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14.9.10

हैरत है देखकर .....

हैरत है देखकर , कितना भीरु समाज है ।
धर्म के नाम पर , लड़ रहा वो आज है ।
तुम भले कहो इसे , ये नयी बात नहीं ।
धर्म है अगर कई , संघर्ष नयी बात नहीं ।
आस्थाएं है अलग , हैं अलग सबके जुडाव ।
हम सही है वो गलत , बस यहीं होता टकराव ।

हर किसी को प्यारी है, विचारधारा अपने मन की।
भावनाएं सबकी प्रबल, जो गुलाम है उनके मन की।
हस्तक्षेप किसी गैर का , कब सहा मन ने कभी ।
अपमान सह ले तन भले, मन नहीं सह पाता कभी।
जब विरोधी कर रहे, बिध्वंस हो निज धर्म का ।
कैसे देंखे मौन हो , अपमान कोई धर्म का ।
हैरत है देखकर , सोंच जनमानस की ये ।
धर्म के नाम पर , बरगलाया जाता है ये ।
जानवर के रूप में , इनके पुरखे थे कभी ।
मस्तिष्क का विकास कर , मनुष्य थे बने कभी ।
तन भले अलग हुआ , मन नहीं विकसित अभी ।
एक ही श्रस्टा यहाँ , पर लड़ रहे हम सभी ।


भूल कर उस धर्म को, जो मूल था सबका कभी।
अपने अहम् की तुष्टि को, कर रहे पूरा सभी।
हाँके जाते आज भी , भेड़ सा हम सभी ।
भूल कर सदभाव को , मूर्ख हैं बनते सभी ।
ढो रहे है आज भी , कूड़े कचड़े को सभी ।
रुक गया है आज क्या, मस्तिष्क का विकास भी।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

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