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19.8.19

आखिर आजादी के सही मायने क्या हैं.....

वर्तमान में आजादी के मायने बदल गए हैं. अब कोई भी हमारी राजनैतिक शक्तियां जल, अनाज, आवास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों पर बात नहीं करती हैं. यह बड़ी विडम्बना है कि आजादी के मायने को बदल कर राजनैतिक पार्टियां खुद देश की जनता को बहका रही हैं और राष्ट्र, धर्म, संप्रदाय, मंदिर- मस्जिद, जात- पात के नाम पर आपस में लड़ा कर स्वयं राजनीतिक रोटियां सेक रही हैं.  वास्तव में क्या यही आजादी के मायने है कि स्वातंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस पर झण्डा लहराना, परेड देखना, लाउडस्पीकर लगाकर देशभक्ति गानों पर थिरकना, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होना और देश के जयकारे लगाना ही महज आजादी है.

अब वह दौर नहीं रहा कि कोई देश किसी देश के ऊपर अपना अधिपत्य स्थापित कर सके. वक्त बदला है, हम अंग्रेजी हुकुमत से आजाद तो हो गए है लेकिन राजनैतिक दलों के अधीन आज भी हैं. अब मुद्दा यह नहीं रहा कि देश क्या चाहता है, देश की जनता क्या चाहती है. बस बहुमत हासिल करना ही प्रमुख मुद्दा रह गया है. बाकी मुद्दे इनके सामने नगण्य हो गए हैं. आजादी और नागरिकता के मायने बदल गए है. पहले अंग्रेजी हुकुमत फूट डालो राज करो का तरीका अपनाया था, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में राजनैतिक दल भी यही हत्कंडा अपना रहे हैं- समाज, जनता बांटो राज करो.

चिंता का विषय तो यह है कि जो भारतीय शक्तियां आजादी के पूर्व निष्क्रिय थी,  अब वह वर्तमान वातावरण में निष्क्रिय होती हुई नजर आ रही हैं. क्य़ा यही स्वतंत्र लोकतंत्र और स्वतंत्र भारत का परिचायक है?

देश में दिनोंदिन बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण जैसी समस्याओं में इजाफा हो रहा है. गरीब और गरीब, अमीर और अमीर होते जा रहा है. क्या आजादी के यही उदाहरण है? आखिरकार इस गुलामी से देश की जनता को आजादी कब मिलेगी. यह प्रश्नवाचक चिन्ह सरकार पर आज से नहीं बल्कि पिछले कई सालों से लगते चले आएं हैं, लेकिन क्या कभी इस पर किसी राजनैतिक दल ने बात करने की कोशिश की... नहीं, सिर्फ जुमलेबाजी.

जनता की भौतिक और मूलभूत आवश्यकताओं को राष्ट्रवाद नाम के बुलडोजर से दबाया जा रहा है. राष्ट्रवाद के आगे बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, गरीबी एवं भुखमरी जैसी अनेक समस्याओं पर बात करना, सरकार एवं राष्ट्र का विरोध और आलोचना करना हो गया है. इतना ही नहीं सरकार व सरकार की नीतियों का विरोध करना, राष्ट्रद्रोह करना हो गया है.

आजादी के बाद लोगों के मन में खुशी थी कि भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आर्थिक एवं सामाजिक जैसी विषमतांए दफन हो जाएगी और इस परतंत्रता की बेड़ियों से स्वतंत्रता मिलेगी. लेकिन यह भम्र था, कथित आजादी का झूठा भ्रम.  हालाकि यह आजादी के बाद तय था कि देश के निर्बल वर्ग को राजनीतिक समानता को मिल पायेगी पर आर्थिक और सामाजिक समानता उसके लिए सपना सरीखा है और इस अनेक विषमताओं को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने नवम्बर 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम वक्तव्य में ही स्पष्ट कर दिया था. उन्होंने ने कहा था कि ''भारतीय संविधान पूंजीवादी हितों की रक्षा करने वाला दस्तावेज है, जिसमें गरीबों के हित का कुछ भी नहीं है। मेरा वश चले तो मैं इसे जला डालूं''.

आजादी के इस संदर्भ में एक और वाक्या याद आता है, जब 16 अगस्त 1947 को देश के सारे राजे- महराजे और राजनेता आजादी के जश्न में सराबोर था, उस वक्त अन्ना भाऊ साठे ने इस आजादी के मायने को भांप लिया था, कि यह आजादी उन गरीब जनता की नहीं है जो अपने कई मूलभूत समस्याओं से निजात पाने की आशा लगाए बैठे हैं. उसी समय साठे जी ने बारिश में भीगते हुये बॉम्बे में 60 हजार लोगों की रैली निकाली और कहा कि "ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है". इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आजादी के बाद देश की जनता आजाद हुई हो या न हुई हो, लेकिन इतना तो जरूर हुआ कि देश कंगाल और नेता मालामाल हुए हैं.

राजकुमार पाण्डेय
pandey96.rajk@gmail.com


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