बात की शुरुआत रहीम जी के दोहे से करते हैं। वे कहते हैं, अब रहीम मुश्किल परी, कैसे काढ़े काम, सांचे से तो जग नहीं,झूठ मिले ना राम। कई घंटों से मन दुविधा में है। सात दिन पहले शराब,पोस्त के ठेकेदार,बिल्डर, कोलोनाइजेर, सत्ता के गलियारों में ख़ास पहुँच रखने वाले अशोक चांडक ने लगभग तीन दशक पुराने मामले में कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण किया। कोर्ट ने उसको केन्द्रीय कारागृह भेज दिया। दुविधा चांडक के जेल जाने की नहीं है। दुविधा ये कि यह खबर कल शाम से पहले मिडिया से गायब रही। चांडक की खबर तब थोड़ी सी छापनी पड़ी जब इसी मामले में सीनियर वकील पीडी लूथरा ने कल कोर्ट के सामने सरेंडर किया। श्रीगंगानगर के मिडिया की गिनती ताकतवर मिडिया में होती है। ये तो मानने को दिल नहीं कहता कि ये खबर मिडिया को पता नहीं लगी होगी। ये समझ से परे है कि आखिर ऐसी कौनसी बात थी जो मिडिया ने एक लाइन भी नहीं दी कि अशोक चांडक ने सरेंडर कर दिया। बस दुविधा यही है। अख़बार में क्या प्रकाशित होगा,टीवी में कौनसी खबर दिखाई जाएगी, इसमें आम आदमी की कोई भागीदारी नहीं होती। संपादक,मालिक की मर्जी है, वह जो चाहे छापे, दिखाए , नहीं इच्छा तो ना प्रकाशित करे न दिखाए। कोई कुछ नहीं कर सकता सिवाए यह सोचने के कि ये खबर छपी क्यों नहीं? जब छोटी छोटी ख़बरें कवर करने के लिए बड़ी संख्या में प्रेस फोटोग्राफर, कैमरा मैन पल भर में मौके पर पहुँच जाते हैं तो ऐसा क्या हुआ कि एक भी रिपोर्टर कोर्ट, कचहरी या जेल के आस पास नहीं पहुँच सका। मिडिया का प्रबंधन कैसा है ये वो जाने जिनका वो घराना है। हाँ ये सच है कि अशोक चांडक का मैनेजमेंट जबरदस्त है कि उसने अपने सरेंडर की खबर को हवा तक लगने नहीं दी।
१३ अगस्त १९८२ को श्रीगंगानगर के सैसन जज रणवीर सहाय वर्मा ने अशोक चांडक,पीडी लूथरा,जसजीत सिंह और सुनील भाटिया को कातिलाना हमले का मुजरिम करार देकर चारों को चार चार साल की कैदे बामशक्कत की सजा सुनाई थी। सैसन जज के इस निर्णय के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील करीब २७ साल तक लंबित रही। १३ जनवरी को हाई कोर्ट ने अपील ख़ारिज करते हुए निचली अदालत का फैसला बहाल रखा था। गत २८ सालों में अशोक चांडक और पीडी लूथरा ने अपने अपने क्षेत्रों में काफी नाम और दाम कमाया। आज दोनों जेल में हैं।
12.8.10
सात दिन बाद दिखी खबर
Posted by गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर
Labels: दुविधा
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