में नहीं आता कि अपना घर छोड़ कर गर्व करने लायक बात कौन सी है. खैर मैं तो उम्मीद करूँगा कि जैसी आजादी का दिन मैं इस बार मनाया वैसा दिन कभी दुबारा मेरे सपनो में भी नहीं आये.
२५ सालो की जिंदगी में पहली बार स्वतंत्रता दिवस के दिन न मैंने तिरंगे को सलाम किया और न ही जलेबी खायी. मैं ये नहीं कहता हूँ कि मैं इस देश का बहुत बड़ा भक्त हूँ पर हाँ इस देश के प्रति मेरा सम्मान बहुत है.
इस दिन ने मुझे रात भर जागने के लिए मजबूर रखा और सोंचने के लिए मजबूर किया कि आखिर हमें क्या होता जा रहा है. हम किस दौड़ में भागे चले जा रहे है? हम क्या बनते जा रहे है? अपने इन्ही प्रश्नों का जवाब आप सब से चाहूँगा... जब भी समय मिलेगा अपने एक नए विचार आपके सामने रखूँगा आपकी राय जानने के लिए... बस ज़रा सोंचिये और ज़रा बदल कर देखिये...
5 comments:
महंगाइ के चलते आटा दाल के जुगाड मे निकल जा रहा हे जीवन . की देश आज़ाद हे कि गुलाम अब लोगो को कोइ फ़र्क नही पडता .
भूखे पेट ना भजन होत हे न देशभक्ती .
मानवता हो गई अस्त फिर भी १५ अगस्त
sach dost sochne ki bat hai ki ham kaha ja rahe hai
मानवता हो गई अस्त फिर भी १५ अगस्त
sach dost sochne ki bat hai ki ham kaha ja rahe hai
bhayi inder... aapne likha "भूखे पेट ना भजन होत हे न देशभक्ती"....
aapke jawaab mein jald hi likhunga hum bhukhe deshwashi bhukhe pet kya kya nahi karte hai...
हम आजादो को उन गुलाम सहीदो का अहसान मानना चाहीये जेन्होने अपनी जान की कुर्बानी दी. अहसान फरामोसो की कमी तो है नहीं शायद ये इसी का सबूत भी है. जय हिंद जय भारत.
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