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इस कहानी का बूढ़ा नायक दीवाली पर अपना पुराना बक्सा खोलता है और उसमें रखा पुराना सामान देखकर उसे अपने बीते वक्त की याद आ जाती है तब वो यह ग़ज़ल अपनी डायरी में लिखता है-
सोचा था जो बीत गए वो बरस नहीं फिर आएंगे
आज पुराना बक्सा खोला तो देखा सब रक्खे हैं /
फाड़ दिए थे वो सब खत जो मेरे पास पुराने थे
मन का कोना ज़रा टटोला तो देखा सब रक्खे हैं /
यादों के संग बैठ के रोना भूल गया जाने कब से
आंखें शायद बदल गयी हैं आंसू तो सब रक्खे हैं
रातों को जो देर दूर तक साथ चलें वो नहीं कहीं
नींद ही रस्ता भटक गयी है ख्वाब तो सारे रक्खे हैं /
फिर कहने को जी करता है बातें वही पुरानी सब
सुनने वाला कोई नहीं है किस्से तो सब रक्खे हैं /
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(ये रचना मेरे उपन्यास बूढ़ी डायरी में लिखी गई है)
-अशोक जमनानी
6.5.10
अशोक जमनानी की ग़ज़ल
Posted by ''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल
Labels: अशोक जमनानी की ग़ज़ल
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1 comment:
बहुत अच्छा लेखन
ऐसे ही उन लम्हों को संजोके रखना
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