-भास्कर गुहा नियोगी
कोलकाता : सुर और स्वाद में मिठास की जमीन है बंगाल। चाहे वो गुरूदेव के गीत और कविताएं हो, हवा सी मुक्त बाउल गीत हो या फिर संथाली गीत-संगीत सारे के सारे जीवन में मिठास घोलते है। इनके छंद-बंद में चाहे जितनी विभिन्नताएं हो पर इनके मूल में मानव प्रेम और मुक्ति की कामना है मुक्ति घृणा, नफरत और वैमनस्य से। सती प्रथा के नाम पर आग में जबरन झोंक दिए गए बाल विधवाओं की चीखों के खिलाफ राजा राममोहन राय खड़े ही नहीं हुए तत्कालीन पाखंडी समाज के तीव्र विरोध के बावजूद कानून लाकर उसे बंद करवाया। विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा को लेकर विद्यासागर की लड़ाई को कोई कैसे नजर अंदाज कर सकता है जिसने स्त्री मुक्ति के लिए रुढ़ियों के बंद दरवाजों को ढहा दिया या फिर भक्ति आंदोलन के अग्रणी दूत चैतन्य महाप्रभु को जिन्होंने सामंती समाज के साये में पल रहे जातिप्रथा को नकार हर एक को गले लगाकर प्रेम करने की तहरीक चलायी कुल मिलाकर बंगाल की सरजमीं की मिजाज को अगर हम पढ़ने और समझने की कोशिश करें तो जो बात समझ में आती है वो ये कि कड़वाहट पर यहां की मिठास हमेशा भारी पड़ी है।
इन दिनों होने वाले विधान सभा चुनावों को लेकर एक नये बंगाल को मीडिया अपने छोटे पर्दे पर दिखा रहा है और कहे तो जमिनी हकीकत से दूर हाथ में रिमोट थामे कमरों में बैठे समाचार चैनलों में देश को तलाशते हुए लोगो को बता रहा है बंगाल की जमीन खून से लाल हो गई है। यहां के मूल में हिंसा है। ऐन-केन प्रकारेन किसी तरह सत्ता पर दाखिल होने के लिए एक पार्टी यहां की गौरवशाली परंपरा को वापस लाने का दावा कर रही है इस तरह की राजनीति शायद भूल जाती है राजनीति संस्कृति को तैयार नहीं करती और आज की राजनीति में कोई संस्कृति या संभावना बची है क्या? एक राजनिति की संस्कृति इसी सरजमीं से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दिया था जिनकी हाल ही में 125 वीं जयंती मनाई गई। उसके मूल में मनुष्य की मुक्ति और सबको साथ लेकर राष्ट्र बनाने का सपना था आजाद हिंद फौज उसी सपने की चरम अभिव्यक्ति थी उस फौज में शामिल लोगो के जीवन वृत्तांत उनकी कार्यशैली और उनके जीवटता को क्या वो दल अपनी राजनीतिक संस्कृति बनाने को तैयार है?
पिछले दो हफ्ते से बंगाल को नजदीक से देखने और समझने की कोशिश कर रहा हूं जंगल महल से लेकर वीरभूम और कोलकाता में लोगो से मिल कर उनसे बात कर बंगाल को समझने की कोशिश कर रहा हूं वीरभूम में सनत दास बाउल मिले गाते हुए पूछा क्या हाल है? जवाब मिला सब ठीक! फिर पूछा कि पेट के लिए गाते है कहा नहीं प्रेम गाता हूं पेट भरने का जरिया बन जाता है। चलते-चलते पूछ लिया बाउल मतलब कहा जिसका कोई मूल न हो जो निर्मूल हो यानी न कुछ पाने की इच्छा न कुछ खोने का डर कबीर की भाषा में कहूं मनवा बेपरवाह । सब मेरे मैं सबमें बोलपुर शांति निकेतन में मिले सनत दास बाउल की बात उन लोगों को पहेली सी लगेगी तो न्यूज चैनलों में खूनी बंगाल देख रहै है। सरल-सहज जीवन को दूरह बनाने का नाम राजनीति हो चली है जबकि सरल-सहज जीवन बनाने का संदेश सनत दास बाउल के गीत और उनके इकतारा से निकली धुन दे रही हैं सोचते और चलते हुए वर्धमान में सड़क किनारे एक मिठाई की दुकान पर ठहरता हूं ठंड के मौसम में खजूर के गुड़ के बने रसगुल्ले जुबान को नहीं दिल से दिमाग तक मिठास भर देते हैं सोचता हूं बंगाल के ग्रांउड जीरो पर क्या है खुद से खुद को जवाब मिलता है स्वाद और मिठास। आज ये मेरा सच है कल इस सच को आप भी मानेंगे जब बंगाल के मिठास के आगे हारेगी कड़वाहट की राजनीति।
-भास्कर गुहा नियोगी की रिपोर्ट.
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