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26.8.13

अजेय नहीं है चीन-ब्रज की दुनिया

मित्रों,पिछले कुछ महीनों से हमारी मीडिया और हमारी केंद्र सरकार भारत-चीन सीमा पर चीन की आक्रामक गतिविधियों से इस कदर भयभीत हैं जैसे चीन कोई अजगर (ड्रैगन) हो और भारत कोई मेमना। जबकि असलियत तो यह है कि न तो चीन अजगर है और न ही भारत मेमना। भले ही चीन सैन्य तैयारियों के मामले में हमसे दो दशक आगे है,भले ही उसका सालाना रक्षा बजट हमसे 15 गुना ज्यादा है,भले ही उसकी जीडीपी हमसे 5 गुना अधिक है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम युद्ध से पहले ही मनोवैज्ञानिक तौर पर पराजित हो जाएँ। इतिहास गवाह है कि वर्ष 1979 ई.  के चीन-वियतनाम युद्ध में एक छोटे-से देश जिसका क्षेत्रफल मात्र सवा तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और जिसकी वर्तमान समय में आबादी मात्र 9 करोड़ है के सामने विशालकाय चीन को मुँह की खानी पड़ी थी। हम चाहे सैन्य-संसाधन में कितने भी कमजोर क्यों न हों तो भी हरेक दृष्टिकोण से हम वियतनाम से तो कई गुना ज्यादा मजबूत हैं। फिर चीन से भय कैसा? चीन का सामना करने में घबराहट क्यों और कैसी? संस्कृत में एक कहावत है कि जब तक आपदा सामने न जाए तब तक हमें उससे नहीं डरना चाहिए और जब सामने आ जाए तो डरने से कुछ लाभ नहीं होनेवाला इसलिए बुद्धिमत्ता से उसका सामना करना चाहिए।
                            मित्रों,जब शत्रु अत्यंत क्रूर और निर्दय हो और इस कदर नास्तिक हो कि बंदूक को ही अपना भगवान मानता हो तो उसके सामने गिड़गिड़ाने और दंडवत होने से तो और भी कुछ हासिल नहीं होनेवाला है सिवाय जलालत के। इतिहास गवाह है कि लड़ाइयाँ साजो-सामान से नहीं जीती जातीं जज्बे से जीती जाती हैं। 1965 की लड़ाई में निश्चित रूप से पाकिस्तान के पास हमसे अच्छे अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन लाल बहादुर शास्त्री के तेजस्वी नेतृत्व ने दोनों सेनाओं के बीच बहुत बड़ा फर्क पैदा कर दिया। 1962 में हम चीन को कड़ी टक्कर दे सकते थे लेकिन तब नेहरू इस कदर भयग्रस्त थे कि बिना लड़े ही उन्होंने गौहाटी तक से सेना वापस बुला ली थी। दुर्भाग्यवश हमारा वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व भी उसी नेहरूवादी,पलायनवादी मानसिकता का शिकार है जिसके चलते हमें 1962 में अकारण मुँह की खानी पड़ी थी। कभी-कभी जोरदार टक्कर मारने के लिए पीछे भी हटना पड़ता है लेकिन हमारी वर्तमान सरकार तो ऐसा करती हुई भी नहीं दिखती बल्कि वो बेवजह पीछे हटती जा रही है और चीन के हाथों अपमान-पर-अपमान बर्दाश्त करती जा रही है।
                                                          मित्रों,नेपोलियन बोनापार्ट के पास कोई दुनिया या यूरोप की सबसे बड़ी सेना नहीं थी लेकिन उसने अपनी यूरोपजयी सेना को मानसिक तौर पर काफी सख्त बना दिया था। उसके जोशीले भाषण सेना पर जादू कर जाते थे और तब वे तब तक अलंघ्य समझे जानेवाले आल्प्स पर्वत को भी छोटा-सा टीला समझकर आसानी से पार कर जाते थे। बाबरनामा बताता है कि 17 मार्च,1527 के खानवा के युद्ध में एक समय बाबर की सेना मैदान छोड़कर भाग निकली थी लेकिन बाबर का मनोबल तब भी ऊँचा था। बाबर ने अपनी हताश सेना के सामने ही अपने शराब के प्यालों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और फिर कभी शराब नहीं पीने की प्रतिज्ञा की। इस छोटी-सी घटना का उसकी सेना पर जादुई असर हुआ और एक छोटी-सी सेना ने सही व्यूह-रचना का उपयोग कर अपने से कई गुना बड़ी सेना हरा दिया। छत्रपति शिवाजी को ही लीजिए जिन्होंने सह्याद्रि में महान मुगलों को लोहे के चने चबवा दिए थे। शिवा ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि और छापेमार रणनीति से मुगल सेना की विशालता को ही उसकी कमजोरी बना दिया था।
                                 मित्रों,इसलिए मैं कहता हूँ कि विश्वास रखिए अभी भी देर नहीं हुई है। बस हमें अपने प्रतिरक्षा सेक्टर की ओवरहॉलिंग करनी होगी। हमें अल्पकालीन के साथ-साथ दीर्घकालीन रणनीतियाँ भी बनानी होंगी। 1990 के दशक में कलाम साहब के नेतृत्व में बनी एक कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार हमें जहाँ वर्ष 2005 तक 70% रक्षा निर्माण खुद करना था और 30% ही आयात करना था आज हम अपनी जरुरतों का 70% आयात करते हैं। पूर्वनिर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम हमें नेता,अफसर और सैन्य-संस्थानों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित करना होगा। फिर हमें निजी क्षेत्र के लिए प्रतिरक्षा क्षेत्र को भी खोलना होगा। विदेशों से साजो-सामान मंगाने पर हमें दोगुना खर्च करना पड़ता है। वर्ष 2006 में पूरे विश्व के हथियार आयात में हमारी हिस्सेदारी 9% थी जिसको हम बदल सकते हैं। इसके लिए हमें प्रतिरक्षा क्षेत्र को भी यथासंभव विदेशी निवेशकों के लिए खोलना होगा। हमें बेहतरीन तकनीकी से लैस हथियारों के आयात को जारी रखते हुए आत्मनिर्भरता की ओर तेज गति से कदम बढ़ाना होगा और आलतू-फालतू सामानों के आयात और निर्माण पर व्यय करने से बचना होगा। सिर्फ मिसाइलें दागने और परमाणु हथियार इकट्ठा कर लेने से हमें कुछ भी हासिल नहीं हो्गा। हमें परंपरागत हथियारों और तरीकों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सिर्फ सही जगह पर,सही साजो-सामान पर पैसा खर्च करना होगा। हमें रणनीतिक मामलों में योजना बनाते समय वियतनाम,ईजराइल और जापान जैसे उन देशों की मदद भी लेनी होगी जो रणनीतियाँ बनाने के फन में माहिर हैं और जिन्होंने कभी-न-कभी भूतकाल में मदांध चीन को पराजित किया है। इसके साथ ही हमें अपने उन तजुर्बेकार जनरलों और सेनानायकों की सलाहों पर भी काफी संजीदगी से अमल करना होगा जिन्होंने 1962,65,71 और 99 की लड़ाइयों में सक्रिय भागीदारी की है।
                          मित्रों,चीन की बात करते समय हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि अगर वियनामियों की तरह जीवट और समुचित व सामयिक रणनीति बनाकर उस पर पूरी गंभीरता से अमल किया जाए तो सीमित साधनों के बूते भी चीन ही नहीं महाशक्ति अमेरिका को भी युद्ध के मैदान में हराया जा सकता है। हमें चीन की बात करते समय यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारा वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व भले ही चीन के भय से काँप रहा हो हमारे तीनों सेनाओं के जवानों का मनोबल हमेशा की तरह आठवें आसमान पर है। हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र हैं और हमारा एक-एक युवा मर-मिटेगा मगर देश को अपमान का मुँह कभी देखने नहीं देगा। हमें आज भी यह बात याद है कि कभी हमारे जवानों की हिम्मत और बहादुरी की प्रशंसा करते हुए इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन ने कहा था अगर उन्हें आधी भारतीय सेना दे दी जाए तो वे इसके बूते पूरी दुनिया को जीतकर दिखा सकते हैं।
                          मित्रों,मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि भयभीत होने या घबराने से हमारे राजनैतिक नेतृत्व को कोई लाभ नहीं होगा। हमें होश को बनाकर और बचाकर रखना होगा और जोश को भी। फिर अकेले चीन तो क्या हम एक साथ चीन और पाकिस्तान दोनों को ही पराजित कर सकते हैं। परन्तु हमारे गले में विजयश्री तभी वरमाला डालेगी जब हमारा नेतृत्व लाल बहादुर शास्त्री की तरह वास्तव में नेशन फर्स्ट एंड लास्ट की नीति पर चले जो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री और यूपीए के सत्ता में रहते संभव ही नहीं है। मनमोहन सिंह और इन दिनों की कांग्रेस पार्टी के लिए तो सत्ता और सत्ता से उपजनेवाला कालाधन ही अथ भी है और इति भी। उनकी प्राथमिकता सूची में देश और देशहित कहीं है ही नहीं। 

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