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10.9.09

किसानों की आत्महत्या ,: गैर-जिम्मेदार सरकार और मीडिया

-शेष नारायण सिंह-
पिछले दो दिनों में महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में सात और किसानों ने आत्म हत्या कर ली है.इस इलाके में आत्महत्या करके मरने वाले किसानों की संख्या अब ६३८ तक पंहुंच गयी है.विदर्भ में सोयाबीन और कपास की खेती होती है जिस में लागत बहुत ज्यादा लगती है .जब सूखा पड़ता है तो किसान का नुक्सान भी बहुत ज़्यादा होता है और हार मान कर किसान अपनी जान दे देता है. आत्म हत्या करना बहुत बुरी बात है और इसको किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता .लेकिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे किसानों की यह हालत किसने बनायी जिस के कारण वे अपने परिवार को अनाथ छोड़कर अपनी जिन्दगी खत्म करने पर मजबूर हो रहे हैं.यह पड़ताल का विषय है और इसकी जांच की जानी चाहिए और उब्ब हालत पर काबू पाने की कोशिश की जानी चाहिए जिसकी वजह से किसान अपनी जान दे रहे हैं. .

जो साफ़ नज़र आ रहा है ,वह तो यह है कि सूखे की हालात हैं और उनको अपनी खेती पर किये गए खर्च की रक़म वापस नहीं मिलने वाली है .ज़ाहिर है कि क़र्ज़ वगैरह अदा कर पाना बहुत मुश्किल होगा इस लिए घबडाकर वे जान दे रहे हैं. लेकिन ऐसी हालात किसने पैदा कीं कि किसान इतना बड़े दांव लगा कर खेती करे.विदर्भा का इलाका कैश फसलों के लिए हमेशा से ही जाना जाता है लेकिन खेती में इतना सामान लगने लगा है कि अगर फसल खराब हो जाए तो नुक्सान बहुत होता है.अर्थ.व्यवस्था के उपभोक्तावादी होने की वजह से खर्च बहुत बढ़ गए हैं. जिसका नतीजा हो रहा है कि लोगों में खेती बर्बाद होने के बाद बहुत ज़्यादा निराशा आ जाती है और वे घबडाकर अपनी जिन्दगी ही ख़त्म कर ले रहे हैं . सरकारी नीतियाँ ऐसी हैं कि एयर इंडिया में तो पचास हजार करोड़ की सरकारी मदद दे दी जाती है लेकिन किसान के लिए कहीं कुछ नहीं है.हर साल सूखे में किसानों की आत्महत्या होती है और इस साल का भयानक सूखा पता नहीं क्या क्या लेकर आया है.

अन्य राज्यों में भी हालत कुछ ठीक नहीं है . उत्तर प्रदेश में भी सूखे का कहर जारी है . लभग पूरा राज्य ही सूखे की चपेट में है और खरीफ की फसल को तबाह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन सरकार की ओर से सूखे को काबू में करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है..उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं जहां बिजली हफ्ते में बस एकाध दिन आ रही है. अफ़सोस की बात यह है कि सरकार किसानों की खराब हालत को सुधारने के लिए अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानती..अगर राज्य में बिजली की व्यवस्था ही हो जाईए तो कम से कम धान की फसल बचाई जा सकती थी लेकिन सरकार की प्राथमिकता अभी राज्य भर में मुख्य मंत्री और उनकी पार्टी के नेताओं की मूर्तियाँ लगवाना है .सारी सरकारी मशीनरी इसी कामें ली हुयी है और किसानों के एहालत सुधारने के लिए कोई कोशिश ही नहीं के एजा रही है.एक अजीबोगरीब तर्क भी सुनाने को मिल रहा है कि मुख्य मंत्री की सोच है कि उनका जो मुख्य वोटर है उसे सूखे से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला है .सूखे का नुक्सान तो उन लोगों को होगा जो परंपरागत तरीके से बहुजन समाज का विरोध करते आये हैं. अगर यह आत सच है तो बहुत ही दुःख की बात है क्योंकि पहला तो यही कि कोई भी व्यक्ति मुख्यमंत्री पूरे राज्य का बनता है , केवल अपने वोटरों का नहीं. लेकिन अगर इस कुतर्क को स्वीकार भी कर लिया जाए तो सूखे की आगा जब लगेगी तो पूरे राज्य में लगेगी ,किसी घर को छोडेगी नहीं. उस में सब कुछ तबाह हो जायेया और कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए भी माहौल इतना गर्म हो जाएगा कि वे चैन से नहीं बैठ पायेंगें.


इस लिए वक़्त का तकाजा है कि जो भी सरकार जहां भी हो फ़ौरन गाँव में रहने वाले किसान की हिफाज़त के लियए दौड़ पड़े और फसलों की तबाही को बचाने के लिए सब कुछ बाजी पर लगा दे क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो सब के लिए बहुत ही मुश्किल हो जायेगी.जब गाँव में भूख और मौत का तांडव होगा तो कहीं कुछ नहीं बचेगा और सिंहासनओं की ईंट से ईंट बज जायेगी . यह एक सच्चाई है जो सूखा पीड़ित इलाकों की हर दीवाल पर लिखी है जसको जो हुक्मरान नहीं पढ़ पायेंगें ,उनको यह गाँव ऐसे भुला देंगें जैसे बड़ी बड़ी सल्तनतों को भुला दिया है.

इस आपत्ति के वक़्त मीडिया की भी एक जिम्मेदारी है. साकों के कान पर तो जूँ नहीं रेंग रही है लेकिन उन्हने उनके फ़र्ज़ के इयाद दिलाना हमारी भी जिम्मेदारी है. हमारी बिरादरी को भी चाहिए कि सिनेमा वालों , साँपों , भूतों वगैरह को थोड़े दिन क एलिये छुट्टी दे दें और अपने मुख्य धर्म पर लौट आयें और भारत के देहात में सूखे की चपेट झेल रहे भारत वासियों के बारे में सरकारी अफसरों और नेताओं को हकीकत से वाकिफ कराएँ. अगर हम यह न कर पाए तो आने वाला समय हमें माफ़ नहीं कर पायेगा
संपर्क - sheshji@gmail.com

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