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3.8.09

फ़ासीवादी ताक़तें सत्ता में हों, या सत्ता से बाहर, वे लगातार अपना काम कर रही हैं।

-संदीप-

देशी-विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे पूरी तरह से खोले जा चुके हैं। पूंजी के हाथों मेहनतकशों की निर्मम लूट बदस्तूर जारी है। बड़ी तेजी के साथ किसान खेत-खलिहानों से उजड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं और शहरीकरण की रफ्तार आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक बढ़ गयी है जो कि शहर के किनारों पर मानव बस्तियों के एक रौरव नर्क का निर्माण कर रही है पर उनमें भी बसते मानव ही हैं। मंदी क्या है। अति-उत्पादन से पैदा हुआ संकट। लेकिन इससे बचने के जो उपाय किये जा रहे हैं वे संकट को कम करने की बजाय और अधिक बढ़ा रहे हैं। मजदूरों का शोषण-दमन पहले के मुकाबले अधिक होता जा रहा है (इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में काम करने वाले 90 फ़ीसदी मज़दूरों सहित) और इसी संकट के परिणामस्वरूप फ़ासीवादी संकट और राजनीति भी उभार पर है, पर विरोध के स्वर पहले हमेशा के मुकाबले कमजोर और क्षीणतर हैं। ज्ञान-विज्ञान का प्रसारक बुद्धिजीवी अपनी रीढ़ को सीधी नहीं रख पा रहा है, (ध्‍यान करें उदयप्रकाश द्वारा योगी के हाथों सम्‍मानित होने का प्रकरण)। सर्व-सुविधा संपन्न जीवन की रोगी चाहत उसे तर्क-वितर्क करने से रोकती है। जो थोड़े से जनपक्षधर बुद्धिजीवी हैं भी वे रस्मी विरोध से आगे नहीं जा पाते।

केवल विरोध-पत्रों पर हस्तारक्षर करके, वातानुकूलित सभागारों में चर्चा करके इस विषबेल का समूल नाश नहीं किया जा सकता। इसके लिए ज़रूरी है कि सभी सचेत और ईमानदार पत्रकार-साहित्‍कार-कलाकार फ़ासीवाद के कारणों को समझें और फ़ासीवाद के ख़ि‍लाफ़ लड़ाई को जनता तक पहुंचाने और खुद जनता से जुड़ने के तरीके तलाशें। हमें यह भी समझना होगा कि फ़ासीवाद केवल योगी, भाजपा, संघ, बजरंग दल के मार्फत नहीं आता, बल्कि वह कांग्रेस के जरिये भी आता है। संसदीय चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलना धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जीत नहीं है। चुनावी खेल में कोई भी जीते, उससे फासीवाद को जुकाम तक नहीं होगा, उसका अंत या पतन तो दूर की बात है।

फ़ासीवादी ताक़तें सत्ता में हों, या सत्ता से बाहर, वे लगातार अपना काम कर रही हैं। लोगों के दिमाग़ों में ज़हर और दिलों में नफ़रत भरना उनका तरीक़ा है, झूठ और कुत्‍सा-प्रचार उनके सबसे बड़े अस्‍त्र हैं, कुतर्क और गाली-गलौच ही उनका विमर्श है, छल-छद्म-पाखंड और कुत्सित मानवद्रोह उनकी संस्‍कृति है। प्रगतिकामी लोग, मेहनतकश अवाम, स्त्रियाँ, अल्‍पसंख्‍यक, दमित-दलित-उत्‍पीड़ि‍त जातियाँ और समुदाय उनके सबसे बड़े दुश्‍मन हैं...

चुनावों में हार से वे ख़त्‍म नहीं हो जाएंगे। संसद में सरकंडे के तीर चलाने और टीवी चैनलों पर गत्ते की तलवारें भाँजने से उनका बाल बाँका नहीं होगा। महज़ महानगरों के गोष्‍ठीकक्षों या मंडी हाउस में फ़ासीवाद के प्रतीकात्‍मक विरोध से उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। ठंडे, निष्क्रिय, सुंदर-सुव्‍यवस्थित विरोध की नहीं, इनके विरुद्ध चौतरफा प्रत्‍याक्रमण की ज़रूरत है। व्‍यापक समाज में, तृणमूल स्‍तर तक जाकर इनकी असलियत को नंगा करना होगा। विचार, राजनीति, कला-साहित्‍य-संस्‍कृति हर स्‍तर पर इन शक्तियों और इनके प्रत्‍यक्ष और प्रच्‍छन्‍न प्रवक्‍ताओं से टकराना होगा। उनके झूठ के भ्रमजाल को काटना होगा... वे अपने काम में लगे हुए हैं लगातार... लेकिन जो उनके विरुद्ध हैं, जो उनसे कई गुना ज़्यादा हैं, वे ख़ामोश हैं, निष्क्रिय हैं, ख़ुशफ़हमियों के सहारे हैं...

यह नहीं भूला जा सकता कि सभी चुनावी पार्टियां अपने-अपने वोट-बैंक के लिए जाति-धर्म के झगड़ों को तूल देती रही हैं, जनता को बांटती रही हैं और कूड़े-कचरे का वह ढेर इकट्ठा करती रही हैं जिस पर निरंकुश सामाजिक प्रवृत्तियों की तमाम विषबेल उगी हैं और हिन्दू कट्टरपंथ का मानवभक्षी पौधा पनपा है।

यह भूलना भी आत्‍मघाती होगा कि कांग्रेस ने ही पंजाब में धनी किसानों की पार्टी अकाली दल की धार्मिक भावनाओं पर कायम राजनीतिक आधार को खिसकाने के लिए भिण्डरांवाले को पैदा किया और जब वह उनके लिए ही भस्मासुर बन गया तो उसे समाप्त करने के साथ ही पूरे पंजाब में आतंक राज कायम किया गया था। वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों ने भी पंजाब की आंच पर अपनी चुनावी रोटियां सेंकने से अधिक कुछ नहीं किया। यही नहीं, इंदिरा गांधी-राजीव गांधी के समय से ही कांग्रेस भी 'हिंदू-कार्ड' खेलने की कोशिश करती रही है और इसकी सफलता में संदेह होने पर शाहबानो प्रकरण जैसे मामलों में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों का तुष्टिकरण करके खोये हुए अल्पसंख्यक वोटों को फिर से अपनी झोली में डालने की कोशिशें भी करती रही है। अयोध्या में राम जन्मभूमि का ताला खुलने से लेकर अब तक की घटनाओं में केवल राजीव गांधी-नरसिंह राव की सरकारों की ही नहीं बल्कि वी.पी. सिंह-चंद्रशेखर की सरकारों की भी भूमिका भी रही है।

संसदीय वामपंथ के लिल्ली घोड़े पर सवार गत्ते की तलवारें भांजते ''रणबांकुरे'' भी साम्प्रदायिक फासीवाद-विरोधी अपनी तथाकथित प्रचारात्मक-आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों को महानगरीय मध्यवर्ग के छोटे से हिस्से में सीमित रखते हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी तो दूर की बात है, महानगरों से लेकर छोटे शहरों-कस्बों के निम्न मध्यवर्गीय युवाओं के सामने भी संसदीय वामपंथी दल फासीवाद-विरोधी संघर्ष की तैयारी का कार्यक्रम तो दूर, आम दिशा तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इनकी रणनीति संसद में ''तीसरी ताकतों'' के भाजपा विरोध की मामा-गोटी खेलने से लेकर कांग्रेस को समर्थन देने तक ही मुख्यत: सीमित है।

पिछली सरकार में समर्थन के दौरान भी इन्होंने फासीवाद के खिलाफ जनता को जागृत-गोलबंद करने के लिए कुछ नहीं किया, सिवाय भाषणबाजी और बयानबाजी के। वैसे भी संसदीय वामपंथी सारी सीटों पर काबिज हो जाएं, तो भी फासीवाद खत्म नहीं हो जाएगा। फासीवादी ताकतें लगातार अपना काम कर रही हैं, भले ही इन आम चुनावों में हार से धार्मिक कट्टरपंथी थोड़ी देर के लिए शांत हो जाएं, लेकिन इस पराजय के चलते फासिस्ट ताकतें पहले से और ज्यादा आक्रामक होकर भाषाई, धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों के खिलाफ जहर उगलने का अपना घिनौना काम शुरू कर देंगी, ताकि अगले चुनावों में इस जहर से पोषित फसल काटी जा सके।
अब इन चुनावबाज पार्टियों से इतर बात की जाए, तो दरअसल, विश्व स्तर पर आर्थिक कट्टरपंथ या मूलतत्ववाद की वापसी ने राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर भी कट्टरपंथ के लिए जमीन तैयार की है जिसकी तार्किक परिणति-फासीवादी धाराओं के नये सिरे से फलने-फूलने के रूप में सामने आ रही है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सेवानिवृत्त होने के बाद पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण ने भी यह वक्तव्य दिया था कि वर्तमान आर्थिक नीतियों को एक फासिस्ट राजनीतिक ढांचे में ही पूरी तरह लागू किया जा सकता है। वैसे भी भारत के हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फासीवाद के प्रभाव-विस्तार का इतिहास भारतीय पूंजीवाद के पराभव और पतन के इतिहास का ही एक अध्याय है। भारत में पूंजीवादी जनवाद और धर्मनिरपेक्षता का आधार शुरू से ही कमजोर रहा है तथा सांस्‍कृतिक पुरातनपंथ, अतीतोन्‍मुखता और सर्वसत्तावादी धार्मिक विचारों की एक सशक्त परम्परा समाज में मौजूद रही है।
अंत में, साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव के नारे में नहीं, बल्कि ऐसी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में होगा जिसमें धर्म लोगों का व्यक्तिगत‍ विश्वासमात्र हो, शिक्षा, संचार माध्यमों और राजनीति सहित सामाजिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में उसका लेशमात्र दखल न हो तथा जिसमें वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि समाज की मार्गदर्शक शक्ति हो। धार्मिक कट्टपंथ विरोधी संघर्ष के लिए हमें आज सबसे पहले जागरूक प्रबुद्ध नागरिकों को संगठित करना होगा, फिर जनता के सभी वर्गों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रगतिशील ताकतों का संयुक्त मोर्चा बनाना होगा और फिर फासीवाद के खिलाफ फैसलाकुन लड़ाई के लिए व्यापक जनता को संगठित करना होगा। पत्रकारों-साहित्‍यकारों-कलाकारों को भी अपनी-अपनी चौहद्दियों से बाहर आकर, फ़ासीवादी राजनीति, अर्थनीति, झूठ-पुराण को तार-तार करना होगा, जनता के बीच जाना होगा। वरना आने वाले दिनों में और गुजरात, कंधमाल होंगे, तथा आप-हम केवल खबरें देखते, विलाप करते रह जाएंगे।

(लेखक संदीप से संपर्क sandeep.samwad@gmail.com के जरिए किया जा सकता है. संदीप के ब्लाग पर http://pratirodhh.blogspot.com के जरिए जा सकते हैं)

1 comment:

tension point said...

mahoday is lekh ka nichod to kahi na kahi svami ramdev ke aaj kal chalaye ja rahe bharat svabhimaan aandolan ke vicharon se milta-julta hai.
krapaya lekhak ko ye bata dena .
dhayyavaad (tensionpoint.blogspot.com)