सुधीश पचौरी
मुक्तिबोध की चिन्ता के केन्द्रीय विषय हैं प्रेम और सौंदर्य। बुनियादी प्रश्न मुक्तिबोध की कविता में ही आ गया है
'समस्या एक -
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी सुंदर व शोषणमुक्त
कब होंगे ?
ये उनकी कविता का एक अंश है और यही उनकी चिन्ता का बुनियादी विषय रहा है। मुक्तिबोध बार बार कहते हैं कि मानव प्रेम और सौंदर्य ये मेरी चिन्ता के प्रमुख विषय हैं। नयी कविता के उस दौर में ,जो 1943 के आसपास का दौर है, ये लोग प्रगतिशील आंदोलन के साथ सीपीआई के सदस्य थे,नेमीचंद जैन,मुक्तिबोध आदि। उस समय उन्होंने तारसप्तक में एक बयान लिखा है ,उससे सिद्ध होता है कि 'नयी राहों' के अन्वेषण की व्याकुलता उनमें ज्यादा है। उस समय का जो भारत है ,इस उभरते हुए नए भारत में,नया मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग ,उसके भविष्य की चिन्ता इनकी केन्द्रीय चिन्ता है। यह चिन्ता जीवनभर रही। ये अकेले कवि हैं जो अपनी इस पोजीशन में सतत रहे।
मुक्तिबोध को पढ़ते हुए दो गलतियां हुईं,एक गलती हुई है उन्हें मार्क्स्रवाद का पर्याय मान लिया गया। सन्1970 का जो अति रूमानी रेडिकलिज्म था। वहां मुक्तिबोध को मार्क्सवादी चिंतन का पर्याय मान लिया गया। कला को मार्क्सवाद का पर्याय मान लिया गया, वे मार्क्सवादी हैं,लेकिन मार्क्सवादी चिन्तन का पर्याय नहीं है। यह कुछ ज्यादती थी। इस कारण उनकी कविताओं में क्रांति से नीचे कोई चीज नहीं निकाली गयी। सत्तर में एक रोमानी नक्सलबाड़ी आंदोलन था और हिन्दी क्षेत्र में चूंकि कोई मार्क्सवादी आंदोलन नहीं था इसलिए इस अनाथ अवस्था में कोई एक मार्क्सवादी मिल भी मिल गया तो जैसे कोई अलाव मिल गया जिसे ताप ताप कर गरमी लेते रहे। मुक्तिबोध कुछ कुछ ऐसे ही थे। फलत: यह विचार घर कर जाता है कि मार्क्सवाद कोई गरम गरम विचार या आंदोलन है।
मुक्तिबोध में एक गुण था वे मार्क्सवादी अतियों के विरूद्ध भी लड़ते थे, मार्क्सवादी अति के रूप में रामविलास शर्मा की जो पोजीशन थी उसे लेकर भी मुक्तिबोध लड़े थे, इसलिए भी वे बहुत प्रिय थे। एक तो रेडीकल रोमैंटिशिज्म ने मुक्तिबोध को ठीक ठीक पढ़ने नहीं दिया, दूसरा जब से 'अंधेरे में' कविता को केन्द्र में लाया गया तो उनकी अन्य कविताएं और अन्य विचार पीछे चले गए। उसमें भी एक अति यह हुई कि 'अंधेरे में' कविता को अस्मिता की खोज बताया गया। इस अस्मिता को मार्क्सवाद के अलगाव से जोड़कर देखा गया और लगभग पर्याय मानकर चला गया, तो खोज तो हो गयी लेखक की अस्मिता की लेकिन यह किसी ने सिद्ध नहीं किया कि लेखक का अजनबीपन क्या श्रम के अजनबीपन जैसा है ? और क्या जैसाकि नामवरजी ने ओमप्रकाश ग्रेवाल साहब के रिव्यू के जबाव में द्वितीय संस्करण में लिखा है कि अस्मिता को उन्होंने मार्क्स के चार चरण वाले अजनबीपन से जोड़कर देखा है,अगर 'अंधेरे में' कविता को लेकर कोई बहस आगे चली होती और जो इन चार अजनबीपन के चरणों पर विचार करती तो शायद लाभकर होती। लेकिन उधर बहस नहीं गयी। बहस कविता के पूजा पाठ में बदल गयी,नायक को क्रांतिकारी मानकर चलने लगी ,क्रांति की तलाश में छटपटाता हुआ मध्यवर्ग का अपराधबोध से भरा हुआ हीरो अपराधबोध से ग्रस्त है ,और अस्मिता यानी पूर्ण अभिव्यक्ति की तलाश में भटकता है। आज के युग में अगर हम मुक्तिबोध में अस्मिता ढूंढेंगे तो उनके ब्राह्मणवाद को कहां ले जाकर फूंकेंगे। उनके ब्राह्मण को कहां ले जाएंगे। क्या हम यह कह सकते हैं कि मुक्तिबोध का नायक वह मिडिलक्लास ब्राह्मण है जो अपनी अस्मिता की तलाश कर रहा है।
आधुनिक युग में अस्मिता का अर्थ है जातिगत अस्मिता या धार्मिक अस्मिता ,वह मार्क्स के युग की अस्मिता का कंसेप्ट नहीं है। यह बात तो आदरणीय नामवर जी ही बता सकते हैं कि उनका इस अस्मिता के बारे में क्या ख्याल है। क्योंकि अस्मिता की अवधारणा जातिगत, धर्मगत और लिंगगत है। ऐसी स्थिति में 'अंधेरे में' में कविता के नायक की अस्मिता का बोध या उसकी तलाश करना एक तरह की भ्रम की स्थिति पैदा करता है। इसलिए मुक्तिबोध का पुनर्पाठ किया जाना चाहिए।
अगर उनकी कविता परम अभिव्यक्ति की खोज है तो क्या मुक्तिबोध किसी मार्क्सवादी ढ़ांचे से बाहर नहीं गिर पड़ते ? क्या मार्क्सवाद में कोई परम चीज है या वो हेगल के नजदीक पहुँच जाते हैं। एवसोल्यूट विचार या बर्गसां की फिलासफी के नजदीक पहुँच जाते हैं जैसाकि शमशेर ने कहा था। बहुत कम तलाशा गया इस बात को कि जो शक्ति जनमानस में मुक्तिबोध ढूंढते फिरते हैं जो ऊर्जा ढूंढते फिरते हैं उस उर्जा की अवधारणा बर्गसां के यहां मिलती है। और यह संकेत किया शमशेर बहादुर सिह ने। और इसका बाद की समीक्षाओं में नोटिस तक नहीं लिया गया। जबकि मुझे यह ज्यादा समीचीन लगती है। और मार्क्सवाद यदि कोई परम चीज नहीं है तो परम अभिव्यक्ति उनका आदर्शवाद ही कहा जाएगा। एक असंभव चीज की वो कल्पना करते हैं ओर इसी मायने में 'अंधेरे में' कविता एक स्थायी महत्व की कविता है वो अपने भीतर एक ऐसी जटिलताओं को लिए हुए कि हमें एक और अर्थाना चाहिए।
पूरे शीतयुद्ध काल में जो सुविधाजनक घल्लूघारा वैचारिक हुआ है। वह बहुत पुराने जमाने से चल रहा था ।शीतयुद्ध में दो कट्टर विचारधारात्मक ध्रुव हैं । एक फ्रीडमवाला,पूंजीवाद वाला। दूसरा सोवियत समाजवादी वाला । यदि सत्य बात का सहारा लिया जाय यानी ऑलट्रूइजिज्म का सहारा लिया जाए तो हम यह कहेंगे दोनों में ही कुछ न कुछ ठीक होगा। हम यह मान लेते हैं कि इन दो ध्रुवों में कुछ समान है और इनका मीटिंग पॉइण्ट भी कुछ है। और हम लिबरलिज्म या सोशल डेमोक्रेसी में आ जाते हैं और हिन्दी कविता का एसेंस इसी ओर धावित है। ये मिडिल क्लास से जो रचनाकार आए हैं वे ज्यादातर सोशल डेमोक्रेट की हद तक ही जाते हैं। लेकिन विचारधारा में थोडी कला भी रहे थोडा विचार भी रहे। थोडा मार्क्सवाद रहे। लेकिन सज संवर कर रहे। संघर्ष की रफनेस को वे कला का अभाव कह देंगे इसलिए हम देखते हैं कि वह कवि आभिजात्य भद्रता है जिसने देहाती पृष्छभूमि से आनेवाले रचनाकारों को एकोमिडेट किया ,उनका मूल्यांकन नहीं किया। खुद को भी जब रेडिकलिज्म में कलावंतों ने एकोमिडेट किया तो मुक्तिबोध को अपना प्रिय कवि माना ।संघर्ष् की रफनेस को कला का अभाव कहा गया। आभिजात्यबोध के कवि तो चर्चा के केन्द्र जमे रहे हैं पर जो नहीं रहे हैं ,जैसे नागार्जुन या त्रिलोचन इनको एकोमिडेट किया गया। खुद को भी जब लिबरल कलावंतों ने एकोमिडेट किया तो मुक्तिबोध को अपना कवि माना। ज्यादातर साहित्य में नेहरूवादी विचारधारा एकोमिडेटिव चिन्तन है। हिन्दी में ज्यादातर एकोमिडेटिव चिन्तन है आलोचनात्मक चिन्तन नहीं है। वे एक दूसरे को छूकर अच्छा बनने की बात करते हैं इसीलिए मार्क्सवादी भी मुक्तिबोध को अपना मानते हैं और गैर मार्क्सवादी भी अपना मानते हैं। लिबरलिज्म के विस्तार में यह होता है। लेकिन यह मुहावरा अपने आप में समस्यापूर्ण कौन किसे अपना मान ले तो अपना काम हो जाता है यानी कि वो मेरी लिस्ट में शामिल है तो मेरा काम पूरा हो गया।
मुक्तिबोध को स्वीकार करने की बजाय आलोचना की जरूरत है। मार्क्सवादी गैर मार्क्सवादी दोनों ही उन्हें अपना मानते हैं वे लिबरलिज्म के विस्तार में ऐसा मानते हैं। पर इस मुहावरे के संकट हैं कि क्या हम किसी को अपना मान लें तो हमारा काम हो गया ? नामवरजी की लम्बी टिप्पणी के बाद कोई ऐसा ग्रंथ नहीं जो मुक्तिबोध की आलोचना करता हो। मुक्तिबोध को स्वीकार करने में एकोमिडेटिव पॉलिटिक्स है। यानी दो की सीट थी तीसरे को और बिठा लिया और अपनी सदाशयता का परिचय दे दिया। यानी लिबरलिज्म है वह राजनीतिक एकांमिडेटिवनेस की ओर चला गया,इम्पोर्टेंट यह है ही नहीं कि मुक्तिबोध को स्वीकार करें या अस्वीकार करें।
महत्वपूर्ण है कि जो प्रश्न मुक्तिबोध कला को लेकर उठाते हैं,नए मध्यवर्ग या नयी पीढ़ी को लेकर जो उनके चिन्तन में बुनियादी चीज है इकोनॉमिज्म का बडा आधार बनता है वे बार बार स्थापित करते हैं ,नए सवाल उठाते हैं,नए अर्थव्यवस्था के आधार को लेकर सवाल उठाते हैं उस पर बात की जाय।
मुक्तिबोध अपनी कविता में जिसे पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है कहते हैं, इस सवाल का आधार है लोअर मिडिल क्लास जो शोषित है वह मार्क्सवाद का मित्र है। जो नयी कविता का कवि है ज्यादातर। और इस तरह से उसकी चेतना का ट्रांसफारमेशन हो सकता है। यह एक तरह से मुक्तिबोध का नीतिगत सोच है। जिसके आधार पर वे नयी कविता के दायरे को विस्तार देते हैं,कविता को व्यापक प्रक्रिया मानते हैं, जिसमें अन्तर्विरोधी तत्व भी है। मुक्तिबोध भी बुशर्ट की तरह हैं उन्हें अपनाने से बात नहीं बनेगी, न उनके संस्मरण बताने से, इससे से पाठ का अभाव पूरा नहीं होता, पुनर्पाठ का अभाव बना रहता है।
संघ के लोग मुक्तिबोध से क्यों चिढते हैं,उस समय के संघ और आज के संघ की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं है जहां तक मुक्तिबोध की पुस्तक का सवाल है वह टेक्स्ट बुक राजनीति का शिकार बनी। हॉं मुक्तिबोध विक्टिमाइज जरूर थे,उनके पत्रों में खबर मिलती है। कि भारतभूरण अग्रवाल ने ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी नहीं लगने दी। इसका रहस्य क्या हे अशोक बाजपेयी,नामवरजी,नेमिचंद जैन आदि ने इस पर टिप्पणी क्यों नहीं की ? कम से कम आरोप का जबाव तो दें। यह सच है मुक्तिबोध चतुर नहीं थे,मुक्तिबोध की समस्या यह थी कि वे मासूम रहे वे आज के खटराराग जानते होते तो कुछ न कुछ कर गुजरते। यही खटराग है जो आज की पीढ़ी को नरम बना देता है। मुश्किल यह है कि ये सारे धूर्त हैं इसलिए सीधे आदमी को प्यार करते हैं। रामविलास जी और अन्य मुक्तिबोध के आलोचकों ने मुक्तिबोध की कविता और व्यक्तित्व में कोई फर्क नहीं किया। वे सताए हुए हैं ,आतंकित हैं,इसलिए उनकी कविता में भय और आतंक है, कविता को इतने सीधे सीधे नहीं देखा जाना चाहिए ।
रचना व्यक्तित्व और काल की अभिव्यक्ति नहीं उससे पलायन है। एक ऑब्जेक्टिव रियलिटी बनती है रचना के साथ। अन्य किस्म के विमर्शों के सदर्भ में मुक्तिबोध की कविता का पाठ होना अभी बाकी है।उनकी कविता में तिलक,गांधी और तॉल्स्ताय सभी उँची जाति और शासकवर्ग के हैं। मुक्तिबोध दृश्यात्मक कविता लिखते हैं। सिम्बॉलिक कविता नहीं। फिल्म की पटकथा की तरह कविता लिखते हैं। रियलिटी सिद्धान्त की मांग है कि कविता को यथार्थ के संदर्भ में देखें ,पर कविता के अंदर की रियलिटी को देखना चाहिए। मुक्तिबोध एक जगह कहते हैं ' मेरी ही निष्क्रियता की वजह से लगा कर्फ्यू' यह मुक्तिबोध का सार्त्रीय झुकाव है। मुक्तिबोध मध्यवर्ग से एक्टिविज्म की मांग करते हैं यह मार्क्सवादी मांग है, स्वाधीनता समीक्षा मुक्तिबोध के लिए सिस्टम समीक्षा है।
(सुधीश पचौरी,प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक और मीडिया विशेषज्ञ हें,सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं,उनसे यह बातचीत डा;सुधा सिंह , एसोसिएट प्रोफेसर,हिन्दी विभाग,दिल्ली वि.वि. ने प्रस्तुत की है )
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