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6.8.09

शब्द तो शब्द हैं ,
तुम्हें शब्दों में पिरोती हूँ कि तुम मेरी कृति बन जाओ ,
भावों के धरातल पर नवीन पुष्प संजोती हूँ
कि तुम नित खिलो मेरे नयनो में समाओ ।
चंचल भावों का सुरम्य गृह मेरा मन ,
तुम्हारी सांसों के स्पंदन से डोले,
बस छू लो मुझे आँखों से यूँ
कि तुम्हारा स्पर्श मेरी आत्मा को छू ले
मन तुम्हे शब्दों में खोजता है कि शब्द तो बस मेरे हैं
मेरे होठों को छू कर तुम्हारे दिल में बसेंगे
जो तार मेरे ह्रदय के तुम्हारे ह्रदय से जुड़ते हैं
उस बंधन कि अनुभूति को अभिभूत करेंगे
प्रेम कि यह धारा ह्रदय में ऐसे बहे
कि तुम्हारी पीडा तुम्हारी न रहे
उदगार मेरे प्रेम का कुछ ऐसे हो
कि तुम्हारी आँखों का नीर मेरी आँखों से बहे
नित नवीन शब्दों में तब तक तुम्हे खोजती रहूंगी
जब तक ये शब्द संगम कर सुन्दरतम कि सीमा तक पहुंचें
शब्दों का संगम हो ,बने ऐसा निर्झर
जिसकी बूँदें विनय हो और धारा शीतल

शीतल तिवारी
गुडगाँव

1 comment:

vijay kumar sappatti said...

ONE OF THE VERY RARE POEMS I READ ...

REGARDS