लेखक-पत्रकारों को इससे पहले किसी सरकार ने दिया था इतना सम्मान?
लोक-संस्कृति का मजाक उड़ा रहे है-लोक-संस्कृतिकर्मी
22 अगस्त 2010 को उत्तराखंड के प्रसिद्ध रंगकर्मी और जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ हमारे बीच नहीं रहे। लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। निश्चित तौर पर उत्तराखंड लोक-संस्कृति के लिए यह बहुत बड़ी छती है। जिससे जल्द भर पाना शायद बहुत मुश्किल होगा। गिर्दा से मेरी कई बार मुलाकात हुई थी। लेकिन इस बार जब मैं उनसे मिलने उनके नैनीताल स्थित उनके निवास कैलाखान में मिला था तो,वह काफी थके हुए थे। जब मैने इसकी वजय पूछि तो बोले,बूढा हो गया हूं ना...और जोर से ठाहका लगाते हुए। मुझसे कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। इसके बाद गिर्दा से मेरी काफी लंबी बातचीत हुई। कई ऐसी बातें भी सामने आई,जो शायद गिर्दा को परेशान कर रही थी। हां...उन्हें खुशी थी,उत्तराखंड लोक-साहित्य और लोक-संस्कृति के क्षेत्र में कुछ लोग व्यक्तिगत और सरकारी तौर पर बहुत अच्छा काम कर रहे है। गिर्दा हमेशा पुरस्कार और सरकारी अनुदान से दूर रहे। उन्होंने कभी भी खुद को इनके मायने में नहीं आने दिया।
लेकिन गिर्दा के निधन के बाद कुछ लोगों ने जिस तरह से उनके नाम पर सियासत करना शुरू कर दिया है। यह बहुत शर्म की बात है। इसके लिए हमें,हम सब को शर्म आनी चाहिए। क्योंकि हम एक ऐसे व्यक्ति विशेष के नाम पर भाषण-बाजी कर रहे है। जो अब इस दुनिया में नहीं। जिसने अपने जीवन को कभी भी राजनीति और भाषणबाजी को औदा नहीं ओढने दिया। वह ताउम्र लोक-संस्कृति को खुद को में विस्थापित करता रहा। लेकिन आज कुछ मठाधिश उनके नाम पर जिस तरह से पुरस्कार और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को निशान बना रहे है। यह कहां तक उचित है,यह ये मठाधिश अच्छी तरह जानते है।
यह कौन नहीं जानता हैं कि उत्तराखंड बनने के बाद अभी तक वर्तमान सरकार के अलावा किसी और सरकार ने लोक-साहित्य और लोक-संस्कृति के लिए कितने काम किए,या लेखक-पत्रकारों के बारे में किसने सोचा है। निश्चित तौर पर डॉ.निशंक को अभी सत्ता में आए कुछ ही दिन हुए हो,लेकिन यह उनकी सोच का परिणाम हैं कि,उत्तराखंड के साहित्यकारों-पत्रकारों के लेखन को पहली बार प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। वरिष्ठ लेखको-पत्रकारों को पेंशन देने,प्रदेश में भाषा संस्थान,हिन्दी अकादमी तथा संस्कृति-कला परिषद का गठन उन्हीं के प्रयास का प्रतिफल हैं। प्रदेश के साहित्यकारों,कवियों,कलाकारों को विविध स्तर पर सुविधाओं का प्राविधान,साथ ही उनकी कृतियों का प्रकाशन,दुर्लभ पांडुलिपियों,छाया चित्रों का संरक्षण,लोक-कलाकारों के मानदेय एवं दैनिक भत्तों की दरों को पहले से दुगना किया गया है। ऋषिकेश में हिमालयन म्यूजियम स्थापित किया जाना प्रस्तावित है। रेंजर्स कॉलेज परिसर देहरादून में ललित कला अकादमी की स्थापना के लिए किए गए प्रयास महत्वपूर्ण हैं। इसी दिशा में डॉ.निशंक ने एक कदम और बढ़ाते हुए उत्तराखंड में साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले लेखकों के लिए नकद पुरस्कार की घोषणा कर करी है। साहित्य सृजन के लिए मिलने वाले इन पुरस्कारों को स्वर्ण,रजत और कांस्य तीन वर्ग में बांटा गया हैं,जिसमें तीन,दो और एक लाख का नकद पुरस्कार दिया जाएगा।
इसके बावजूद उत्तराखंड में इन दिनों कुछ साहित्य-संस्कृतिकर्मी डॉ.निशंक के नाम पर लोक-संस्कृति का मजाक उड़ा रहे है। इनका कहना हैं कि सरकार उनकी मदद नहीं कर रही है। उन्हें सहयोग नहीं कर रही है। क्या यहां यह देखना उचित नहीं होगा की कई वर्षों तक राज्य में राज करने वाली कांग्रेस सरकार ने क्या कभी राज्य के लेखक-पत्रकारों के बारे में कुछ सोचा था? क्या इस सरकार से पहले कभी किसी सरकार ने इतने बड़े स्तर पर लेखक-पत्रकारों के लिए काम किया था? कौन नहीं जानता कि कांग्रेस के राज में लोक-साहित्य-लोक-संस्कृति के नाम पर जो करोड़ो रूपाया बांटा गया था। उसका आज तक किसी ने हिसाब नहीं दिया है। कौन नहीं जानता कि कुछ लोक-संस्कृति के ठेकेदारों ने जिस तरह से कांग्रेस के राज में अपनी झोलिया भरी और लोक-संस्कृति का बंटाधार किया। और आज यही लोक-संस्कृति के ठेकेदार डॉ.निशंक से भी इसी तरह की आशा लगाए बैठे हैं,लेकिन डॉ.निशंक के दरबार में जब इनका यह पैंतरा नहीं चला तो,लोक-संस्कृति के नाम पर इन्होंने डॉ.निशंक के ऊपर ही किचड़ उछालना शुरू कर दिया। शर्म आनी चाहिए इन लोगों को,जो पूरे दिन पहले तो उत्तराखंड सचिवालय में खुद के लिए और खुद के रिश्ते-दारों के लिए सहयोग लेने के लिए बैठे रहते है। मैं खुद कई बार ऐसे लोक-संस्कृतिकर्मियों को मुख्यमंत्री के दरबार में हाजरी लगाते देखा है। कभी लोक-साहित्य के नाम पर कभी लोक-संस्कृति के नाम पर यह आज भी लूट मचाना चाहते है। लेकिन जब इनकी दाल नहीं गली तो,मुख्यमंत्री पर किचड़ उछाल रहे है। राज्य के मुख्यमंत्री डॉ.निशंक ने कई बार इन लोगों और इनके रिश्तेदारों को भरसक मदद करने की कोशिश की है। ताकि लोक का विकास हो सकें,हमारी संस्कृति को जीवित रखने वाले लोगो आगे बढ़ सकें। लेकिन इसके बावजूद कुछ लोक-सेवी जिस थाली में खा रहे है। उसी में छेद भी कर रहे हैं,साथ ही जो व्यक्ति ईमानदारी के साथ लोक-सेवा के लिए आगे बढ़ना चाहता है। लेखक-पत्रकारों की मदद करना चाहता है,उसके ऊपर आरोप पर आरोप लगाए जा रहे है। इसके बावजूद उम्मीद कर रहे हैं कि लोक साहित्य के हित में जल्दी काम हो लोक-कलाकारों को आर्थिक सहायता मिले। यहां सवाल यह उठता हैं कि जब इस तरह के लोग मुख्यमंत्री के ऊपर आरोप लगाते रहेगें...तो ऐसे में वह काम कैसे करें। आप खुद ही तो उनकी राहों में कांटे बो रहे है,और उम्मीद कर रहे है...वह हमें फूल दें..।
निश्चित तौर भाषा-परिषद और लोक-संस्कृति के तमाम मुददों पर सरकार को अभी थोडा़ समय लगा रहा है। लेकिन ऐसा नहीं कि यह सब कागजी घोषणाएं है। डॉ.निशंक समय-समय इस बारे में बातते आ रहे हैं कि 'हम बहुत जल्द इस दिशा में आगे बढ़ रहे है। और आने वाले समय में हमारे लोक-कलाकारों और साहित्यकार-पत्रकारों सीधा इसका फायदा पहूंचेगा। बस मैं चाहता हूं कि आप लोग मुझे पर विश्वास करें। मेरे साथ खड़े रहे,तो हम निश्चित तौर पर अपने लोक परिवेश को विश्व के श्रेष्ठ मंच तक लेकर जाएगें। जहां हमारी पहचान सबसे अलग होगी'। लेकिन इसके बावजूद हमारे कुछ लोककर्मी निरंतर डॉ.निशंक पर निशाना साध रहे हैं,कभी पुरस्कारों के नाम पर तो कभी लोक-संस्कृति के नाम पर। और इस सब में सबसे आर्चय की बात तो यह हैं कि इसमें वह लोग भी शामिल है। जो आज खुद मुख्यमंत्री की आर्दश सोच के कारण ही,कई वर्षों से ऐसे पदों पर आसीन है। जिसकी गरीमा की सीमा भी अब पार हो चुकी है। उन्हें तो एक साहित्यकार मुख्यमंत्री देखना ही पंसद नहीं है। इसकी वजह शायद यह भी हो कि अब ऐसे लोगों जिनको डॉ.निशंक ने अपनी आर्दश सोच और अपने से बड़ा होने का सम्मान दिया था। इनकी पापों की सीमा अब पूरी हो चुकी है,ये लोग जो उत्तराखंड की कई संस्थाओं और सम्मानित पदों को खुद की थाती समझने लगे थे। इन्हें आभास हो चुका हैं कि अब इनकी बेमानी ज्याद दिनों तक नहीं चलने वाली है। इसी घबराहट में अब ये लोगों खुद को पाक-साफ रखने के लिए मुख्यमंत्री पर किचड़ उछाल रहे है। लेकिन इन्हें यह नहीं बुलना चाहिए कि ईमानदारी के हाथ बहुत लंबे होते है। वह एक ना एक दिन झूठ के गिरेबान तक अवश्य पहूंच जाते है। इन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज उत्तराखंड का मुख्यमंत्री एक साहित्यकार है। यदि उसके ऊपर किसी ने झूठ आरोप लगाए तो,मुझे नहीं लगता इन आरोप लगाने वाले और मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली पर किचड़ उछाने वाला का भविष्य कभी कोई और संवारने के लिए आगे आएगा।
मेरा तो यही कहना हैं कि डॉ.निशंक को लोक-साहित्य और लोक-संस्कृति के लिए काम करने के लिए मौका दें। यदि हम उनके साथ नहीं खड़े हो सकते तो,कम से कम उन्हें गिराने की कोशिश तो ना करें। उन्हें काम करने दें,आरोप-प्रत्यारोप की सीमाओं में उन्हें ना उलझाएं। कहीं ऐसा ना हो की कलम चलने से पहले ही टूट जाएं और इसके लिए दोषी कोई और नहीं बल्कि हम सब ही हो।
जगमोहन 'आज़ाद'
29.8.10
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1 comment:
aap shuru to hue girda se lekin bhatak kar sarkar ke stutui gan me vyst ho gaye. kya yah durbhagy janak nahin hai ki aapne girda ko bhi rajneeti me ghasit liya
samjh nahin aata ki ninda kiski karun aapki ya jinki aap karne ke liye kah rahe hain...ummeed rhegi ki aage se srjan karenge
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