अपनों के बीच
बेगाने की तरह
रहता हूँ,
कोई क्यों जाने
क्या क्या
सहता हूँ,
वो पतझड़
समझते हैं
जो
बसंत कहता हूँ।
24.8.10
बसंत को पतझड़
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर
Labels: बसंत
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अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हल्का हो जाएगा...
अपनों के बीच
बेगाने की तरह
रहता हूँ,
कोई क्यों जाने
क्या क्या
सहता हूँ,
वो पतझड़
समझते हैं
जो
बसंत कहता हूँ।
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर
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