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11.10.09

पंकज के काव्य में संघर्ष चेतना का बोध

-प्रो० ताराचरण खवाड़े-
मैं समदरशी देता जग को
कर्मों का अमर व विषफल
के उद्‌घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कवि स्नेह का दीप जलाने का आग्रही है, ताकि ’भ्रमित मनुजता पथ पा जाये’ और ’अपनी शांति सौम्य सुचिता की लौ से’ जो घृणा द्वेष के तिमिर को हर ले. यह आग्रह बहुत पहले निराला के ’वीणा वादिनी बर दे’ में व्यक्त हो चुका है –
काट अंध उर के बंधन स्तर
कलुष भेद, तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे
इतिवृत्तात्मक द्विवेदी युगीन व यथातथ्यात्मक अभिव्यक्ति का दौर समाप्त हो चुका था. छायावाद लक्षणा-व्यंजना प्रतीक व बिंब योजना के घोड़े पर सवार हो एक नवीन भाषा में प्रकृति, सौंदर्य़, सुख-दुख का गायन व्यक्तितकता के परिवेष्टन में कल्पना का आश्रय ले स्थापित हो चुका था. परिवर्तनशीलता सृष्टि-चक्र की अनिवार्य शर्त है. छायावाद सिर्फ़ मर ही नहीं चुका था, उसका शव-परीक्षण भी कुछ आलोचक कर चुके थे. किन्तु उसकी आत्मा साहित्य के सृजन-क्षितिज पर मंडरा रही थी. उत्तर छायावाद व फिर प्रगतिवाद अपना-अपना मोर्चा संभाल रहा था. ऐसे ही समय में अपनी कविता लेकर कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक और छायावादी प्रवृत्तियों कॊ सुगन्ध है, तो दूसरी और प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास. कवि पंकज की काव्य यात्रा छायावाद व उत्तर छायावाद की क्षीण होती प्रवृत्तियों की राह से शुरू होती है व रूप कविता को देख विस्मित-चकित सा वह गा उठता है–
कौन स्वप्न के चंद्रलोक से
छाया बन उतरी भू पर l
अवगुंठन में विहंस-विहंस जो
तोड़ रही विधि का बंघन l
कभी वह ’कली से बतियाता है, कभी ’सरिता’ प्रिय मिलन के उन्माद उरेहता है, कभी स्मृतियों को कुरेदता है –
तेरी स्मृतियों का हार लिए
मैं जीवन ज्वार सुलाता हूं
या
निशि दिन आती याद तुम्हारी
जबकि
पागल चांद के नयन में चांदनी हो l
ऐसी रचनाओं में कवि की किशोर भावना आत्मुग्धता व यौनाकर्षण के इंद्रजाल में फंसती है. कल्पना का महल खड़ा करती है. अंत में स्वप्न-भंग का दंश भी झेलती है–
जले न वे मुझसे परवाने
मिले न वे मुझसे दीवाने l
– और, अपनी नियति पर जार-जार आंसू बहाती है–
शीतल पवन है गा रहा
बंदी मधुप अकुला रहा l
पंकज जी की ऐसी कितनी-कितनी रचनाओं में छायावादी आत्मा का मंडराना दिखाई पड़ता है. ऐसी कविताओं को देख कवि पंकज को भावुक कवि, कल्पना का कवि, वैयक्तिकता का कवि, छायावादी या फिर उत्तर छायावादी कवि घोषित कर देना जल्दबाजी होगी.
यह कैशोर्य भावुकता का दौर गुजर जाने के बाद जीवन व जगत के यथार्थ से जब उनका साबका पड़ता है, तब कवि महसूसता है कि जीना कितना कठिन है व जीने के लिए संघर्ष कितना जरूरी. उनकी कविताओं में उनके जीवन का यथार्थ कुछ इस कदर घुल-मिल जाता है कि मनुष्य मात्र के संघर्ष का यथार्थ बन जाता है. एक अनजाने गांव खैरबनी गांव का प्रतिभा संपन्न छात्र. कितने बाह्य व आंतरिक अड़चनों को अपनी हिम्मत व उदग्र आकांक्षाओं के सहारे पराजित करता हुआ एक मंजिल पाता है - यह अपने आप में कवि पंकज के व्यक्तित्व के संघर्षशील जीवन का एक ऐसा पक्ष है, जिसने उन्हें जुझारू कवि बनाया, आम आदमी का पक्षधर कवि, मानवीय संघर्ष चेतना का कवि. प्रगतिशील कवि. मेरी समझ में प्रगतिशीलता व प्रगतिवाद में मौलिक अंतर है. प्रगतिवाद मार्क्सवाद के कोख से उत्पन्न एक साहित्यिक उत्पाद, जबकि प्रगतिशीलता हमारे परंपरागत संस्कारों से जन्मा, आमजन से संघर्ष, अनुभवों व अनुभूतियों का साहित्यिक निचोड़. कवि पंकज का संघर्ष व उनकी प्रगतिशीलता उनके पूरे रचना-संसार में व्याप्त है. एक समय भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति की अनुगूंज पूरे हिन्दी काव्य-संसार में व्याप्त थीं, जिसे लक्ष्यकर बाबा नागार्जुन ने लिखा भी था–
कालिदास सच सच बतलाना
इंदुमति के मृत्यु शोक में अज रोया या तुम रोये थे?
स्पष्टत: साहित्य को मात्र आवेष्टन की प्रतिक्रिया नहीं भुक्त यथार्थ से भी जोड़ा गया है. इस दृष्टि से विचार करने पर पंकज की रचनाओं में आवेष्टन व भुक्त यथार्थ का समावेश हुआ लगता है.
फूल व शूल के प्रतीकों से वे आवेष्टन गत यथार्थ को अंकित करते हं, जिससे भिड़ना मनुष्य की नियति है. उनका यह प्रश्न इस टकराहट को व्यक्त करता है –
फूल भी क्यों शूल बनता ?
अमृत के वर विटप तल क्यों
जहर का है कीट पलता?
यह संसार सुखात्मक कम दुखात्मक अधिक है. यहां जीना कितना दुश्वार है? किन्तु जीना एक मजबूरी है. इसकी गतिशीलता के लिये संघर्ष का पतवार आवश्यक है, परिस्थियां चाहे कितनी विपरीत हों —
बरसतीं हों सावन की धार
नाचती बिजली की तलवार
चीखता मेघ, भीत, आकाश,
प्रलय का मिलता आभास l
फिर भी निरन्तर कर्मठता से जीवन को जीने लायक बनाया जा सकता है. निराशायें कभी-कभी कर्म-विमुख व निष्क्रिय करती हैं व लगने लगता है कि —
नियति का अभिशाप हूं मै
पर इस अभिशाप को वरदान बनाने के लिये पलायन नहीं, हौसला चाहिये. मानवीय चेतना में इतना संकल्प होना चाहिये –
मैं महासिंधु का गर्जन हूं
हिल उठे धरा, डोले अंबर,
मैं वह परिवर्तन हूं l
पंकज, अपने कठिन युग में मानवता के पक्षधर कवि रहे है. जहां शोषण है, उत्पीड़न है, वहां कवि जन-पक्षधर बन खड़ा है. वह लघु मानव की ओर से घोषित करता है कि –
देवत्व नहीं ललचा सकता
हमको न भूख अंबर की है l
मिट्टी के लघु पुतले है हम
मिट्टी से मोह निरंतर है l
युग-युगाब्दि से पीड़ित आमजन को धन-वैभव नहीं, पद-प्रतिष्ठा नहीं, मानवीय संवेदना चाहिये. पीड़ा से मुक्ति, अपमान व अवमानना से मुक्ति चाहिये. ऐसे ही मुक्ति के लिये संघर्ष करना होगा, निरंतरता के साथ –
सिद्धि चूमती चरण उसी के
हंस-हंस विध्नों से कि लड़े जो
बंधु लौह सा बन जा जिससे
भिड़कर सौ चट्टानें टूटें l
मरू में भी जीवनमय निर्झर,
जिसके चरण-चिह्न से फूटें l
ठीक इसी तरह —
शूलों पर चलना मुश्किल है
हिम्मतवाला वहां सफल है l
कहकर कवि आमजन में लड़ने की क्षमता भरता है —
रूकता कब हिम्मत का राही
चाहे पथ कितना बेढब है l
या –
मैं झंझा में पलने वाला हूं
मेरा तो इतिहास अजब है l
कहीं न कहीं कवि का अपना अनुभव, पर के अनुभव के साथ घुल-मिलकर एक ऐसे औदात्य संघर्ष की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, जो केवल उसका नहीं, मानव मात्र का एक महत्वपूर्ण औजार है. कवि की आकांक्षा एक ऐसे संसार की रचना करती है जहां –
रहे न कोई आज उपेक्षित
रहे न कोई आज बुभुक्षित
नहीं तिरष्कृत, लांक्षित कोई
आज प्रगति का मुक्त द्वार हो l
कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण.
पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है.
प्रभात खबर (देवघर संस्करण)
जुलाई 2, 2005, शनिवार से साभार

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