बाबर कोई मसीहा नहीं अत्याचारी, अनाचारी, आक्रमणकारी और इस देश के निवासियों का हत्यारा है
सितम्बर में अयोध्या (अयुध्या, जहां कभी युद्ध न हो) के विवादित परिसर (श्रीराम जन्मभूमि ) के मालिकाना हक के संबंध में न्यायालय का फैसला आना है। जिस पर चारो और बहस छिड़ी है। फैसला हिन्दुओं के हित में आना चाहिए क्योंकि यहां राम का जन्म हुआ था। वर्षों से यहां रामलला का भव्य मंदिर था, जिसे आक्रांता बाबर ने जमींदोज कर दिया था। एक वर्ग चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि निर्णय मुसलमानों के पक्ष में होना चाहिए, क्योंकि वे बेचारे हैं, अल्पसंख्यक हैं। उनकी आस्थाएं हिन्दुओं की आस्थाओं से अधिक महत्व की हैं। मुझे इस वर्ग की सोच पर आश्चर्य होता है। कैसे एक विदेशी क्रूर आक्रमणकारी का मकबरा बने इसके लिए सिर पीट रहे हैं। एक बड़ा सवाल है - क्या अत्याचारियों की पूजा भी होनी चाहिए? क्या उनके स्मारकों के लिए अच्छे लोगों के स्मारक को तोड़ देना चाहिए? (कथित बाबरी मस्जिद रामलला के मंदिर को तोड़कर बनाई गई है।), क्या लोगों की हत्या करने वाला भी किसी विशेष वर्ग का आदर्श हो सकता है? (बुरे लोगों का आदर्श बुरा हो सकता है, लेकिन अच्छे लोगों का नहीं। रावण प्रकांड पंडित था, लेकिन बहुसंख्यक हिन्दु समाज का आदर्श नहीं। कंस बहुत शक्तिशाली था, लेकिन कभी हिंदुओं का सिरोधार्य नहीं रहा। हिन्दुओं ने कभी अत्याचारियों के मंदिर या प्रतीकों के निर्माण की मांग नहीं की है। फिर एक अत्याचारी और विदेशी का मकबरा इस देश में क्यों बनना चाहिए? क्यों एक वर्ग विशेष इसके लिए सिर पटक-पटक कर रो रहा है।) इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव
काबुल-गांधार देश, वर्तमान अफगानिस्तान की राजधानी है। १० वीं शताब्दी के अंत तक गांधार और पश्चिमी पंजाब पर लाहौर के हिन्दूशाही राजवंश का राज था। सन् ९९० ईसवी के लगभग काबुल पर मुस्लिम तुर्कों का अधिकार हो गया। काबुल को अपना आधार बनाकर महमूद गजनवी ने बार-बार भारत पर आक्रमण किए। १६ वीं शताब्दी के शुरू में मध्य एशिया के छोटे से राज्य फरगना के मुगल (मंगोल) शासक बाबर ने काबुल पर अधिकार जमा लिया। वहां से वह हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा और १५२६ में पानीपत की पहली लड़ाई विजयी होकर दिल्ली का मालिक बन गया। परन्तु उसका दिल दिल्ली में नहीं लगा। वही १५३० में मर गया। उसका शव काबुल में दफनाया गया। इसलिए उसका मकबरा वहीं है। बलराज मधोक ने अपनी पुस्तक 'जिन्दगी का सफर-२, स्वतंत्र भारत की राजनीति का संक्रमण काल' में उल्लेख किया है कि वह अगस्त १९६४ में काबुल यात्रा पर गए। वहां उन्होंने ऐतिहासिक महत्व के स्थान देखे। संग्रहालयों में शिव-पार्वती, राम, बुद्ध आदि हिन्दू देवी-देवताओं और महापुरुषों की पुरानी पत्थर की मूर्तियां देखीं। इसके अलावा उन्होंने काबुल स्थित बाबर का मकबरा देखा। मकबरा ऊंची दीवार से घिरे एक बड़े आहते में स्थित था। परन्तु दीवार और मकबरा की हालत खस्ता थी। इसके ईदगिर्द न सुन्दर मैदान था और न फूलों की क्यारियां। यह देख बलराज मधोक ने मकबरा की देखभाल करने वाले एक अफगान कर्मचारी से पूछा कि इसके रखरखाव पर विशेष ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? उसका उत्तर सुनकर बलराज मधोक अवाक् रह गए और शायद आप भी सोचने पर मजबूर हो जाएं। उसने मधोक को अंग्रेजी में जवाब दिया था - “Damned foreigner why should we maintain his mausaleum.” अर्थात् कुत्सित विदेशी विदेशी के मकबरे का रखरखाव हम क्यों करें?
काबुल में वह वास्तव में विदेशी ही था। उसने फरगना से आकर काबुल पर अधिकार कर लिया था। परन्तु कैसी विडम्बना है कि जिसे काबुल वाले विदेशी मानते हैं उसे हिन्दुस्तानी के सत्ताधारी और कुछ पथभ्रष्ट बुद्धिजीवी हीरो मानत हैं और उसके द्वारा श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर तोड़कर बनाई गई कथित बाबरी मस्जिद को बनाए रखने में अपना बड़प्पन मानते हैं। इसका मूल कारण उनमें इतिहास-बोध और राष्ट्रभावना का अभाव होना है।
लगातार बाबर के वंशजों के निशाने पर रही जन्मभूमि : पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गुट लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद ने पिछले कुछ वर्षों में करीब आठ बार रामलला के अस्थाई मंदिर पर हमले की योजना बनाई, जिन्हें नाकाम कर दिया गया। ५ जुलाई २००५ को तो छह आतंकवादी मंदिर के गर्भगृह तक पहुंच गए थे। जिन्हें सुरक्षा बलों ने मार गिराया।
1 comment:
आक्रांता की कोई समाधी नही होती ।
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