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31.5.16

उच्च शिक्षा से आरक्षित वर्गों को बाहर करने की साजिश

-एच.एल.दुसाध

कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों में एडमिशन का दौर शुरू होने वाला है लेकिन इसे लेकर सवर्ण बुद्धजीवियों और अभिभावकों की चिंता अभी से सोशल मीडिया और अख़बारों में दिखने लगी है.वे तरह-तरह का तर्क देते हुए यह साबित करने में जुट गए हैं कि कोटे वालों की वजह से सवर्ण छात्र 90-95 प्रतिशत अंक पाकर भी मनचाहे विषयों में दाखिला पाने से वंचित हुए जा रहे हैं.इससे शैक्षणिक परिसरों में कुंठा फैलती जा रही है और शोध व ज्ञान का स्तर गिरता जा रहा है.कुछ ज्ञानियों का यह भी कहना है कि, ‘शीर्ष तकनीकी और मैनेजमेंट शिक्षा के परिसरों में कई महत्वपूर्ण विषय पढ़ाने को आरक्षित कोटे में व्याख्याताओं की स्थाई नियुक्तियां(विज्ञापन देकर भी समुचित आवेदक न मिलने से) नहीं हो पातीं .यह सीटें चूंकि गैर कोटा श्रेणी के तहत भरना मना है इसलिए सालों से तदर्थवादी प्रवक्ताओं की नियुक्ति रही है.इससे मेधावी छात्र इच्छा होते हुए भी शिक्षण में करियर बनाना असुरक्षित मानने हैं और अब मांग हो रही है कि कॉलेजों में प्रवक्ताओं की नियुक्ति ही नहीं, प्रोफ़ेसर या डीन सरीखे सीनियर पदों पर उनकी प्रोन्नति भी कोटा प्राणाली के आधार पर ही की जाय.इसका राजनीतिक आधार भले ही तगड़ा हो,पर व्यवहारिक रूप से यह करना शिक्षा के स्तर से खिलवाड़ साबित हो सकता है.’जाहिर सी बात है कि सवर्णों को लगता है कि कोटेवालों की वजह से ही मेरिट वालों में कुंठा तथा शिक्षण में कैरियर बनाने में अरुचि पैदा हो रही है.ऐसा कहकर वे प्रकारांतर में उच्च शिक्षा में आरक्षण के खात्मे की हिमायत कर रहे हैं.और अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो उन्हें खूब दोष भी नहीं दिया जा सकता.कारण,खुद सर्वोच्च न्यायायलय में बैठे जज तक इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं.


काबिले गौर है कि 27 अक्तूबर,2015 को आंध्र प्रदेश,तेलंगाना और तमिलनाडु में सुपर स्पेशियलिटी कोर्सेज में प्रवेश को लेकर योग्यता मानकों को चुनौती देने के सम्बन्ध में दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते उच्च शिक्षण संस्थानों में मोदी सरकार को आरक्षण ख़त्म करने की बात कही थी.कोर्ट ने कहा था कि देश को आजाद हुए 68 साल हो गए,लेकिन वंचितों के लिए जो सुविधा उपलब्ध कराइ गयी थी, उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है.अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि इस सम्बन्ध में उचित कदम उठाये क्योंकि राष्ट्रहित में ऐसा करना बेहद जरुरी हो गया है.जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस पीसी पंत की खंड पीठ ने कहा था कि विशेषाधिकारों से हालत नहीं बदले हैं.चिकित्सा संस्थानों में सुपर स्पेशियलिटी कोर्सेज में आरक्षण मुद्दे के दो मामलों पर शीर्षस्थ अदालत ने यह भी कहा था कि ‘वास्तव में कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए.अब समय आ गया है कि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जाय और उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बढाकर देशवासियों को सुविधा उपलब्ध कराई जाए.’ लगता है सुप्रीम कोर्ट का यह संदेश केंद्र सरकार तक भले ही न पहुंचा हो किन्तु विश्वविद्यालयों तक पहुँच गया है इसलिए ही वहां आरक्षण को निष्प्रभावी करने की मुहिम तेज हो गयी है.इसका अंदाजा हालही में उत्तर प्रदेश की एक यूनिवर्सिटी की इस करतूत से लगाया जा सकता है कि वहां शिक्षकों की 84 में से सिर्फ एक सिट को आरक्षित घोषित कर शेष 83 पर एक जाति विशेष(ब्राह्मणों) की नियुक्ति का पुख्ता इंतजाम कर लिया गया था.किन्तु मामला प्रकाश में आने के बाद फिलहाल यह अधर में लटक गया है .

बहरहाल आज रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से आक्रोशित होकर जो लोग उच्च शिक्षण संस्थानों में पसरे भेदभाव को ख़त्म करने का संकल्प लिए हैं उन्हें उपरोक्त तथ्यों के आइने में यह सत्योप्लब्धि कर लेनी होगी कि इन संस्थाओं को संचालित करने वाले सवर्ण वीसी,डीन,प्रोफ़ेसर,प्रॉक्टर ही नहीं,सवर्ण अभिभावक,साधु-संत,मीडिया-बुद्धिजीवी,जज-वकील,उद्योगपति-व्यापारी,अधिकारी और नेता सभी ही हजारों साल से शिक्षा से बहिष्कृत रहे दलित,आदिवासी,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को उच्च शिक्षा से बाहर करने के लिए लामबंद हो रहे हैं.ऐसा लगता है शिक्षा का अधिकारी वर्ग गुलाम भारत का इतिहास आजाद भारत में भी दोहराने का मन बना लिया है.स्मरण रहे गुलाम भारत में अंग्रेजों के सौजन्य से शिक्षालयों से बहिष्कृत जातियों के शिक्षार्जन का अवसर जिस तरह ब्राह्मणों की अगुआई में सवर्णों ने प्रायः पूरी तरह व्यर्थ कर दिया था,उसी तरह आजाद भारत में सविधान के जरिये उच्च शिक्षा में मिले अध्ययन-अध्यापन के अवसर को व्यर्थ करने की तैयारी चल रही है.गुलाम भारत में  ब्राह्मणों में एक तरह से बल पूर्वक शिक्षा के सारे अवसरों पर कब्ज़ा जमा लिया था,अब आजाद भारत की उच्च शिक्षां में वीसी, डीन, प्रोफ़ेसर, प्रॉक्टर, रजिस्ट्रार इत्यादि के प्रायः 90 प्रतिशत पदों कब्ज़ा जमा कर लोकतंत्र का खुला मजाक उड़ाने वाले ब्राह्मण-सवर्ण मीडिया,न्यायपालिका में हावी ब्राह्मणों को संगी बना कर उच्च शिक्षा में संविधान प्रदत अवसरों को बेकार करने का मन बना लिए हैं.

गुलाम भारत में जोतीराव फुले ने दयालु अंग्रेज सरकार के समक्ष बार-बार प्रतिवेदन देकर जिन्हें बराबर से शिक्षा का अवसर सुलभ रहा है,उनकी जगह शिक्षा से बहिष्कृतों को तरजीह देने की बात कही थी. लेकिन आज स्वाधीन भारत में ऐसी कोई दयालु सरकार नहीं है जिसके ध्यान में यह बात डाली जाय कि जिस परजीवी वर्ग का सदियों से शिक्षा पर एकाधिकार रहा है, उनका इक्कसवीं सदी में उच्च शिक्षा पर एकाधिकार लोकतंत्र और मानवता के खिलाफ है.खुद वंचित वर्गों  से आये नेता भी यह अन्याय देखकर आँखे मूंदे हुए हैं. ऐसे में रोहित वेमुला को इंसाफ दिलाने का संकल्प लिए बहुजन छात्र-छात्राओं और शिक्षकों को ही अब नए युग के फुले की भूमिका में अवतरित होकर उच्च शिक्षा में छाए अंधकार और अमानवीयता के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी. ऐसा नहीं करने पर बहुजन समाज गांधी का शूद्र बनने के लिए विवश होगा.स्मरण रहे वर्ण-व्यवस्था के ध्वंस में हिन्दू धर्म का ध्वंस देखने वाले गांधी दलित-आदिवासी और पिछड़ों की इतनी ही शिक्षा के हिमायती थे,जिससे वे शूद्र-कर्म को बेहतर तरीके से अंजाम दे सके.भारत के वर्तमान प्रभु-वर्ग को गाँधी की भांति बहुजनों की उतनी ही शिक्षा काम्य है जिससे वह तीसरे, चौथे दर्जे का काम ठीक-ठाक तरीके से कर सकें .वह बहुजन समाज समाज के लोगों को वीसी, डीन, प्रोफेसर, प्रॉक्टर, डॉक्टर, इंजीनियर, लेखक, पत्रकार इत्यादि के रूप में देखने की मानसिकता खोते जा रहा है और इक्कीसवीं सदी में पहुंची मानव-सभ्यता में ऐसी मानसिकता के लिए कोई जगह है.ऐसे में यदि रोहित वेमुला के लोग अगर उच्च शिक्षा में चल रही साजिश की काट करना चाहते हैं तो एजुकेशन डाइवर्सिटी की लड़ाई से भिन्न कोई अन्य विकल्प नहीं है.

उच्च शिक्षा एजुकेशन डाइवर्सिटी का अर्थ हुआ विश्वविद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन और प्रशासनिक विभाग में भारत की सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन अर्थात भारत के चार प्रमुख सामाजिक समूहों-(1)-सवर्ण, (2)-ओबीसी, (3)-धार्मिक अल्पसंख्यकों और (4)- एससी/एसटी-)के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में उपरोक्त क्षेत्रों में अवसरों का बंटवारा. मसलन डीयू/जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय हों या आईआईटी, आईआईएम, एम्स जैसे हाई प्रोफाइल संस्थान,वहां एडमिशन और टीचिंग में जिस सामाजिक समूह का जो जनसंख्यानुपात है उसमें  आधा अवसर उस समाज के पुरुषों को और आधा उसकी महिलाओं को मिले.ऐसा करने पर उच्च शिक्षण संस्थाओं का प्रजातंत्रीकरण हो जायेगा जिससे सभी सामाजिक समूहों के स्त्री-पुरुषों को समान अवसर मिलेगा. वीसी, प्रोफ़ेसर ,डीन और प्रॉक्टर इत्यादि के पदों के बंटवारे में भी यह सामाजिक और लैंगिक विविधता दिखनी चाहिए.        

उच्च शिक्षा में समानता लाने व सभी सामाजिक समूहों को शिक्षार्जन का समान अवसर सुलभ कराने वाला सामाजिक और लैंगिक विविधता का यह सूत्र कोई कल्पना का विषय नहीं है.लोकतान्त्रिक रूप से परिपक्व तमाम देश ही इसका अनुसरण करते हैं.खास कर जिस अमेरिका के फिल्म-टीवी,फैशन,टेक्नोलॉजी,लोकतान्त्रिक मूल्यों का अन्धानुकरण भारत करता है,उस अमरीका की ताकत और समृद्धि का राज यही विविधता नीति है.वहां फिल्म-मीडिया,उद्योग-व्यापार इत्यादि तमाम क्षेत्रों की भांति उच्च शिक्षा में भी सामाजिक और लैंगिक विविधता को सम्मान दिया जाता है. इस विषय में कई दर्जन नोबेल विजेता देने वाले हारवर्ड विश्वविद्यालय का यह आदर्श वाक्य –‘अमेरिका की जनसंख्या की नस्लीय/जातीय बुनावट को संस्थान की संकाय में विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या उनकी संख्यानुपात में परिलक्षित होनी चाहिए’-काबिले गौर है.विविधता की वकालत करते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय घोषित करता है-‘ विश्वविद्यालय समुदाय के भीतर विविधता विश्वविद्यालय के अकादमिक उद्देश्यों को बढ़ाती है और ऐसी विविधता को प्राप्त करने के लिए एक सकारात्मक कार्य नीति आवश्यक है.’चिकित्सा शिक्षा की दुनिया में सर्वाधिक विश्वसनीय हारवर्ड के सामने भारत की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों  की हैसियत प्राइमरी स्कूलों जैसी है.हारवर्ड ही नहीं अंतरिक्ष विज्ञान में एवरेस्ट बना अमेरिका का नासा भी नस्लीय/लैंगिक विविधता का पालन करते हुए सदियों के जन्मजात वंचितों को अवसर सुलभ कराने में कहीं से भी पीछे नहीं है.किन्तु यह मध्य युग में वास करता एकमात्र भारत है जहां मेरिट के नाम पर सदियों से शिक्षा के क्षेत्र से बहिष्कृत जातियों को उच्च शिक्षा से वंचित करने का षड्यंत्र आज भी जारी है.यहाँ के ज्ञान-क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाये लोगों में आज भी ‘मनु’ और ‘द्रोणाचार्य’ की आत्मा वास करती है.ऐसे में आज जबकि वंचितों को उच्च शिक्षा से बाहर करने की साजिश जोर-शोर से जारी है,रोहित वेमुला के लोगों का यह अत्याज्य कर्तव्य बनता है कि वे शिक्षा के एकाधिकारी वर्ग को उसके संख्यानुपात पर सिमटाने में सर्वशक्ति लगाएं.बिना ऐसा किये शिक्षा जगत में व्याप्त अन्याय-अनाचार का खात्मा नहीं हो सकता .

लेखक एचएल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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