बहाने और जाने क्या मिलें , ऐ देश रोने के ,
साधुओं को भी अब आते हैं सपने रोज़ सोने के।
अरे सीता ने शौहर को पिठाया कनक मृग पीछे ,
तो लंका में गयी सोना जहाँ घर घर बिछौने के।
खजाने , हैं बहुत-से लोग लोलुप ताक में तेरी ,
नहीं आना नज़र तुम भूलकर भी बिन दिठोने के।
कभी सोना उगलती खेत में थी देश की धरती ,
दौर अब इस तरह के तमाशे मंदिर में होने के।
साधुओं को भी अब आते हैं सपने रोज़ सोने के।
अरे सीता ने शौहर को पिठाया कनक मृग पीछे ,
तो लंका में गयी सोना जहाँ घर घर बिछौने के।
खजाने , हैं बहुत-से लोग लोलुप ताक में तेरी ,
नहीं आना नज़र तुम भूलकर भी बिन दिठोने के।
कभी सोना उगलती खेत में थी देश की धरती ,
दौर अब इस तरह के तमाशे मंदिर में होने के।
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