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18.7.11

हक़ीकत

ये उसकी बेरूख़ी में दीवानापन है मेरा
या कि सावन में अंधी हैं मेरी आँखें,
चाहे कोई भी तस्वीर हो रखी सामने
मुझे बस उसी का अक्स दिखता है.


पहली नज़र का प्रेम हो गयी बीती बात
किस्सा है अब ये तो समझ बुद्धि का,
ठोकर लगी जब तो अकल आयी हमें
प्यार सौदा है और दिल बिकता है.


व्यापार की चालें ना सीख पाए हम
तो इसमें दोष क्या है भला औरों का,
ख़लल ना पड़ जाए जमाने के जश्न में
ये सोच मेरा दिल बेआवाज़ चीखता है


चाहत नहीं थी हमारी उन्हें ऐसा ना था
पर और भी चाहतें अहम थी कई सारी,
उनकी सोच को भी ग़लत कैसे कह दूं
नाव कागज का बारिश में कहाँ टिकता है.


कभी सोचता हूँ कि ये सुबह अंधेरी क्यूँ है
कभी देखता हूँ कि ये शाम सुनेहरी क्यूँ है,
अब यही कह के बहलाता हूँ पागल मन को
किस्मत सब का खुदा पहले से लिखता है.

2 comments:

रविकर said...

नाव कागज का बारिश में कहाँ टिकता है ||


बहुत खूब ||

बधाई ||

Shalini kaushik said...

बहुत सुन्दर व् शानदार प्रस्तुति.बधाई.