अखिलेश उपाध्याय
केंद्र सरकार ने म न रे गा योजना शुरू करके गरीब, पिछड़े लोगो को रोजगार देकर इनकी परिस्थिति सुधारने का प्रयास किया है. ग्रामीण अंचलो से जो मजदूर पलायन कर रहे थे उनके लिए ही यह योजना गाँव में रहकर काम कने के लिए थी.
क्या वास्तव में जिनके लिए यह योजना है वे लाभ ले पा रहे है.....? जो मजदूर वास्तव में इस योजना में हाड तोड़ मेहनत करते है, अपना पसीना बहाते है उनको वेतन भुगतान के समय मूल्यांकन के नाम पर कम भुगतान किया जाता है और जबकि गाँव के उन प्रभावशाली, दबंग लोगो का नाम मस्टर में पहले भरा जाता है जो कभी काम करते ही नहीं.
पन्ना क्षेत्र में अभी भी सामंतवाद की जड़े मौजूद है इसी के चलते सरपंच और सचिव भी इनसे डरते है और इनके इशारो पर यदि न चले तो फिर इनकी खैर नहीं. पन्ना रियासत के नाम से अभी भी मशहूर यह अति पिछड़ा इलाका शासकीय योजनाओ के लाभों से अभी कोसो दूर है. इन योजनाओ का लाभ दबंग और शासकीय कर्मचारी जमकर उठा रहे है.
सरपंच और सचिव इन दबंगों की जी हजूरी करते है और इनके पूरे परिवार का नाम मस्टर में चढ़ाकर इनको मजदूरी दिलाई जाती है. यही वजह है जब मजदूरी का भुगतान होता है तो इंजिनीअर द्वारा किया गया मूल्यांकन वास्तविक मजदूरों को हिसाब करने पर कम पैसा उनके हिस्से में आता है और ये गरीब मजदूर अपनी मेहनत का पूरा पैसा नहीं ले पाते. चूकी इस योजना में जितना काम होता है उतना ही मूल्यांकन के आधार पर पैसा मिलता है
दबंगों के द्वारा इन मजदूरों के हक़ पर जबरदस्ती डाका डाला जा रहा है. मजदूरों की अपने किये गए काम का अधूरा पैसा मिलने पर इनका उत्साह टूट जाता है और इस सौ दिन की रोजगार गारंटी योजना से परेशान होकर मजदूर हाय तौबा करके अपने हाथ खड़े कर लेते है. मजबूर होकर अपना गाँव छोड़ अन्य बड़े शहरो की ओर पलायन करते है. वहा फुटपाथ पर रहकर मजदूरी को विवश हो जाते है और इनके छोटे-छोटे मासूम बच्चे भी शिक्षा से वंचित हो जाते है.
हालाकि इनके बच्चो का नाम अगर देखा जाए तो सम्बंधित ग्राम के स्कूल में दर्ज रहता है चाहे वह जहा भी रहे क्योकि शिक्षको को तो अपने रिकार्ड में छात्र संख्या की पूर्ती करने मात्र से मतलब होता है. . फिर मध्यान्ह भोजन में फर्जी आकडे देकर इन बच्चो के हक़ का भोजन कागजो में दर्शाकर स्व सहायता समूह और अधिकारी कागजी घोड़े दौड़ाकर पैसा हड़प रहे है.
कागजो में महात्मा गाँधी रोजगार योजना कितनी भी सफल बताई जाये लेकिन ग्रामीण अंचलो के मजदूरों की कहानी तो कुछ और ही बताती है. इनके स्तर में कोई सुधार नहीं हो पाया है. इस योजना का अगर लाभ हो रहा है तो वे है सरपंच, सचिव, गाँव के दबंग, जनपद और जिले के बाबू और अधिकारी जो इस योजना से परोक्ष और अपरोक्ष रूप से जुड़े हुए है. पन्ना जिले में देखा जाए तो दबंगों का तो एक तरह से हफ्ता ही बंधा हुआ है.
शायद इस सामंतवाद से यहाँ के लोगो को मुक्ति में अभी कई वर्ष लगेगे.
26.8.10
शायद सामंतवाद से यहाँ के लोगो को मुक्ति में अभी कई वर्ष लगेगे.
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